दयानन्द सरस्वती

महर्षि दयानन्द सरस्वती (12 फरवरी 1824 – 30 अक्टूबर 1883) भारत के एक महान समाजसुधारक, धर्मोपदेशक तथा आर्यसमाज के संस्थापक थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ रचे जिनमें से 'सत्यार्थ प्रकाश' सबसे प्रमुख है।
सूक्तियाँ
[सम्पादित करें]- ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, अन्तर्यामी, अजर, अमर. अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करने योग्य है।
- उस सर्वव्यापक ईश्वर को योग द्वारा जान लेने पर हृदय की अविद्यारुपी गांठ कट जाती है, सभी प्रकार के संशय दूर हो जाते हैं और भविष्य में किये जा सकने वाले पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं, अर्थात ईश्वर को जान लेने पर व्यक्ति भविष्य में पाप नहीं करता।
- जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान है, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी, सुखदुःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला, जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा कर अधर्म की ओर न खींच सके वह पण्डित कहाता है।
- वेदों मे वर्णित सार का पान करने वाले ही ये जान सकते हैं कि 'जीवन' का मूल बिन्दु क्या है।
- ये 'शरीर' 'नश्वर' है, हमे इस शरीर के माध्यम से केवल एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, 'मनुष्यता' और 'आत्मविवेक' क्या है।
- क्रोध का भोजन 'विवेक' है, अतः इससे बचके रहना चाहिए। क्योंकि 'विवेक' नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
- अहंकार मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाता है, जिसमें वह 'आत्मबल' और 'आत्मज्ञान' को खो देता है।
- मानव जीवन मे 'तृष्णा' और 'लालसा' है, और ये दुःख के मूल कारण है।
- क्षमा करना सबके बस की बात नहीं, क्योंकी ये मनुष्य को बहुत बङा बना देता है।
- हिन्दू धर्म यहाँ की स्त्रियों के कारण जीवित है। यहाँ की नारियाँ शील और सद्धर्म पालन में अग्रणी न रही होतीं तो आर्य जाति का गौरव कभी का विलुप्त हो गया होता।
- 'काम' मनुष्य के 'विवेक' को भरमा कर उसे पतन के मार्ग पर ले जाता है।
- लोभ वो अवगुण है, जो दिन प्रति दिन तब तक बढता ही जाता है, जब तक मनुष्य का विनाश ना कर दे।
- मोह एक अत्यंन्त विस्मित जाल है, जो बाहर से अति सुन्दर और अन्दर से अत्यंन्त कष्टकारी है; जो इसमे फँसा वो पुरी तरह उलझ ही गया।
- ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए। क्योकि ये 'मनुष्य' को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है।
- मद 'मनुष्य की वो स्थिति या दिशा' है, जिसमे वह अपने 'मूल कर्तव्य' से भटक कर 'विनाश' की ओर चला जाता है।
- संस्कार ही 'मानव' के 'आचरण' का नीव होता है, जितने गहरे 'संस्कार' होते हैं, उतना ही 'अडिग' मनुष्य अपने 'कर्तव्य' पर, अपने 'धर्म' पर, 'सत्य' पर और 'न्याय' पर होता है।
- अगर 'मनुष्य' का मन 'शान्त' है, 'चित्त' प्रसन्न है, ह्रदय 'हर्षित' है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का 'फल' है।
- जिस 'मनुष्य' मे 'संतुष्टि' के 'अंकुर' फुट गये हों, वो 'संसार' के 'सुखी' मनुष्यों मे गिना जाता है।
- यश और 'कीर्ति' ऐसी 'विभूतियाँ' है, जो मनुष्य को 'संसार' के माया जाल से निकलने मे सबसे बड़े 'अवरोधक' हैं।
- आत्मा, 'परमात्मा' का एक अंश है, जिसे हम अपने 'कर्मों' से 'गति' प्रदान करते हैं। फिर 'आत्मा' हमारी 'दशा' तय करती है।
- मानव को अपने पल-पल को 'आत्मचिन्तन' मे लगाना चाहिए, क्योंकि हर क्षण हम 'परमेश्वर' द्वारा दिया गया 'समय' खो रहे है।
- मनुष्य की 'विद्या उसका अस्त्र', 'धर्म उसका रथ', 'सत्य उसका सारथी' और 'भक्ति रथ के घोड़े हैं।
- वेद सभी सत्य विधाओं कि किताब है, वेदों को पढना-पढाना, सुनना-सुनाना सभी आर्यों का परम धर्म है।
- अगर किसी इंसान के मन में शांति है, ध्यान में प्रसन्नता है और हृदय में खुशी है, तो अवश्य ही यह उसके अच्छे कर्मो का फल है।
- अगर आप इस दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ देते है तो यकीन मानिये आपके पास भी सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।
- मूर्ख होना गलत नही है लेकिन मूर्ख ही बने रहना बिल्कुल गलत है।
- किसी भी कार्य को करने से पहले सोचना अक्लमंदी होती है और काम को करते हुए सोचना सावधानी कहलाती है, लेकिन काम को करने के बाद सोचना मूर्खता कहलाती है।
- इंसान को किसी से भी ईर्ष्या नही करनी चाहिए, क्योंकि ईर्ष्या इंसान को अंदर ही अंदर जलाती रहती है, और पथ से भटकाकर पथ को भ्रष्ट कर देती है।
- निर्बल इंसानों पर दया करना और उनको क्षमा करना ही मनुष्य का निजी गुण होता है।
- नुकसान की भरपाई करने में सबसे जरूरी चीज है उस नुकसान से कुछ सबक लेना, तभी आप सही मायने में विजेता बन सकते है।
- पैसा एक वस्तु है, जो ईमानदारी और न्याय से कमाया जाता है, वहीं इसके विपरित अधर्म का खजाना होता है।
- मानव शरीर नश्वर है, इस शरीर के जरिए आपको एक मौका मिला है खुद को साबित करने का, की मनुष्यता और आत्मविवेक क्या होता है।
- इंसान के अंदर लोभ वो अवगुण है, जो तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि वो उस इंसान का विनाश नही कर देता है।
- अहंकार इंसान की वह स्थिति है, जिसमें वह अपने मूल कर्तव्यों को भूलकर विनाश की ओर चला जाता है।
- आपको अपने नश्वर शरीर से प्रेम करने की बजाय ईश्वर से प्रेम करना चाहिए, सत्य और धर्म से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि ये नश्वर नही है।
- जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर गर्व किया है, उसका पतन निश्चित हुआ है।
- जो इंसान हर काम से संतुष्ट हो जाए वो ही इंसान इस संसार का सबसे खुशनसीब इंसान होता है।
- वह लोग जो दूसरों के लिए अच्छा करते है वह कभी भी आत्म सम्मान और दुरूपयोग के बारे में नही सोचते है।
- अगर किसी व्यक्ति पर हमेशा ऊँगली उठाई जाती है तो वह व्यक्ति भावनात्मक रूप से ज्यादा समय तक खड़ा नही रह सकता है।
- वह मनुष्य सबसे अच्छा और अक्लमंद है जो हमेशा सत्य बोलता है, धर्म के अनुसार काम करता है और दूसरों को उत्तम और प्रसन्न बनाने का प्रयास करता है।
- लोभ कभी समाप्त न होने वाला रोग है।
- आर्य समाज की स्थापना करने का मुख्य उद्देश्य संसार के लोगों का उपकार (भला) करना है।
- जो ताकतवर होकर कमजोर लोगों की मदद करता है, वही वास्तविक मनुष्य कहलाता है, ताकत के अहंकार में कमजोर का शोषण करने वाला तो पशु की श्रेणी में आता है।
- लोगों को कभी भी तस्वीरों की पूजा पाठ नही करनी चाहिए, मानसिक अन्धकार का फैलाव मूर्ति पूजा के प्रचलन की वजह से है।
- वर्तमान जीवन का कार्य अन्धविश्वास पर पूर्ण विश्वास से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- मनुष्यों के भीतर संवेदना है, इसलिए अगर वो उन तक नही पहुंचता जिन्हें देखभाल की ज़रुरत है तो वो प्राकृतिक व्यवस्था का उल्लंघन करता है।
- भारतवर्ष में असंख्य जातिभेद के स्थान पर केवल चार वर्ण रहें। ये जातिभेद भी गुण-कर्म के द्वारा निश्चित हों, जन्म से नहीं। वेद के अधिकार से कोई भी वर्ण वंचित न हो।
- इंसान को दिया गया सबसे बड़ा संगीत यंत्र आवाज है।
- आत्मा अपने स्वरुप में एक है, लेकिन उसके अस्तित्व अनेक हैं।
- सबसे उच्च कोटि की सेवा ऐसे व्यक्ति की मदद करना है जो बदले में आपको धन्यवाद कहने में असमर्थ हो।
- भगवान का ना कोई रूप है ना रंग है। वह अविनाशी और अपार है, जो भी इस दुनिया में दिखता है वह उसकी महानता का वर्णन करता है।
- किसी भी रूप में प्रार्थना प्रभावी है क्योंकि यह एक क्रिया है इसलिए इसका परिणाम होगा। यह इस ब्रह्मांड का नियम है जिसमें हम खुद को पाते हैं।
