माया

विकिसूक्ति से
  • दृढं मन्ये जगदिदं दृश्यमद्वयं ब्रह्म।
मन्यते येन ज्ञायते न तेन सा नाम माया॥
  • माया महा ठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।
केसव के कमला हो बैठी, सिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत हो बैठी तीरथहू में पानी।
जोगी के जोगिन हो बैठी, रजा के घर रनी।
काहू के हीरा हो बैठी काहू कौड़ी कानी।
भक्तन के भक्तिन हो बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी॥ -- कबीरदास
हम माया को बहुत बड़ी ठगनी समझते हैं, उसके हाथ में त्रिगुण की फाँसी का फंदा है और होंठों पर मीठे बोल। केशव (विष्णु) के यहाँ कमला (लक्ष्मी) बन बैठी और शिव के यहाँ भवानी। पांडे घर मूर्ति बनी बैठी है और तीर्थ में पानी। जोगी के घर में जोगन हो गई और राजा के घर रानी। किसी के यहाँ हीरा बनकर आई और किसी के यहाँ कानी कौड़ी। भक्तों के यहाँ भक्तिन हो गई और ब्रह्मा के घर ब्रह्मानी। सुनो भाई साधु, कबीर कहते हैं कि यह अकथनीय कथा है।