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विनायक दामोदर सावरकर

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वीर सावरकर

विनायक दामोदर सावरकर (28 मई 1883 - 26 फरवरी 1966) भारत के क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक थे। उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। उनके ब्रिटिश-विरोधी अनेक कार्यों के कारण अंग्रेज सरकार ने उन्हें काले पानी की सजा दी थी। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा 'हिन्दुत्व' को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे। वे वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार भी थे। उन्होंने परिवर्तित हिन्दुओं के हिन्दू धर्म को वापस लौटाने हेतु सतत प्रयास किये एवं इसके लिए आन्दोलन चलाये।

उक्तियाँ

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  • कांग्रेस की मुसलिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं हिंदू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा। -- १० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द होने पर कांग्रेस में सम्मिलित होने के प्रश्न पर
अन्याय पर उद्धरण
  • अन्याय का जड़ से उन्मूलन क्र सत्य –धर्म की स्थापना – हेतु क्रांति, रक्तचाप प्रतिशोध आदि प्रकृतिप्रदत्त साधन ही हैं। अन्याय के परिणामस्वरूप होनेवाली वेदना और उद्दण्डता ही तो इन साधनों की नियन्त्रणकत्री है।
अस्पृश्यता पर उद्धरण
  • हमारे देश और समाज के माथे पर एक कलंक है – अस्पृश्यता ।हिन्दू समाज के, धर्म के ,रास्त्र के करोड़ों हिन्दू बन्धु इससे अभिशप्त हैं। जब तक हम ऐसे बनाए हुए हैं, तब तक हमारे शत्रु हमें परस्पर लदवाकर, विभाजित क्र सफल होते रहेंगे। इस घातक बुराई को हमें त्यागना ही होगा।
अहंकार पर उद्धरण
  • ब्राह्मणों से चाण्डाल तक सारे-के-सारे हिन्दू समाज की हड्डियों में प्रवेश कर यह जाति- अहंकार उसे चूस रहा है और पूरा हिन्दू समाज इस जाति – अहंकारगत द्वेष के कारण जाति – कलह के यक्ष्मा की प्रबलता से जीर्ण – शीर्ण हो गया है।
अहिंसा पर उद्धरण
  • अपने देश की, राष्ट्र की, समाज की स्वतन्त्रता – हेतु प्रभु से की गई मूक प्राथर्ना भी सबसे बड़ी अहिंसा का द्दोतक है।
आदर्श पर उद्धरण
  • देशहित के लिए अन्य त्यागों के साथ जन-प्रियता का त्याग करना सबसे बड़ा और ऊँचा आदर्श है, क्योंकि – 'वर जनहित ध्येयं केवल न जनस्तुति:’ शास्त्रों में उपयुक्त ही कहा गया है।
इतिहास पर उद्धरण
  • वर्तमान परिस्थिति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा – इस तथ्य की चिंता किये बिना ही इतिहासलेखक को इतिहास लिखना चाहिए और समय की जानकारी को विशुद्ध और सत्य–रूप में ही प्रस्तुत करना चाहिए।
ईश्वर/भगवान पर उद्धरण
  • पतितों को ईश्वर के दर्शन उपलब्ध हों, क्योंकि ईश्वर पतित–पावन जो है। यही तो हमारे शास्त्रों का सार है। भगवद–दर्शन करने की अछूतों की माँग जिस व्यक्ति को बहुत बड़ी दिखाई देती है, वास्तव में वह व्यक्ति स्वयं अछूत है और पतित भी, भले ही उसे चारों वेद कंठस्थ क्यों न हों।
कर्तव्य पर उद्धरण