- आप दूसरों को बदलना चाहते हैं ताकि आप आजाद रह सकें लेकिन, ये कभी ऐसे काम नहीं करता। दूसरों को स्वीकार करिए और आप मुक्त हैं।
- अगर आप पर हमेशा ऊंगली उठाई जाती रहे तो आप भावनात्मक रूप से अधिक समय तक खड़े नहीं हो सकते।
- गीत व्यक्ति के मर्म का आह्वान करने में मदद करता है और बिना गीत के मर्म को छूना मुश्किल है।
- धन एक वस्तु है जो ईमानदारी और न्याय से कमाई जाती है, इसका विपरीत है अधर्म का खजाना।
- प्रबुद्ध होना- ये कोई घटना नहीं हो सकती. जो कुछ भी यहाँ है वह अद्वैत है। ये कैसे हो सकता है? यह स्पष्टता है।
- कोई मूल्य तब मूल्यवान है जब मूल्य का मूल्य स्वंय के लिए मूल्यवान हो।
- जीह्वा को उसे व्यक्त करना चाहिए जो हृदय में है।
वेद पर विचार
[सम्पादित करें]- वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं। उनमें कोई बात ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव से विपरीत नहीं है। कोई बात सृष्टि क्रम के विपरीत नहीं है। वेद का ज्ञान परमात्मा ने मनुष्यों को उन्नति करने में सहायता देने के लिए दिया है। वेद का अर्थ प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के अनुकूल होना चाहिए। वेद में सभी सत्य विद्या एवं विज्ञानों का वर्णन है।
धर्म और अधर्म पर विचार
[सम्पादित करें]- जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग पाँचों परीक्षाओं के अनुकूलाचरण, ईश्वराज्ञा का पालन, परोपकार करना आदि धर्म है और जो इससे विपरीत वह अधर्म कहाता है। क्योंकि जो सबके अविरुद्ध वह धर्म और जो परस्पर विरुद्धाचरण सो अधर्म क्योंकर न कहावे ?
- हमें अज्ञान को दूर करना चाहिए और ज्ञान को बढ़ावा देना चाहिए।
- ईश्वर समस्त सत्य ज्ञान और ज्ञान से ज्ञात होने वाली सभी बातों का कारण है।
- सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
- सभी के प्रति हमारा आचरण प्रेम, धार्मिकता और न्याय से निर्देशित होना चाहिए।
- किसी को भी केवल अपना भला करने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए; इसके विपरीत, सभी का भला करने में अपना भला देखना चाहिए।
- मनुष्य को हमेशा सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए, चाहे राह में कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएं।
- वह अच्छा और बुद्धिमान है जो हमेशा सच बोलता है, धर्म के अनुसार काम करता है और दूसरों को उत्तम और प्रसन्न बनाने का प्रयास करता है।
- वेदों का अध्ययन जीवन में सही दिशा देता है, क्योंकि वे सत्य और धर्म का स्रोत हैं।
- सत्य को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, सत्य स्वयं में सिद्ध होता है।
- वर्तमान जीवन का कार्य अन्धविश्वास पर पूर्ण भरोसे से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
सत्य पर विचार
[सम्पादित करें]- जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है उसी का नाम धर्म है।
- मेरी उँगलियों को चाहे बत्ती बना कर जला दिया जाए, फिर भी मैं सत्य के साथ समझौता नहीं करूंगा।
- इस ग्रंथ (सत्यार्थ प्रकाश) को बनाने का प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या प्रतिपादित करना है, जो जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिए सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। सत्योपदेश ही मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होता है। -- अपनी अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ॠषि दयानंद सरस्वती
- "सत्यमेव जयति नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानी:" - अर्थात् सर्वदा सत्य की विजय और असत्य की पराजय होती है और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है।
जिस प्रकार एक पृथ्वी है, एक सूर्य है, एक ही मानव जाति है ठीक इसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है जिस का आधार सत्य है, इसके अतिरिक्त बाकी तो सब भ्रम ही है न कि सत्य या धर्म । सत्य हमारे जीवन को सरल बनाता है। सत्य से हमें सुरक्षा का भाव मिलता है। सत्यवादी कभी ऊबता या दुखी नहीं होता। सत्यवादी के जीवन में सम्पूर्ण समरसता होती है।
- सत्य और असत्य को ठीक प्रकार से जानने के लिए पाँच प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए-
- पहली – जो-जो ईश्वर के गुण-कर्म-स्वाभाव और वेदों के अनुकूल हो, वह वह सत्य और उससे विरूद्ध असत्य है। वेद ही सब सत्य विद्या की पुस्तक है। इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और सृष्टि के उपयोग का विधि-निषेधमय ज्ञान वेद है। वेद सर्वज्ञ ईश्वर के द्वारा प्रदत्त होने से निर्भांन्त एवं संशय रहित है, इसी वेद ज्ञान के अनुसार आर्यों ने सिद्धांत निर्धारित किए और जीवनयापन किया।
- दूसरी – जो-जो सृष्टि क्रम के अनुकूल है, वह वह सत्य और जो जो विरूद्ध है, वह सब असत्य है। सृष्टि की रचना और उसका संचालन ईश्वरीय व्यवस्था और प्राकृतिक नियमों के अधीन है। ये सभी नियम त्रिकालाबाधित है। प्रत्येक पदार्थ के गुण-कर्म-स्वाभाव सदा एक से रहते हैं। अभाव से भाव की उत्पत्ति अथवा असत् का सदभाव, कारण के बिना कार्य, स्वाभाविक गुणों का परित्याग, जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति अथवा चेतन का जड़ रूप होना, ईश्वर का जीवों की भांति शरीर धारण करना आदि सब सृष्टि क्रम के विरुद्ध होने से असत्य है।
- तीसरी – आप्त अर्थात जो यथार्थ वक्ता, धार्मिक, सबके सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। ऐसा व्यक्ति छल कपट और स्वार्थ आदि दोषों से रहित होता है और धार्मिक और विद्वान होता है और सदा सत्य का ही उपदेश करने वाला होता है। सब पर कृपादृष्टि रखते हुए सब के सुख के लिए अविद्या-अज्ञान को दूर करना ही अपना कर्तव्य समझता है। ऐसे वेदानुकूल विद्या का ही उपदेश करने वाले आप्त के कथन अनुकरणीय होते हैं। इस लिए कहा जाता है कि सत्यज्ञानी, सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारी और जो पक्षपात रहित विद्वान जिसकी कथनी और करनी एक जैसी हो, उसकी बात सब को मन्तव्य होती है।
- चौथी – मनुष्य का आत्मा सत्य-असत्य को जानने वाला है तथापि अपने हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। मनुष्य की आत्मा सत्य-असत्य को जानने वाला है, अर्थात् आत्मा में सत्य और असत्य का विवेक करने की शक्ति है। अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या के अनुकूल अर्थात जैसा अपने आत्मा को सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है,ऐसी ही भावना सम्पूर्ण प्राणी मात्र में रखनी चाहिए। अर्थात् जिस आचरण को, व्यवहार को हम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए। धर्म और सत्य का सार-निचोड़ यही है, इसे ही सुनना और सुनकर इस पर ही आचरण करना मानव जाति का प्रथम कर्तव्य है।
- पाँचवी – सत्य आठों प्रमाणों अर्थात प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापति, सम्भव और अभाव - से प्रतिपादित होना चाहिए। [१]
पाखण्ड पर विचार
[सम्पादित करें]- गुण-कर्म-स्वभाव आधारित वर्ण व्यवस्था ही वेद सम्मत है।
- वेद पढ़ना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। सब मनुष्यों को बिना भेदभाव के समान अधिकार मिलने चाहिए. कोई व्यक्ति जन्म के आधार पर ऊंचा या नीचा नहीं हो सकता।
- यज्ञोपवीत विद्या का चिह्न है और इतिहास में अनेक विदुषी नारियों का उल्लेख आता है। अतः पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी यज्ञोपवीत पहनने का समान अधिकार है।
- जो तुम स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्विता का प्रभाव है।
- भला जो पुरुष विद्वान और स्त्री अविदुषी तथा स्त्री विदुषी व पुरुष अविद्वान हो, तो नित्यप्रति देवासुर संग्राम घर में ही मचा रहे, फिर सुख कहां?
