भगवद्गीता
भगवद्गीता, महाभारत के भीष्म पर्व का एक भाग है। इसे प्रायः 'गीता' कहा जाता है। इसमें वैदिक दर्शन, योगदर्शन, वेदान्त दर्शन और तांत्रिक दर्शन के कई पहलुओं का सार है। 'भगवद्गीता' का शाब्दिक अर्थ "भगवान का गीत" है। गीता अपने आप को एक 'उपनिषद' कहती है और कभी-कभी इसे 'ज्ञानोपनिषद' कहा जाता है।
महात्मा गांधी तो गीता को अपनी माँ और अपने जीवन का सन्दर्भ ग्रंथ मानते थे। वह गीता की स्थितप्रज्ञ की अवधारणा से इतने अधिक प्रभावित थे कि जीवन भर इस अवस्था को प्राप्त करने की एकनिष्ठ साधना करते रहे। लोकमान्य तिलक ने गीता की बहुत गहन व्याख्या की। उनके इस ग्रंथ का नाम “गीता रहस्य” है। उनके अनुसार ज्ञान-भक्ति-युक्त कर्मयोग ही गीता का सार है। महर्षि अरविन्द के अनुसार “गीता आध्यात्मिक जीवन का ग्रन्थ है”। आदि शंकर सहित अनेक सन्तों और योगियों ने गीता पर सुंदर टीकाएँ लिखी हैं, जिनमें सन्त ज्ञानेश्वर की “ज्ञानेश्वरी” बहुत अद्वितीय है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति ऐपीजे अब्दुल कलाम रोजाना गीता का अध्ययन करते थे और इसे अपने सिरहाने रखकर सोते थे।
प्रमुख उपदेश[सम्पादन]
- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
- न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
- अर्थ- आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है। जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
- तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
- अर्थ - जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है। इसलिए जो अटल है अपरिहार्य है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।
- क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है, जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है। जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है।
- नरक के तीन द्वार होते है, वासना, क्रोध और लालच।
- जिस प्रकार अग्नि स्वर्ण को परखती है, उसी प्रकार संकट वीर पुरुषों को।
- मनुष्य को परिणाम की चिन्ता किए बिना, लोभ- लालच बिना एवं निस्वार्थ और निष्पक्ष होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
- मनुष्य को अपने कर्मों के संभावित परिणामों से प्राप्त होने वाली विजय या पराजय, लाभ या हानि, प्रसन्नता या दुःख इत्यादि के बारे में सोच कर चिंता से ग्रसित नहीं होना चाहिए।
- अपने अनिवार्य कार्य करो, क्योंकि वास्तव में कार्य करना निष्क्रियता से बेहतर है।
- अपकीर्ति मृत्यु से भी बुरी है।
- युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
- युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥
- अर्थ - जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है। वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।
- मनुष्य का मन इन्द्रियों के चक्रव्यूह के कारण भ्रमित रहता है। जो वासना, लालच, आलस्य जैसी बुरी आदतों से ग्रसित हो जाता है। इसलिए मनुष्य का अपने मन एवं आत्मा पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
- असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
- अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
- अर्थ - हे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु, हे कुन्तीपुत्र! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।
- जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।
- मैं धरती की मधुर सुगंध हूँ, मैं अग्नि की ऊष्मा हूँ, सभी जीवित प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का आत्मसंयम हूँ। (कृष्ण)
- यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
- तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥18.78॥
- अर्थ- जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है। (संजय, गीता के अन्त में)
गीता पर महापुरुषों के विचार[सम्पादन]
- पूरब के सभी अवशेषों में गीता सबसे अधिक प्रशंसनीय है। -- हेनरी डेविड थोरो, प्रसिद्ध अमेरिकी कवि, लेखक और दार्शनिक, अपनी पुस्तक “वाल्डेन” में
- आध्यात्मिक व्यक्ति को वैरागी होने की ज़रूरत नहीं है। दुनिया में रहकर और कर्म करते हुए दिव्यात्मा से सम्पर्क हो सकता है और इसे कायम रखा जा सकता है। इस मिलन में जो बढ़ाएं वे बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर हैं- यही भगवत गीता की मुख्य शिक्षा है। -- एनी बेसेन्ट, आयरलैंड की समाजवादी विदुषी और थियोसोफिस्ट ; 'The Lord’s Song' में
- यह एक महान मौलिक ग्रंथ है, जिसमें विचार की उदात्तता, तर्क और शैली बेमिसाल है। -- वारेन हेस्टिंग्स, भारत के पहले गवर्नर जनरल
- भगवतगीता का में बहुत ऋणी हूँ। मुझे ऐसा लगा कि जैसे कोई साम्राज्य ने मुझसे बात की हो। इसमें कुछ भी छोटी और व्यर्थ बात नहीं है। इसमें शान्ति और संगति है। इसमें प्राचीन बुद्धिमत्ता है। इसका चिन्तन किसी और युग में हुआ लेकिन हम जिन प्रश्नों से जूझ रहे हैं, उनका उत्तर इनमें है। -- राल्फ वाल्डो इमर्सन, उन्नीसवीं शताब्दी के लोकप्रिय निबंधकार
- यह एक सुलभ ग्रन्थ है। इस अमर ग्रन्थ के ७०० श्लोक यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि हिन्दू धर्म क्या है और उसे जीवन में किस प्रकार उतारा जाए। गीता में किसी धर्म के प्रति द्वेष नहीं है। मुझे यह कहते बड़ा आनन्द होता है कि मैंने गीता के प्रति जितना पूज्य भाव रखा है, उतने ही पूज्य भाव से बाइबल-कुरान-जदअवस्ता और संसार के अन्य धर्म ग्रंथ पढ़े हैं। इस वाचन ने गीता के प्रति मेरी इच्छा को दृढ़ बनाया है। उससे मेरी दृष्टि और मेरा हिन्दू धर्म विशाल हुआ है। मैं अपने को हिन्दू कहने में गौरव मानता हूँ, क्योंकि मेरे मन में यह शब्द इतना विशाल है कि पृथ्वी के चारों कोनों के पैगम्बरों के प्रति यह केवल सहिष्णुता ही नहीं रखता, वरना उन्हें आत्मसात कर देता है।-- मोहनदास करमचन्द्र गांधी