  • कर्तव्य की निष्ठा संकटों को झेलने में, दुःख उठाने में और जीवन – भर संघर्ष करने में ही समाविष्ट है। यश – अपयश तो मात्र योगायोग की बातें हैं।
कर्म पर उद्धरण
  • हमारी पीढी ऐसे समय में और ऐसे देश में पैदा हुई है कि प्रत्येक उदार एवं सच्चे हृदय के लिए यह बात आवश्यक हो गई है कि वह अपने लिए उस मार्ग का चयन करे जो आहों, सिसकियों और विरह के मध्य से गुजरता है। बस,यही मार्ग कर्म का मार्ग है।
कष्ट पर उद्धरण
  • कष्ट ही तो वह चाक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और उसे आगे बढ़ाती है।
गीता पर उद्धरण
  • संसार को हिन्दू जाति का आदेश सुनना पड़े – ऐसी अवस्था उपस्थित होने पर उनका वह आदेश गीता और गौतम बुद्ध के आदेशों से भिन्न नहीं होगा।
गुण पर उद्धरण
  • प्रतिशोध की भट्टी को तपाने के लिए विरोधों और अन्याय का ईंधन अपेक्षित है, तभी तो उसमें से सद्गुणों के कण चमकने लगेगें। इसका मुख्य कारण है कि प्रत्येक वस्तु अपने विरोधी तत्व से रगड खाकर ही स्फुलित हो उठता है।
ज्ञान पर उद्धरण
  • ज्ञान प्राप्त होने पर किया गया कर्म सफलतादायक होता है, क्योंकि ज्ञान – युक्त कर्म ही समाज के लिए हितकारक है। ज्ञान – प्राप्ति जितनी कठिन है, उससे अधिक कठिन है – उसे संभाल कर रखना । मनुष्य तब तक कोई भी ठोस पग नहीं उठा सकता यदि उसमें राजनीतिक, ऐतिहासिक,अर्थशास्त्रीय एवं शासनशास्त्रीय ज्ञान का अभाव हो।
देशभक्ति/देशसेवा पर उद्धरण
  • देशभक्ति का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप उसकी हड्डियाँ भुनाते रहें। यदि क्रांतिकारियों को देशभक्ति की हुडियाँ भुनाती होतीं तो वीर हुतात्मा धींगरा, कन्हैया कान्हेरे और भगत सिंह जैसे देशभक्त फांसी पर लटककर स्वर्ग की पूण्य भूमि में प्रवेश करने का साहस न करते। वे ‘ए’ क्लास की जेल में मक्खन, डबलरोटी और मौसम्बियों का सेवन क्र, दो-दो माह की जेल–यात्रा से लौट क्र अपनी हुडियाँ भुनाते दिखाई देते।
राष्ट्र की रक्षा पर
धर्म पर उद्धरण
  • इतिहास, समाज और राष्ट्र को पुष्ट करनेवाला हमारा दैनिक व्यवहार ही हमारा धर्म है। धर्म की यह परिभाषा स्पष्ट करती है कि कोई भी मनुष्य धर्मातीत रह ही नहीं सकता। देश इतिहास, समाज के प्रति विशुद्ध प्रेम एवं न्यायपूर्ण व्यवहार ही सच्चा धर्म है।
परतन्त्रता पर उद्धरण
  • परतन्त्रता तथा दासता को प्रत्येक सद्धर्म ने सर्वदा धिक्कारा है। धर्म के उच्छेद और ईश्वर की इच्छा के खंडन को ही परतन्त्रता कहते हैं। सभी परतन्त्रताओं से निकृष्टतम परतन्त्रता है – राजनीतिक परतन्त्रता और यही नर्क का द्वार है।
भारत / देश पर उद्धरण
  • हिन्दू जाति की गृहस्थली है – भारत, जिसकी गोद में महापुरूष, अवतार, देवी-देवता और देव – जन खेले हैं। यही हमारी पितृभूमि और पुण्यभूमि है। यही हमारी कर्मभूमि है और इससे हमारी वंशगत और सांस्कृतिक आत्मीयता के सम्बन्ध जुड़े हैं।
भाषा /राष्ट्रभाषा/हिन्दी पर उद्धरण