- इससे अधिक हृदय-विदारक, दारुण वेदना और क्या हो सकती है कि विधवाओं की दुखभरी आहों से, अनाथों के निरंतर आर्तनाद से और गो-वध से इस देश का सर्वनाश हो रहा है?
शिक्षा पर विचार
[सम्पादित करें]- राजनियम और जाति नियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो न भेजे वह दण्डनीय हो। -- सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में
- सच्चा ज्ञान वही है, जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए।
- शिक्षा का उद्देश्य केवल रोज़गार प्राप्त करना नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और आत्मज्ञान प्राप्त करना है।
- शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को केवल विद्वान बनाना नहीं, बल्कि उसे सद्गुणी और नैतिकता से युक्त बनाना है।
- हर मनुष्य का अधिकार है कि वह शिक्षा प्राप्त करे, चाहे उसका जन्म किसी भी वर्ग या जाति में क्यों न हुआ हो।
- अज्ञानता ही सभी बुराइयों की जड़ है, और शिक्षा का कार्य है इस अंधकार को समाप्त करना।
- यदि स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा गया, तो समाज का आधा हिस्सा हमेशा अंधकार में रहेगा।
- विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना ही सही ज्ञान का आधार है।
- वेदों का ज्ञान ही मानवता के कल्याण का मार्ग दिखाता है।
- अज्ञानी होना गलत नहीं है, अज्ञानी बने रहना गलत है।
विद्या पर विचार
[सम्पादित करें]विद्या चार प्रकार से आती है - आगम, स्वाध्याय, प्रवचन और व्यवहारकाल।
आगमकाल उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य पढ़ाने वाले से सावधान होकर ध्यान देके विद्यादि पदार्थ ग्रहण कर सके।
स्वाध्यायकाल उसको कहते हैं कि जो पठन समय में आचार्य के मुख से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की बातें प्रकाशित हों उनको एकान्त में स्वस्थचित्त होकर पूर्वापर विचार के ठीक ठीक हृदय में दृढ़ कर सके।
प्रवचनकाल उसको कहते हैं कि जिससे दूसरे को प्रीति से विद्याओं को पढ़ा सकना।
व्यवहारकाल उसको कहते हैं कि जब अपने आत्मा में सत्यविद्या होती है तब यह करना, यह न करना है वह ठीक-ठीक सिद्ध होके वैसा ही आचरण करना हो सके, ये चार प्रयोजन हैं।
चार कर्म विद्याप्राप्ति के लिए हैं - श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार।
श्रवण उसको कहते हैं कि आत्मा मन के और मन श्रोत्र इन्द्रिय के साथ यथावत् युक्त करके अध्यापक के मुख से जो जो अर्थ और सम्बन्ध के प्रकाश करने हारे शब्द निकलें उनको श्रोत्र से मन और मन से आत्मा में एकत्र करते जाना।
मनन उसको कहते हैं कि जो जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध आत्मा में एकत्र हुए हैं उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर विचार करना कि कौन शब्द किस शब्द, कौन अर्थ किस अर्थ और कौन सम्बन्ध किस सम्बन्ध के साथ सम्बन्ध अर्थात् मेल रखता और और इनके मेल में किस प्रयोजन की सिद्धि और उल्टे होने में क्या क्या हानि होती है।
निदिध्यासन उसको कहते हैं कि जो जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध सुने विचारे हैं वे ठीक ठीक हैं वा नहीं ? इस बात की विशेष परीक्षा करके दृढ़ निश्चय करना।
साक्षात्कार उसको कहते हैं कि जिन अर्थों के शब्द और सम्बन्ध सुने विचारे और निश्चित किये हैं उनको यथावत् ज्ञान और क्रिया से प्रत्यक्ष करके व्यवहारों की सिद्धि से अपना और पराया उपकार करना आदि विद्या की प्राप्ति के साधन हैं।
राजनीति और राजधर्म पर विचार
[सम्पादित करें]- भारत भारतीयों का है, और हमें किसी भी विदेशी शासन को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
- स्वाधीनता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे किसी भी स्थिति में छीना नहीं जा सकता।
- जो व्यक्ति सबसे कम ग्रहण करता है और सबसे अधिक योगदान देता है वह परिपक्कव है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति के जीने में ही आत्म-विकास निहित होता है।
- सभी मनुष्य जन्म से समान हैं, किसी के साथ जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।
- प्रत्येक मनुष्य को अपनी धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का अधिकार होना चाहिए।
- शासन का उद्देश्य केवल शासन करना नहीं, बल्कि जनकल्याण करना होना चाहिए।
- दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिये और आपके पास सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।
- जो देश आत्मनिर्भर नहीं होता, वह कभी स्वतंत्र नहीं रह सकता।
- सच्चा धर्म वही है, जो राष्ट्र और समाज की सेवा में समर्पित हो।
- स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग ही सच्ची देशभक्ति है।
स्वराज्य
[सम्पादित करें]- अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना भी करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। -- सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में
इस्लाम, कुरान और अल्लाह पर विचार
[सम्पादित करें]- जो कुरान का खुदा संसार का पालन करने हारा होता और सब पर क्षमा और दया करता होता तो अन्य मत वाले और पशु आदि को भी मुसलमानों के हाथ से मरवाने का हुक्म न देता । जो क्षमा करनेहारा है तो क्या पापियों पर भी क्षमा करेगा ? और जो वैसा है तो आगे लिखेंगे कि "काफिरों को कतल करो" अर्थात् जो कुरान और पैगम्बर को न मानें वे काफिर हैं ऐसा क्यों कहता ? इसलिये कुरान ईश्वरकृत नहीं दीखता।[२][३]
स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार
[सम्पादित करें]- यह हैं भारत–दिवाकर दयानन्द, जिन्होंने इस पाप परिपुष्ट युग में जन्म लेकर जीवन भर निष्कण्टक ब्रह्मचर्य का पालन किया, जो विद्या में, वाक्पटुता में, तार्किकता में, शास्त्रदर्शिता में, भारतीय आचार्य मण्डली के बीच में शंकराचार्य के ठीक परवर्ती आसन पर आरूढ़ होने के सर्वथा योग्य थे, वेद निष्ठा में, वेद व्याख्या में, वेद ज्ञान की गम्भीरता में, जिनका नाम व्यासादि महर्षिगण के ठीक नीचे लिखे जाने योग्य था, जो अपने को हिन्दुओं के आदर्श सुधारक पद पर प्रतिष्ठित कर गये हैं, और इस मृत प्रायः आर्यजाति को जागरित करके उठाने के उद्देश्य से मृत संजीवनी औषध के भाण्ड को हाथ में लेकर जिन्होंने भरतखण्ड में चतुर्दिक् परिभ्रमण किया था। -- स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन लेखक, बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय
- डॉ॰ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
- श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।
- सरदार वल्लभभाई पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
- पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।
- फ्रेञ्च लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।
- ऋषि दयानन्द ने भारत के शक्तिशून्य शरीर में अपनी अजेय शक्ति, अविचल कर्मण्यता तथा सिंह के समान पराक्रम फूँक दिया। वे उच्चतम व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष थे। कर्मयोगी, विचारक और नेता के उपयुक्त प्रतिभा ये सभी प्रकार के दुर्लभ गुण उनमें विद्यमान थे। वह सिंह समान व्यक्तियों में से एक हैं। यूरोप भारत के विषय में निर्णय करते हुए सम्भवतः भारत को तो भूल जाए, पर शायद उसे दयानन्द को याद करने को बाध्य होना पड़ेगा, क्योंकि उसमें प्रतिभाशाली नेतृत्व से युक्त कर्मशील विचारणा का अद्भुत संगम था। -- रोमां रोलां
- फ्रेञ्च लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।
- स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र" कहा।
- महर्षि दयानन्द स्वराज्य के सर्वप्रथम सन्देशवाहक तथा मानवता के उपासक थे। -- बाल गंगाधर तिलक
- दयानंद सरस्वती ने हमें सिखाया कि वैदिक धर्म की शुद्धता और शक्ति में ही भारत की सच्ची स्वतंत्रता निहित है। उनके विचार हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुए। -- बाल गंगाधर तिलक
- महर्षि दयानन्द ने हमें हमारे प्राचीन वैदिक ज्ञान और संस्कृति की ओर लौटने की प्रेरणा दी। उनका जीवन और उनके सिद्धान्त हर भारतीय के लिए अनुकरणीय है। -- मदन मोहन मालवीय
- स्वामी दयानन्द के विषय में मेरा मन्तव्य यह है कि वह हिन्दुस्तान के आधुनिक ऋषियों, सुधारकों और श्रेष्ठ पुरूषों में अग्रणी थे। उनका ब्रह्मचर्य, समाज सुधार, स्वातन्त्र्य स्वराज्य, सर्वप्रतिप्रेम, कार्यकुशलता आदि गुण लोगों को मुग्ध करते थे। -- महात्मा गांधी
- स्वामी दयानन्द के जीवन में सत्य की खोज दिखाई देती है इसीलिए वे केवल आर्य समाजियों के लिये ही नहीं अपितु समग्र संसार के लिए पूजनीय हैं। -- कस्तूरबा गांधी
- अमरीका की मदाम ब्लावट्स्की ने "आदि शङ्कराचार्य के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।
- स्वामी दयानन्द मेरे गुरु हैं। उन्होंने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया। -- लाला लाजपत राय
- दयानंद सरस्वती का आर्य समाज भारतीय समाज में नई चेतना और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बना। -- लाला लाजपत राय
- मैंने स्वराज शब्द सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों से सीखा। -- दादाभाई नौरोजी
- महर्षि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे। -- वीर सावरकर
- स्वामी दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा और हिन्दू जाति के रक्षक थे। -- विनायक दामोदर सावरकर
- महर्षि दयानंद सरस्वती स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा और हिन्दूजाति के रक्षक थे, उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने राष्ट्र को महान सेवा की है। स्वतंत्रता के संग्राम में आर्यसमाजियों का बड़ा हाथ रहा है। -- विनायक दामोदर सावरकर
- मैंने राष्ट्र, जाति तथा समाज की जो सेवा की है उसका श्रेय महर्षि दयानंद सरस्वती को प्राप्त है। मैंने जो कुछ प्राप्त किया है, उसमें सबसे बड़ा हाथ उस सर्वहितैषी, वेदज्ञ और तेजस्वी युगद्रष्टा का है। मुझे उस स्वतंत्र विचारक का शिष्य होने में अभिमान है। -- श्यामजी कृष्ण वर्मा
- स्वामी दयानन्द जी का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने देश को किंकर्तव्यविमूढ़ता के गहरे गडढे में गिरने से बचाया। उन्होंने भारत की स्वाधीनता की वास्तविक नींव डाली। -- वल्लभभाई पटेल
- महर्षि दयानन्द ने राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक उद्धार का बीड़ा उठाया। स्वाभी जी ने जो स्वराज्य का पहला सन्देश हमें दिया उसकी रक्षा हमें करनी है। उनके उपदेश सूर्य के समान प्रभावशाली हैं। -- सर्वेपल्ली राधाकृष्णन
- स्वामी दयानंद ने भारत के युवाओं को आत्मसम्मान, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता की शिक्षा दी। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे। -- सर्वेपल्ली राधाकृष्णन
- गांधी राष्ट्रपिता हैं तो दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं। -- प्रथम लोकसभा अध्यक्ष डॉ० श्री अनन्तशयनम् आयंगर
- स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज से जातिवाद और भेदभाव मिटाने का जो संकल्प लिया, वह हर युग के लिए अनुकरणीय है। -- डॉ० भीमराव अंबेडकर
- मेरा सादर प्रणाम हो उस महान् गुरू दयानन्द को जिन्होंने भारत वर्ष को अविद्या, आलस्य और प्राचीन ऐतिहासिक तत्व के अज्ञान से मुक्तकर सत्य और पवित्रता की जागृति में ला खड़ा किया, उसे मेरा बारम्बार प्रणाम । -- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
- स्वामी दयानंद ने समाज को नई दिशा दी और लोगों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया। उनकी शिक्षाएँ हमें अपने अतीत से जोड़ती हैं और भविष्य की दिशा दिखाती हैं। -- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
- जीवन में कुछ घटनायें ऐसी घट जाती हैं जो अपना सम्पूर्ण उस क्षण उद्घाटित न करके भी हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाती है। ऐसी ही एक घटना उनके (गुरुदेव के) जीवन में तब घटी, जब महान् ऋषि दयानन्द कोलकाता में हमारे घर पर पधारे थे। ऋषिवर दयानन्द के गम्भीर पण्डित्य की कीर्ति तब तक हमारे कर्ण गोचर हो चुकी थी। हम यह भी सुन चुके थे कि वेद मन्त्रों के आधार पर वे मूर्तिपूजा का खण्डन करते हैं। मैं उन महान् विद्वान के लिए लालायित था, पर तब तक इस बात का हमें आभास नहीं था कि निकट भविष्य में वे इतने महान् व्यक्तित्व के रूप में हमारे सामने प्रसिद्धि पायेंगे। मेरे भाई ऋषि जी से वेदार्थ में विचार-विमर्श में निरन्तर तल्लीन थे। उनका वार्तालाप गहन अर्थ प्रणाली तथा आर्य संस्कृति पर चल रहा था। मेरी आयु तब बहुत छोटी थी। मैं चुपचाप एक ओर बैठा था, परन्तु उस महान् दयानन्द का साक्षात्कार मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गया। उनके मुखमण्डल पर असीम तेज झलक रहा था। वह प्रतिभा से दीप्त था। उनके साक्षात्कार की वह अक्षुण्ण स्मृति अब तक मैं अपने मन में संजोय हुए हूं। हमारे सम्पूर्ण परिवार के हृदय को आनन्दित कर रही है। उनका सन्देश उत्तरोत्तर मूर्त रूप लेता गया। यह सन्देश देश के एक कोने से दूसरे कोने तक गूंज उठा। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि भारतीय गगन में घटाटोप घिरे वे संकीर्णता व कट्टरता के बादल देखते ही देखते छितरा कैसे गये? -- रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सन् 1937 में लाहौर के डी.ए.वी. कालेज के सभागार में ऋषि दयानन्द को भावपूर्ण श्रद्धांजलि देते हुए
