पाखण्ड

विकिसूक्ति से
  • कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥ -- श्रीमद्भगवद्गीता
जो मूर्ख व्यक्ति अपनी कर्मेन्द्रियों को वश में कर लेता हैं परन्तु मन में इन्द्रियसुख के विषयों के बारे में सोचता रहता है, वह मिथ्याचारी (पाखंडी) कहलाता हैं।
  • दम्भोदर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पौरुषमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासूर्यम् ॥4॥
दम्भ (पाखण्ड), घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान असुरी सम्पत्ति अर्थात बंध का कारण हैं। -- श्री कृष्ण, गीता के १६/४ श्लोक में
  • पाषण्डिनो विकर्मस्थान्बैडालव्रतिकांछठान्।
हैतुकान्वकवृत्तींश्च वाड्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ -- मनुस्मृति
पाखंडी, दुष्ट कर्म करने वाला, दूसरों को मूर्ख बनाकर उनका धन लूटने वाला, दूसरों को दुख पहुंचाने वाला व वेदों में श्रद्धा न रखने वाला - इन 5 लोगों को अतिथि नहीं बनाना चाहिए और इनका शिष्टाचार पूर्वक स्वागत भी नहीं करना चाहिए।
  • उच्चेरध्ययनं पुराणकथा स्त्रीभिः सहालापनं
तासामर्भकलालनं पतिनुतिस्तत्पाकमिथ्यास्तुतिः ।
आदेश्यस्य करावलम्बनविधि: पांडित्यलेखक्रिया
होरागारुडमंत्रतंत्रकविधिपाखंडोब्राह्मणोंर्गुणा द्वादश ॥ -- सुभाषित रत्नावली - ३
पाखण्डी ब्राह्मण के बारह गुण हैं- (सब को अपना संस्कृत ज्ञान दिखाने के लिए) बड़े बड़े आवाज़ से पाठ करना ; (केवल) पुराण की कथाओं का पारायण करना (क्योंकि उसे वेदों का ज्ञान नहीं है) ; स्त्रियों के देख कर (उनके सामने अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करने) उनके साथ वार्तालाप करना ; स्त्रियों के पति की मिथ्या प्रशंसा करना (अर्थात किसी भी व्यक्ति के सामने लाचार हो जाना) ; (ऐसी स्त्रियों को प्रभावित करने) उनके बालकों को संभालना ; स्त्रियों की रसोई की मिथ्या प्रशंसा करना ; (शास्त्रीय मान्यता हो या ना हो केवल यजमान की इच्छा से और उसके द्वारा पैसा कमाने के लिए) अनावश्यक विधियों का चयन करना (अर्थात यजमान को मुर्ख बनाना) ; (अनावश्यक) लेखनकार्य में पंडिताई का दर्शन करना ; गारुड़ीविद्या, मन्त्र, तन्त्र, कविता इत्यादि में ही रममाण होना (केवल उसमे ही विद्वत्ता हासिल करना) ।
  • कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड ।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥ -- रामचरितमानस
राम के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दंभ और पाखंड को जलाने के लिए वैसे ही हैं, जैसे ईंधन के लिए प्रचंड अग्नि॥
  • हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥ -- रामचरितमानस
भावार्थ:- पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड मत के प्रचार से सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं।
  • गिरना या फिसलना सरल है, संभलना समझदारी है पर, संभल कर उठकर खड़े होना, अपने को सच्चाई के मार्ग पर स्थापित कर लेना बेहद कठिन है। असत्य का परित्याग करना और सत्य को अपनाना, सत्य को जानना ही पाखंड को तोड़ना, उसका नाश करना है। पाखंड खंडनी पताका इसी का मार्गदर्शक है। -- दयानन्द सरस्वती, सन १८६७ में हरिद्वार के कुम्भ मेले में पाखण्ड-खण्डनी-पताका फहराने के विषय में बोलते हुए।
  • आओ, मनुष्य बनो! उन पाखंडी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मार कर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अंधविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को जड-मूल से निकाल फेंको। -- स्वामी विवेकानन्द
  • कृषि के बाद, पाखण्ड हमारे युग का सबसे बड़ा उद्योग है। -- अल्फ्रेड नोबेल
  • पाखण्ड मुंह कि दुर्गन्ध कि तरह होता है, अपने को पाता नहीं चलता और दूसरों कि बुरी लगती है।

इन्हें भी देखें[सम्पादन]