  • बहुसंख्यकों के लिए सुलभ और अनुकूल भाषा ही राष्ट्रभाषा के पद पर सुशोभित ही सकती है, अतः बहुसंख्यक हिन्दुओं की सांस्कृतिक भाषा हिन्दी ही सम्पूर्ण देश में समझी जा सकती है और यह राष्ट्रभाषा बन सकती है इसे संस्कृतनिष्ठ बनाने के लिए उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों को प्रयुक्त न किया जाये। दृढ़ता से डटे रहकर ही विदेशियों के भाषाई आक्रमण को विफल किया जा सकता है। इसकी पूर्ण सफलता के लिए हिन्दू संकल्प लें- ‘संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा तथा नागरी लिपि ही हमारी राष्ट्रलिपि है। ‘ऋषि दयानंद ने ठीक ही तो उद्घोष किया था कि हिन्दुस्तान के अखिल हिन्दुओं की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। विदेशी शब्दों की घुसपैठ के कारण हिन्दी भ्रष्ट न हो। इसके लिए जागरूक रहने की आवश्यकता है। भाषा राष्ट्रीयता का एक प्रमुख अंग है। हमारी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, न्याय, दर्शन आदि सर्वागीं विषय इसी भाषा में हैं।
मन पर उद्धरण
  • मन सृष्टि के विधाता द्वारा मानव-जाति को प्रदान किया गया एक ऐसा उपहार है, जो मनुष्य के परिवर्तनशील जीवन की स्थितियों के अनुसार स्वयं अपना रूप और आकार भी बदल लेता है।
मनुष्य पर उद्धरण
  • मनुष्य की सम्पूर्ण शक्ति का मूल उसके अहम की प्रतीति में ही विद्यमान है।
मृत्यु पर उद्धरण
  • समय से पूर्व कोई मृत्यु को प्राप्त नहीं करता और जब समय आ जाता है तो कोई अर्थात कोई भी इससे बच नहीं सकता। हजारों – लाखों बीमारी से ही मर जाते हैं, पर जो धर्मयुद्ध में मृत्यु प्राप्त करते हैं, उनके लिए तो अपूर्व सौभाग्य की बात है। ऐसे लोग तो हुतात्मा ही होते हैं।
मैत्री / मित्रता पर उद्धरण
  • समान शक्ति रखने वालों में ही मैत्री संभव है।
शक्ति पर उद्धरण
  • जिस राष्ट्र में शक्ति की पूजा नहीं, शक्ति का महत्व नहीं, उस राष्ट्र की प्रतिष्ठा कौड़ी कीमत की है। प्रतिष्ठा के न होने का प्रमाण है – पड़ोसी देश लंका ,पूर्वी पकिस्तान, पश्चिमी पकिस्तान में हिन्दुओं के साथ हो रहा दुर्व्यहार, जिसके लिए भारत सरकार मात्र विरोध – पत्र ही भेज सकती है, कर कुछ नहीं सकती।
संस्कृति पर उद्धरण
  • महान हिन्दू संस्कृति के भव्य मन्दिर को आज तक पुनीत रखा है संस्कृत ने। इसी भाषा में हमारा सम्पूर्ण ज्ञान, सर्वोत्तम तथ्य संगृहीत हैं। एक राष्ट्र, एक जाति और एक संस्कृति के आधार पर ही हम हिन्दुओं की एकता आश्रित और आघृत है।
स्वतन्त्रता/स्वाधीनता पर उद्धरण
  • भारत की स्वतन्त्रता का और सार्वभौम संघ – राज्य बनाने का श्रेय किसी एक गुट को नहीं, अपितु उसका श्रेय पिछली दो–तीन पीढी के सर्वदलीय देशभक्तों को सामूहिक रूप से है। स्वयं को असहयोगवादी और अहिंसक कहलानेवाले हजारों देशभक्तों ने इस स्वतन्त्रता के लिए जो भारतव्यापी कार्य किया, उसके प्रति हम सबको कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए।
हिन्दू धर्म पर उद्धरण
  • हिन्दू धर्म कोई ताड़ –पत्र पर लिखित पोथी नहीं जो ताड़–पत्र के चटकते ही चूर–चूर हो जायेगा, आज उत्पन्न होकर कल नष्ट हो जायेगा। यह कोई गोलमेज परिषद का प्रस्ताव भी नहीं, यह तो एक महान जाति का जीवन है; यह एक शब्द-भर नहीं, अपितु सम्पूर्ण इतिहास है – अधिक नहीं तो चालीस सहस्त्राब्दियों का इतिहास इसमें भरा हुआ है।