- स्वामी दयानंद ने जिस प्रकार समाज में जागरूकता और वैदिक ज्ञान का प्रचार किया, वह अद्वितीय है। उनकी शिक्षाएँ भारतीय समाज को नई ऊँचाइयों पर ले जाने वाली हैं। -- स्वामी विवेकानन्द
- महर्षि दयानन्द सरस्वती उन महापुरूषों में से थे जिन्होंने आधुनिक भारत का विकास किया जो उसके आवार सम्बंधी पुनरूत्थान तथा धार्मिक पुनरूत्थान के उत्तरदाता हैं। हिन्दू समाज का उद्धार करने में आर्य समाज का बहुत बड़ा हाथ है। संगठन कार्य दृढ़ता, उत्साह और समन्वयपालकता की दृष्टि से आर्य समाज की समता कोई और समाज नहीं कर सकता। -- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
- दयानन्द सरस्वती आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता हैं। -- नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
- स्वामी दयानन्द संस्कृत के बड़े विद्वान् और वेदों के बहुत बड़े समर्थक थे। उत्तम विद्वान् के अतिरिक्त साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। उनके अनुयायी उनको देवता मानते थे और बेशक वे इसी लायक थे। हमसे स्वामी दयानन्द की बहुत मुलाकात थी। हम हमेशा इनका निहायत आदर करते थे। वह ऐसे व्यक्ति थे जिनकी उपमा इस वक्त हिन्दुस्तान में नहीं है। -- सर सैयद अहमद खाँ
- स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे। -- सैयद अहमद खां
- निहायत अफसोस की बात है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो संस्कृत के बड़े आलम (विद्वान) और वेद के बड़े मुहक्किल (समर्थक) थे, 30 अक्तूबर 1883 को 7 बजे शाम को अजमेर में इन्तकाल किया। वे इलावा इलमी फजल (उत्तम विद्या के अतिरिक्त) निहायत नेक और दरवेश सिफत (साधु स्वभाव) आदमी थे। इनके मोहत किद (अनुयायी) इनको देवता मानते थे। और बेशक वे इसी लायक थे। वे सिर्फ ज्योति स्वरूप निराकार के सिवाय, दूसरे की पूजा जायज (विहित) नहीं मानते थे। हममें और स्वामी दयानंद मरहूम (स्वर्गीय) में बहुत मुलाकात थी। हम हमेशा इनका निहायत अदब (आदर) करते थे। जबकि हरेक मजहब वाले को इनका अदब लाजिमी (आवश्यक) था। बहरहाल वे ऐसे शख्स थे, जिनका मसल (उपमा) इस वक्त हिन्दुस्तान में नहीं है। और हरेक शख्स को उपकी वफात (मृत्यु) का गम (शोक) करना लाजिमी है कि ऐसा बेनजीर शख्स (अनुपम मनुष्य) इनके दरमियान से जाता रहा। -- सर सैयद अहमद खाँ के अलीगढ इंस्टिट्यूट मैगजीन 6 नवम्बर 1883 में प्रकाशित विचार
- दयानन्द दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक तथा विश्व को प्रभु की शरण में लाने वाले योद्धा थे। वह मनुष्यों और संस्थाओं का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्मा के मार्ग में उपस्थित की जाने वाली बाधाओं के वीर विजेता थे। उनके व्यक्तित्व की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है- "एक मनुष्य जिसकी आत्मा में परमात्मा है, चक्षुओं में दिव्य तेज है और हाथों में इतनी शक्ति है कि जीवन तत्व में से अभीष्ट स्वरूप वाली मूर्ति गढ सके तथा कल्पना को क्रिया में परिणत कर सके। वे स्वयं एक दृढ चट्टान थे। उनमें ऐसी दृढ शक्ति थी कि चट्टान पर घन चलाकर पदार्थों को सुदृढ और सुड़ौल बना सकें।" -- अरविन्द घोष
- महर्षि दयानन्द की यह धारणा कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों की सच्चाईयाँ पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद अथवा कल्पित बात नहीं है। वैदिक व्याख्या के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या, कोई भी हो, महर्षि दयानन्द का यथार्थ निर्देशों के प्रधान आविर्भावक के रूप में सदा मान किया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग को मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उनकी दृष्टि थी कि जिसने सच्चाई को निकाल लिया और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था उनकी चाबियों को उन्होंने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उन्होंने तोड़कर परे फेंक दिया। -- अरविन्द घोष
- जैसे राजनीति के क्षेत्र में हमारी राष्ट्रीयता का सामरिक तेज पहले तिलक में प्रत्यक्ष हुआ, वैसे ही संस्कृति के क्षेत्र में भारत का आत्माभिमान स्वामी दयानन्द ने निखारा। जो बात राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन और रानडे आदि के ध्यान में नहीं आई, उसे लेकर ऋषि दयानन्द और उनके शिष्य आगे बढ़े और घोषणा की कि कोई भी हिन्दू (आर्य) धर्म में प्रवेश कर सकता है। हमारा गौरव सबसे प्राचीन और सबसे महान् है- यह जागृत हिन्दुत्व का महासमरनाद था। रागरूढ़ हिन्दुत्व के जैसे निर्भीक नेता स्वामी दयानन्द हुए वैसा और कोई भी नहीं। दयानन्द के समकालीन अन्य सुधारक केवल सुधारक थे किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आगे बढ़े। वे हिन्दू धर्म के रक्षक होने के साथ ही विश्वमानवता के नेता भी थे। -- रामधारी सिंह 'दिनकर' (१९०८-१९७४), 'संस्कृति के चार अध्याय' में
- हिन्दुत्व की रक्षा के मोर्चे पर सर्वप्रथम आक्रामक नीति अपनाने का श्रेय स्वामी दयानन्द को जाता है। हिंदुत्व की निन्दा करने वालो की सर्वप्रथम निन्दा करने वाले स्वामी दयानन्द थे। सत्य ही रणादृढ़ हिंदुत्व के जैसे निर्भीक नेता स्वामी दयानन्द हुए वैसा कोई नहीं हुआ। धर्मच्युत हिन्दू एवं अहिन्दू को हिन्दू धर्म में सर्वप्रथम प्रवेश कराने वाले स्वामी दयानंद थे। इतिहास क्रम में अपने कार्यों के कारण स्वामी दयानंद की गिनती महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह और वीर शिवाजी की सारणी में की जाती है। हिंदुत्व के बुद्धिसम्मत रूप को आगे लाकर यूरोप के बुद्धिवाद के समक्ष हिंदुत्व को खड़ा करने का श्रेय स्वामी दयानंद को जाता है। परिवर्तन जब धीरे-धीरे आता हैं तब सुधार कहलाता है किन्तु जब वही तीव्र वेग से पहुँच जाता है, तब उसे क्रांति कहते हैं। दयानंद क्रांति के वेग से आये। -- रामधारी सिंह 'दिनकर', 'संस्कृति के चार अध्याय' में
- 'वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है' - इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना प्रारंभ किया और जहां-जहां वे गये प्राचीन परंपरा के पंडित और विद्वान उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचंड तार्किक थे। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। अतएव अकेले ही उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे किंतु तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिंदुओं का था, जिनसे जूझने में स्वामी जी को अनेक अपमान, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था और अनेक समझदार लोग मन ही मन अनुभव करने लगे थे कि वास्तव में पौराणिक धर्म की पोंगापंथी में कोई सार नहीं है।
- स्वामी जी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा खण्डन करते थे चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो या ईसाई धर्म हो। अपने महान ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी जी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग, स्वामी जी का मत शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था अपितु आर्य समाज ने आर्यावर्त (भारत) के साधारण जनमानस को भी अपनी ओर आकर्षित किया। -- रामधारी सिंह 'दिनकर', 'संस्कृति के चार अध्याय' में
- पैगम्बरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगों को खिंचते देख स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और सं० १९२० से उन्होंने अनेक नगरों में घूम-घूम कर व्याख्यान देना आरम्भ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये व्याख्यान देश में बहुत दूर तक प्रचलित साधु हिन्दी भाषा में ही होते थे। स्वामीजी ने अपना सत्यार्थप्रकाश तो हिन्दी 'आर्यभाषा' में प्रकाशित किया ही, वेदों के भाष्य भी संस्कृत और हिन्दी दोनों में किये। स्वामीजी के अनुयायी हिन्दी को आर्यभाषा कहते थे। स्वामीजी ने सं० १९३२ में आर्यसमाज की स्थापना की और आर्यसमाजियों के लिए हिन्दी या आर्यभाषा का पढ़ना आवश्यक ठहराया। युक्तप्रान्त के पश्चिमी जिलों और पंजाब में आर्यसमाज के प्रभाव से हिन्दी गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। पंजाबी भाषा में लिखित साहित्य न होने और मुसलमानों के बहुत अधिक सम्पर्क से पंजाब वालों की लिखने पढ़ने की भाषा उर्दू हो रही थी। आज पंजाब में हिन्दी की पूरी चर्चा सुनाई देती है, वह इन्हीं की बदौलत है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' पृ० ४४५
- जनता के लाभ की दृष्टि से मातृभाषा गुजराती होने पर भी इस दूरदर्शी और विद्वान् संन्यासी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का ही प्रचार किया। अपने ग्रन्थ भी हिन्दी में ही लिखे। हिन्दी की उन्नति और प्रचार, आर्यसमाज का जिसके वे प्रवर्तक थे, एक विशेष लक्ष्य बना। अकेले इन स्वामीजी ने हिन्दी का जितना उपकार किया है, हमारा अनुमान है कि अनेक सुसंगठित संस्थाओं ने मिलकर भी अब तक नहीं किया है। -- रामदास गौड़ (१८८१-१९३७), 'हिन्दी भाषासार' पृ० ६२
- वैष्णव कुल का होने पर भी मैं स्वामी दयानन्द को अपने देश का महापुरुष मानता हूँ। उनके लिए मेरे मन में श्रद्धा है। कौन उनके महान् कार्य को स्वीकार न करेगा?जो आज वेद ध्वनि गूंजती है। कृपा उन्हीं की यह कूजती है। -- मैथिलीशरण गुप्त, ५ मार्च १९५९ को पंडित नरदेव शास्त्री को लिखा पत्र में
- रीति काल के ठीक बाद वाले काल में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जो सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना घटी, वह स्वामी दयानन्द का पवित्रतावादी विचार था। इस युग के कवियों को शृंगाररस की कविता लिखते समय यह प्रतीत होता था जैसे स्वामी दयानन्द पास ही खड़े सब कुछ देख रहे हैं। -- हरिवंशराय बच्चन (१९०७), 'काव्य की भूमिका' पृ० २७,३२
- मैं किसी समय आर्य कुमार सभा तथा आर्य समाज का सदस्य था। मेरे स्वतन्त्र चिन्तन पर दयानन्द का प्रभाव है। मैं ऋषि दयानन्द को एक महामानव तथा वेदों का उद्धारक मानता हूँ। -- हरिवंशराय बच्चन, आत्मकथा- 'क्या भूलूं क्या याद करूं' में
- आर्यसमाज अवतारवाद के विरुद्ध झण्डा उठाये हुए था। इसका फल साहित्य पर भी पड़ा। अयोध्यायसिंह उपाध्याय और रामचरित उपाध्याय ने राम, कृष्ण को यथासम्भव मानवचरित्र के रूप में चित्रित किया। -- हिन्दी के आधुनिक समीक्षक तथा साहित्य के इतिहासकार डॉ० श्रीकृष्णलाल, 'आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास' पृ० ४६
- इन दोनों (स्वामी दयानन्द और केशवचन्द्र सेन) पुरुषों ने प्रभु की मंगलमयी सृष्टि का कुछ भी विघ्न नहीं किया, वरंच उसमें सुख और सम्पत्ति अधिक हो, इसी में परिश्रम किया। जिस चण्डाल रूपी आग्रह और कुरीति के कारण मनमाना पुरुष धर्मपूर्वक न पाकर लाखों स्त्रियाँ कुमार्गगामिनी हो जाती हैं, लाखों विवाह होने पर भी जन्म भर सुख भोगने नहीं पातीं, लाखों गर्भनाश होते और लाखों बाल हत्या होती हैं, उस पापमयी नृशंस रीति को उठा देने में इन लोगों (दयानन्द और केशव) ने अपने शक्य भर परिश्रम किया। जन्मपत्री की विधि के अनुग्रह से जब तक स्त्री पुरुष जियें एक तीर घाट एक मीर घाट रहें, बीच में वैमनस्य और असन्तोष के कारण स्त्री व्यभिचारिणी, पुरुष विषयी हो जायें, परस्पर नित्य कलह हो, शान्ति स्वप्न में भी न मिलें, वंश न चले, यह उपद्रव इन लोगों से नहीं सहे गये। विधवा गर्भ गिरावें, पण्डितजी या बाबू साहब यह सह लेंगे, वरंच चुपचाप उपाय भी करा देंगे, पाप को नित्य छिपावेंगे, अन्ततोगत्वा (स्वधर्म से) से निकल ही जायें तो सन्तोष करेंगे, पर विधवा का विधिपूर्वक विवाह न हो। फूटी सहेंगे, आंजी न सहेंगे। इस दोष को इन दोनों ने निस्सन्देह दूर करना चाहा।
- स्ववर्ण पात्र न मिलने से कन्या को वर मूर्ख, अंधा, वरंच नपुंसक तथा वर को काली, कुरूपा, कर्कशा कन्या मिले, जिसके आगे बहुत बुरे परिणाम हों, इस दुराग्रह को इन लोगों (दयानन्द और केशव) ने दूर किया। चाहे पढ़े हों, या चाहे मूर्ख, सुपात्र हों कि कुपात्र, चाहे प्रत्यक्ष व्यभिचार करें या कोई भी बुरा कर्म करें, पर गुरुजी जो हैं, पण्डितजी जो हैं, इनका दोष मत कहो। कहोगे तो पतित होगे। इनको दो, इनको राजी रक्खो, इस सत्यानाश संस्कार को इन्होंने (दयानन्द और केशव) दूर किया। आर्य जाति का दिन प्रति दिन ह्रास हो, लोग स्त्री के कारण, धन के या नौकरी व्यापार आदि के लोभ से, मद्य पान के चस्के से, वाद (मुकद्दमा) में हारकर, राजकीय विद्या का अभ्यास करके मुसलमान या क्रिस्तान हो जायें, आमदनी एक मनुष्य की भी बाहर से न हो केवल नित्य व्यय हो, अन्त में आर्यों का धर्म और जाति की कथा शेष रह जाय, किन्तु जो बिगड़ा सो बिगड़ा, फिर जाति में कैसे आवेगा। कोई दुष्कर्म किया तो छिप के क्यों नहीं किया, इसी अपराध पर हजारों मनुष्य आर्य जाति पंक्ति से हर साल छूटते थे, उनको इन्होंने (दयानन्द और केशव) रोका। सबसे बढ़कर इन्होंने यह कार्य किया- सारा आर्यावर्त जो प्रभु से विमुख हो रहा था, देवता बेचारे तो दूर रहे, भूत, प्रेत, पिशाच, मुर्दे, सांप के काटे, बाघ के मारे, आत्महत्या करे, मरे, जल, दब या डूब कर मरे लोग, यही नहीं, मुसलमानी पीर, पैगम्बर, औलिया, शहीद, ताजिया, गाजी मियां, जिन्होंने बड़ी मूर्ति तोड़कर और तीर्थ पार कर आर्य धर्म विध्वंसन किया, उनको मानने और पूजने लग गये थे। विश्वास तो मानो छिनाल का अंग हो रहा था, देखते सुनते लज्जा आती थी कि हाय ये कैसे आर्य हैं, किससे उत्पन्न हैं। इस दुराचार की ओर से लोगों को अपनी वक्तृताओं के थपेड़े के बल से मुंह फेर कर सारे आर्यावर्त को शुद्ध, लायक कर दिया। -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (१८५०-१८८५), 'स्वर्ग में विचारसभा का अधिवेशन' , मित्र विलास लाहौर के १८ जून १८८५ के अंक में प्रकाशन, पुनः भारतेन्दु ग्रन्थावली खण्ड ३ में संगृहीत