इस्लाम/मुसलमानों पर

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  • मजहवी धारणा : सामान्यतः मुसलमान अभी अत्यधिक धार्मिकता और राज्य की मजहबी धारणा के ऐतिहासिक चरण से नहीं उबर पाये हैं। उनकी मजहबी राजनीति मानव-जाति को दो भागों में विभाजित करती है-'मुस्लिम भूमि' और 'शत्रु भूमि' ! वे सभी देश, जिनमें या तोपूर्ण रूप से मुसलमान ही निवास करते हैं अथवा जहाँ मुसलमानों का शासन है, 'मुस्लिम देश' हैं और अन्य देश 'शत्रु देश'। (सावरकर एण्ड हिज टाइम, पृ. २३०)
  • धर्मान्धता : पारसी-ईसाई आदि भारत के लिए कोई समस्या नहीं है। जब हम स्वतन्त्र हो जायें तब इन्हें बड़ी सरलता से हिन्दी नागरिक की श्रेणी में लाया जा सकेगा। किन्तु मुसलमानों के बारे में बात दूसरी है। जब कभी इंग्लैण्ड भारत से अपनी सत्ता हटा लेगा तब भारतीय राज्य के प्रति देश के मुसलमान भयप्रद सिद्ध हो सकते हैं। हिन्दुस्थान में मुस्लिम राज्य की स्थापना करने की अपनी धर्मान्ध योजना को अपने मन-मस्तिष्क में संजोय रखने की मुस्लिम जगत की नीति आज भी बनी हुई है। (३० दिसम्बर १९३९ को हिन्दू महासभा का अध्यक्षीय भाषण)
  • मुसलमानों में जात-पांत या क्षेत्रीयता का भाव नहीं है, यह कहना सर्वथा भ्रामक है। दुर्रानी मुसलमान व मुगल मुसलमान, दक्खिनी मुसलमान व उत्तरी मुसलमान, शेख मुसलमान व सैयद मुसलमानों के झगड़े का लाभ उठाकर ही मराठों ने मुगलों का तखता पलटा। शिया और सुन्नी दंगे वैष्णव व शैवों के दंगों से हजार गुणा ज्यादा भयंकर है- और बार-बार होते रहते हैं। काबुलमें सुन्नी मुसलमानों ने अहमदिया मुसलमानों को पत्थरों से मार डाला। बहाई मुसलमान तो अन्य सभी मुसलमानों को इस दुनियां में फांसी और नर्क के योग्य समझते हैं। अस्पृश्यता भी उनमें कम नहीं हैं। भंगी मुसलमान को पानी भी न छूने देने वाली व मस्जिद में नमाज़ के लिए न जाने देने की घटनायें होती ही रहती हैं। (मौलाना शौकतअली को लिखे पत्र तीसरा खंड, सावरकर समग्र वांड्‌., पृ. ७५८)
  • मुस्लिम मनोवृत्ति : पिछले पचास वर्षों में, मुसलमानों को प्रसन्न कर व उन्हें एक संयुक्त भारतीय राष्ट्र में सम्मिलित करके कम से कम इस हेतु प्रेरित करने के लिए कि सर्वप्रथम वे भारतीय हैं व फिर मुसलमान हैं, कांग्रेस के प्रयासों का बुरी तरह असफल होने का क्या कारण था ? ऐसा नहीं है कि मुसलमान एक संयुक्त भारतीय राष्ट्र नहीं बनाना चाहते किन्तु एकता, राष्ट्रीय एकता की कल्पना उसके प्रादेशिक एकता पर आधारित नही है। इस विषय पर किसी मुसलमान ने यदि स्पष्ट एवं बोधगम्य रूप से अपना मानस व्यक्त किया है तो वह मोपला आन्दोलन के नेता अली मुसलियार ने हजारों हिन्दू महिलाओं, पुरुषों, बच्चों को धर्मान्तरित करने अथवा तलवार के बल पर समाप्त करने के अति दुष्ट अभियानके समर्थन में उसने घोषित किया कि भारत को एक संयुक्त राष्ट्र होना ही चाहिए और हिन्दू मुसलमान की शाश्वत एकता स्थापित करने का केवल एक ही मार्ग हैं और वह है सारे हिन्दुओं का मुसलमान बन जाना। (नागपुर में हिन्दू महासभा में अध्यक्षीय भाषण)