- हिन्दी काव्य स्वामी दयानन्द के व्यापक प्रभाव से बच नहीं सका। भारतेन्दु युग की कविता में समाज सुधार की भावना स्पष्ट मिलती है और सभी कवियों में यह प्रवृत्ति पूर्णतया लक्षित होती है। क्या कट्टरपंथी, क्या सुधारवादी और क्या आर्यसमाजी, समान रूप से समाज का कल्याण और सुधार चाहते हैं, भले ही इन लोगों में साधन के सम्बन्ध में मतभेद दिखाई दे।
- स्वामीजी भारतीय जागरण तथा राष्ट्रोत्थान के वैतालिक थे। स्वामीजी ने हिन्दी काव्य को देशभक्ति का स्वर प्रदान किया। स्वामीजी के सिद्धान्तों तथा आर्यसमाज के प्रचार हेतु आर्य समाज में विपुल भजन-साहित्य लिखा गया। इन भजनीकों में चौधरी नवलसिंह और उनकी लावनियों का प्रमुख स्थान है। भजनीकों का हिन्दी काव्य पर प्रभाव पड़ा। भजन साहित्य में कुरीतियों का चित्रण मिलता है। बाल विवाह निषेध, नारी जागरण, अंध विश्वास खण्डन, शुद्धि और जन जागृति के तत्त्व बिखरे पड़े हैं जिनका जनता पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ा। -- हिन्दी के प्रसिद्ध समीक्षक डॉ० केसरीनारायण शुक्ल , 'हिन्दी काव्यधारा' नामक शोधकृति में
- उन्नीसवीं सदी के हिन्दू नवोत्थान के इतिहास का पृष्ठ-पृष्ठ बतलाता है कि जब यूरोप वाले भारतवर्ष में आये तब यहां के धर्म और संस्कृति पर रूढ़ि की पर्तें जमी हुई थीं एवं यूरोप के मुकाबले में उठने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि ये पर्तें एकदम उखाड़ फेंकी जाएँ और हिन्दुत्व का वह रूप प्रकट किया जाए जो निर्मल और बुद्धिगम्य हो। स्वामी जी के मत से यह हिन्दुत्व पौराणिक कल्पनाओं के नीचे दबा हुआ था। उस पर अनेक स्मृतियों की धूल जम गयी थी एवं वेद के बाद के सहस्रों वर्षों में हिन्दुओं ने जो रूढ़ियां और अन्धविश्वास अर्जित किये थे उनके ढूहों के नीचे यह धर्म दबा पड़ा था। राममोहन राय, रानाडे, केशवचन्द्र और तिलक से भिन्न स्वामी दयानन्द की विशेषता यह रही कि उन्होंने धीरे-धीरे पपड़ियां तोड़ने का काम न करके उन्हें एक ही चोट से साफ कर देने का निश्चय किया। परिवर्तन जब धीरे-धीरे आता है, तब सुधार कहलाता है किन्तु वही जब वेग से पहुंच जाता है, तब उसे क्रान्ति कहते हैं। दयानन्द के अन्य समकालीन सुधारकमात्र थे, किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आये और उन्होंने निश्छलभाव से यह घोषणा कर दी कि हिन्दू-धर्म-ग्रन्थों में केवल वेद ही मान्य हैं। अन्य शास्त्रों और पुराणों की बातें बुद्धि की कसौटी पर कसे बिना मानी नहीं जानी चाहिएँ। छह शास्त्रों और अठारह पुराणों को उन्होंने एक ही झटके में साफ कर दिया। वेदों में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, तीर्थों और अनेक पौराणिक अनुष्ठानों का समर्थन नहीं था अतएव स्वामी जी ने इन सारे कृत्यों और विश्वासों को गलत घोषित किया।
- वेद को छोड़कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है। इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना आरम्भ किया और जहाँ-जहाँ वे गये, प्राचीन परम्परा के पण्डित और विद्वान् उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धारावाहिक रूप से बोलते थे। साथ ही, वे प्रचण्ड तार्किक थे। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्म-ग्रन्थों का भी भली-भांति मंथन किया था। अतएव अकेले ही उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरम्भ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे, किन्तु तीसरा मोर्चा सनातन धर्मी हिन्दुओं का था, जिनसे जूझने में स्वामी जी को अनेक-अनेक अपमान, कुत्सा, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। उनके प्रचण्ड शत्रु ईसाई और मुसलमान नहीं, सनातनी हिन्दू ही निकले और कहते हैं अन्त में इन्हीं हिन्दुओं के षड्यन्त्र से उनका प्राणान्त भी हुआ। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी उसका कोई जवान नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान्। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था और अनेक समझदार लोग मन ही मन यह अनुभव करने लगे थे कि सच ही पौराणिक धर्म में कोई सार नहीं है।
- आर्यसमाज की स्थापना
- सन् १८७२ ई० में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहाँ देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। ब्रह्मसमाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ, किन्तु ईसाईयत से प्रभावित ब्रह्मसमाजी विद्वान् पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी जी से एकमत नहीं हो सके। कहते हैं कलकत्ता में ही केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दी कि यदि आप संस्कृत छोड़कर हिन्दी में बोलना आरम्भ करें तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और हिन्दी प्रान्तों में उन्हें अगणित अनुयायी मिलने लगे। कलकत्ता से स्वामी जी बम्बई पधारे और वहीं १० अप्रैल सन् १८७५ ई० को उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। बम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज वालों ने भी विचार-विमर्श किया किन्तु यह समाज तो ब्रह्मसमाज का ही बम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके।
- बम्बई से लौटकर स्वामी जी दिल्ली आये। यहाँ उन्होंने सत्यानुसंधान के लिए ईसाई, मुसलमान और पण्डितों की एक सभा बुलायी किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं जा सके। दिल्ली से स्वामी जी पंजाब गये। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जागृत हुआ और सारे प्रान्त में आर्य समाज की शाखाएँ खुलने लगीं। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।
- स्वामी जी के देहावसान के बाद मादाम ब्लेवास्की ने लिखा था कि 'जनसमूह के उभरते हुए क्रोध के सामने कोई संगमरमर की मूर्ति भी स्वामी जी से अधिक अडिग नहीं हो सकती थी। एक बार हमने काम करते देखा था। उन्होंने अपने सभी विश्वासी अनुयायियों को यह कहकर अलग हटा दिया कि तुम्हें हमारी रक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। भीड़ के सामने वे अकेले ही खड़े हो गये थे। लोग उतावले हो रहे थे, क्रुद्ध सिंह के समान वे स्वामी जी पर टूट पड़ने को तैयार थे किन्तु स्वामी जी की धीरता ज्यों की त्यों बनी रही। यह बिल्कुल सही बात है कि शंकराचार्य के बाद से भारत में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जो स्वामी जी से बड़ा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे अधिक तेजस्वी, वक्ता तथा कुरीतियों पर टूट पड़ने में उनसे अधिक निर्भीक रहा हो।'
स्वामी जी की मृत्यु के बाद थियोसोफिस्ट अखबार ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा था कि 'उन्होंने जर्जर हिन्दुत्व के गतिहीन ढूह पर भारी बम का प्रहार किया और अपने भाषणों से लोगों के हृदयों में ऋषियों और वेदों के लिए अपरिमित उत्साह की ज्योति जला दी। सारे भारतवर्ष में उनके समान हिन्दी और संस्कृत का वक्ता दूसरा कोई और नहीं था।'
- आर्यसमाज की विशेषता
- स्वामी जी ने ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों को अनादि माना है, किन्तु, यह तो इस्लाम से अधिक भारतीय योगदर्शन का मत है। भिन्नता यह है कि स्वामी जी यह नहीं मानते कि भगवान् पापियों के पाप को भी क्षमा करते हैं, बल्कि भगवान् की कृपा के सहारे पाप करने की बात के लिए उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की बार-बार आलोचना की है। हाँ, जिन बुराइयों के कारण हिन्दू-धर्म का ह्रास हो रहा था तथा अन्य धर्मों के लोग जिन दुर्बलताओं का लाभ उठाकर हिन्दुओं को ईसाई बना रहे थे, उन बुराइयों को स्वामी जी ने अवश्य दूर किया, जिससे हिन्दुओं के सामाजिक संगठन में वही दृढ़ता आ गयी जो इस्लाम में थी। स्वामी जी ने छुआछूत के विचार को अवैदिक बताया और उनके समाज ने सहस्रों अन्त्यजों को यज्ञोपवीत देकर उन्हें हिन्दुत्व के भीतर आदर का स्थान दिया। आर्य समाज ने नारियों की मर्यादा में वृद्धि की एवं उनकी शिक्षा-संस्कृति का प्रचार करते हुए विधवा विवाह का भी प्रचलन किया। कन्या-शिक्षा और ब्रह्मचर्य का आर्य समाज ने इतना अधिक प्रचार किया कि हिन्दी-प्रान्तों में साहित्य के भीतर एक प्रकार की पवित्रतावादी भावना भर गयी और हिन्दी के कवि कामिनी नारी की कल्पनामात्र से घबराने लगे। पुरुष शिक्षित और स्वस्थ हों, नारियां शिक्षित और सबला हों, लोग संस्कृत पढ़ें और हवन करें, कोई भी हिन्दू मूर्तिपूजा का नाम न ले, न पुरोहित, देवताओं और पण्डों के फेरे में पड़ें, ये उपदेश उन सभी प्रान्तों में कोई पचास सालों तक गूँजते रहे, जहाँ आर्य समाज का थोड़ा बहुत भी प्रचार हुआ था।
- हिन्दुत्व की वीर भुजा
- आर्यसमाज हिन्दुत्व की खड्गधार बाँह साबित हुआ। स्वामी जी के समय से लेकर, अभी हाल तक, इस समाज ने सारे हिन्दी-प्रान्त को अपने प्रचार से आँटा डाला। आर्यसमाज के प्रभाव में आकर बहुत से हिन्दुओं ने मूर्तिपूजा छोड़ दी, बहुतों ने अपने घर के देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को तोड़कर बाहर फेंक दिया, बहुतों ने श्राद्ध की पद्धति बन्द कर दी और बहुतों ने पुरोहितों के अपने यहाँ से विदा कर दिया। जो विधिवत् आर्य समाजी नहीं बने, शास्त्रों और पुराणों से उनका विश्वास हिल गया और वे भी, मन ही मन, शंका करने लगे कि राम और कृष्ण ईश्वर हैं या नहीं और पाषाणों की पूजा से मनुष्य को कोई लाभ हो सकता है या नहीं। आर्यसमाजियों ने जगह-जगह अपने उद्देश्यानुकूल विद्यालय स्थापित किये, जिनमें संस्कृत की विशेष रूप से पढ़ाई होती है और जहाँ के स्नातक स्वामी दयानन्द के उद्देश्यों के मूर्तिमान् रूप बनकर बाहर आते हैं। इन विद्यालयों में कन्या और युवक ब्रह्मचर्य-वास करते हैं।
- आगे चलकर आर्य समाज ने शुद्धि और संगठन का भी प्रचार किया। सन् १९२६ ई० में मोपला (मालाबार) में मुसलमानों ने भयानक विद्रोह किया और उन्होंने पड़ोस के हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बना लिया। आर्य समाज ने इस विपत्ति के समय संकट के सामने छाती खोली और कोई ढाई हजार भ्रष्ट परिवारों को फिर से हिन्दू बना लिया। इसी काण्ड के बाद आर्यसमाजियों ने मलकाना-राजपूतों की शुद्धि आरम्भ की, जिससे मुस्लिम सम्प्रदाय में क्षोभ उत्पन्न हुआ और लोग कहने लगे कि आर्यसमाजी मुसलमानों से शत्रुता कर रहे हैं। किन्तु शत्रुता की इसमें कोई बात नहीं। जब अन्य धर्म वालों को यह अधिकार है कि वे चाहे जितने हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बना सकते हैं, तब धर्म-भ्रष्ट हिन्दुओं को फिर से हिन्दू बना लेने में ऐसा क्या अन्याय है? किन्तु, आर्यसमाजियों के इस साहस से मुसलमान बहुत घबराये एवं भारतीय एकता का संकट कुछ पीछे की ओर लुढ़क गया।
- आर्यसमाजियों ने अपने साहस का दूसरा परिचय सन् १९३६ में दिया जब हैदराबाद की निजाम सरकार ने यह फरमान जारी किया था कि हैदराबाद राज्य में आर्य समाज का प्रचार नहीं होने दिया जाएगा। इस आज्ञा के विरुद्ध आर्यसमाजियों ने सत्याग्रह का शास्त्र निकाला और एक-एक करके कोई बारह हजार आर्यसमाजी सत्याग्रही जेल चले गये।
- ईसाइयत और इस्लाम के आक्रमणों से हिन्दुत्व की रक्षा करने में जितनी मुसीबतें आर्य समाज ने झेली हैं, उतनी किसी और संस्था ने नहीं। सच पूछिये तो उत्तर भारत में हिन्दुओं को जगाकर उन्हें प्रगतिशील करने का सारा श्रेय आर्य समाज को ही है। पण्डित चमूपति ने सत्य ही कहा है कि 'आर्य समाज के जन्म के समय हिन्दू कोरा फुसफिसिया जीव था। उसके मेरुदण्ड की हड्डी थी ही नहीं चाहे उसे कोई गाली दे, उसकी हंसी उड़ाये, उसके देवताओं की भर्त्सना करे या उसके धर्म पर कीचड़ उछाले, जिसे वह सदियों से मानता आ रहा है, फिर भी, इन सारे अपमानों के आगे वह दांत निपोरकर रह जाता था। लोगों को यह उचित शंका हो सकती थी कि यह गुस्से में आकर प्रतिपक्षी की ओर घूर भी सकता है या नहीं, किन्तु आर्य समाज के उदय के बाद अविचल उदासीनता की यह मनोवृत्ति विदा हो गयी। हिन्दुओं का धर्म एक बार फिर जगमगा उठा है। आज का हिन्दू अपने धर्म की निन्दा सुनकर चुप नहीं रह सकता। जरूरत हुई तो धर्म-रक्षार्थ अपने प्राण भी दे सकता है।' -- रामधारी सिंह 'दिनकर' को उद्धृत करते हुए आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र 'आर्य मर्यादा' के अप्रैल २०२१ के अंक में
इन्हें भी देखें
[सम्पादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[सम्पादित करें]- स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनमोल विचार
- महर्षि दयानन्द के बारे मे अन्य महानुभावों के विचार
- महर्षि दयानन्द
- मैंने महर्षि दयानन्दको देखा