  • मुसलमान, भारतीय कभी नहीं : मुसलमान, मुसलमान प्रथम और अंतिम रूप से मुसलमान रहेगा, भारतीय कभी नहीं। वे तब तक तटस्थ रहे जब तक कि दिगम्रमित हिन्दुओं ने अंग्रेजी राज से सभी भारतीय के लिए राजनैतिक अधिकार प्राप्त करने का संघर्ष जारी रखा और लाखों की संखया में जेल गये, हजासरों की संखया में अण्डमान गये, सैकड़ों की संखया में फाँसी पर झूल गये और जैसे ही एक ओर कांग्रेसी हिन्दुओं द्वारा चलाये जा रहे निःशस्त्र आन्दोलन एवं दूसरी ओर कांग्रेस से बाहर सशस्त्र हिन्दू क्रान्तिकारियों द्वारा अधिक भयावह एवं प्रवासी जीवन-मृत्यु का संघर्ष चलाये जाने से अंग्रेजी शासन पर पर्याप्त रूप से प्रभाव पड़ा और उन्हें भारतीय को महत्वपूर्ण राजनैतिक शक्ति देने को विवश होना पड़ा, तुरन्त ही मुसलमान चाहरदीवारी से कहने लगे कि वे भी भारतीय हैं, उन्हें भी अपना अधिकार मिलना चाहिए। अंततोगत्वा बातयहाँ तक पहुँची कि भारतवर्ष को 'मुस्लिम भारत' व 'हिन्दू भारत' में विभाजित करने का प्रस्ताव ज़ोरशोर से रखा गया और इस हेतु मुस्लिम लीग जैसी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था ने मुस्लिम राष्ट्रों के साथ हिन्दुओं के विरुद्ध मित्रता करने की तत्परता बताई। (नागपुर में हिन्दु महासभा में अध्यक्षीय भाषण)
  • वन्देमातरम्‌ का विरोध : मुस्लिम लीग 'वन्देमातरम्‌' को इस्लाम विरोधी घोषित कर चुकी है। राष्ट्रवादी कहे जाने वाले कांग्रेसी मुस्लिम नेता भी 'वन्देमातरम्‌' गाने से इनकार कर अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय दे चुके हैं। हमारे एकतावादी कांग्रेसी नेता उनकी हर अनुचित व दुराग्रहपूर्ण मांग के सामने झुकते जा रहे हैं। आज वे वन्देमातरम्‌ का विरोध कर रहे हैं। कल 'हिन्दुस्थान' या 'भारत' नामों पर एतराज़ करेंगे-इन्हें इस्लाम विरोधी करार देंगे। हिन्दी की जगह उर्दू को राष्ट्रभाषा व देवनागरी की जगह अरबी लिपि का आग्रह करेंगे। उनका एकमात्र उद्‌देश्य ही भारत को 'दारूल इस्लाम' बनाना है। तुष्टीकरण की नीति उनकी भूख और बढ़ाती जायेगी जिसका घातक परिणाम सभी को भोगना होगा। (अहमदाबाद का हिन्दू महासभा का अध्यक्षीय भाषण)
  • हिन्दू सैनिकीकरण की आवश्यकता : जब तक देश की राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दू का सैनिकीकरण नहीं किया जायेगा, तब तक भारत की स्वाधीनता, उसकी सीमायें, उसकी सभ्यता व संस्कृति कदापि सुरक्षित नहीं रह सकेगी। मेरी तो हिन्दू युवकों से यही अपेक्षा है, यही आदेश है कि वे अधिकाधिक संखया में सेना में भर्ती होकर सैन्य-विद्या का ज्ञान प्राप्त करें, जिससे समय पड़ने पर वे अपने देश का स्वाधीनता की रक्षा में योग दे सकें। (१९५५ में जोधपुर में सम्पन्न हिन्दू महासभा अधिवेशन में भाषण)
  • हिन्दुस्थान नाम का विरोध : हर एक देश का नाम उसके राष्ट्रीय बहुमत वाले नाम से ही पुकारा जाना चाहिए। क्या कभी बलूचिस्तान, वजीरिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्थान आदि नामों पर भी आपत्ति की गयी, जबकि इन देशों में गैर-मुस्लिम अल्पमत बस रहा है ? फिर हिन्दुस्थान या हिन्दू राज्य का नाम लेते ही इनकी साँस क्यों उखड़ने लगती है-जैसे कि उन्हें साँप ने ही काट खाया हो ? (विनायक दामोदर सावरकर, पृ. २२२)