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संन्यास

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संन्यास, वैराग्य, त्याग, विरक्ति आदि समानार्थक शब्द हैं।

उक्तियाँ

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  • अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥ -- गीता 6.1
(श्रीभगवान् बोले)- कर्मफल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्यकर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओं का त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।
  • ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ -- गीता ५:३
हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकाङ्क्षा करता है; वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
  • पृथिव्यां सागरान्तायां द्वाविमौ पुरुषाधमौ।
गृहस्थश्च निरारम्भः सारम्भश्चैव भिक्षुकः॥ -- विदुर नीति
समुद्रपर्यन्त इस सारी पृथिवीमें दो प्रकारके अथम पुरुष हैं - अकर्मण्य गृहस्थ और कर्मों में लगा हुआ संन्यासी।
  • द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थस्य निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः॥ -- विदुर नीति
दो ही अपने विपरीत कर्मके कारण शोभा नहीं पाते - अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपञ्चमें लगा हुआ संन्यासी।
  • द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखे हतः॥ -- विदुर नीति
पुरुषश्रेष्ठ ! ये दो प्रकार के पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति को प्राप्त होते है- योगयुक्त संन्यासी, और संग्राममें शत्रुओं के सम्मुख युद्ध करके मारा गया योद्धा।
  • BDS२।१०।१८।१ एकदण्डी त्रिदण्डी वा ॥
BDS२।१०।१८।२ अथेमानि व्रतानि भवन्ति । अहिंसा सत्यम् अस्तैन्यंमैथुनस्य च वर्जनम् । त्याग इत्य् एव ॥
BDS२।१०।१८।३ पञ्चैवोपव्रतानि भवन्ति । अक्रोधोगुरुशुश्रूषाप्रमादः शौचम् आहारशुद्धिश् चेति ॥
BDS२।१०।१८।४ अथ भैक्षचर्या । ब्राह्मणानां शालीनयायावराणामपवृत्ते वैश्वदेवे भिक्षां लिप्सेत ॥
BDS२।१०।१८।५ भवत्पूर्वां प्रचोदयेत् [k: प्रचोदयात्] ॥
BDS२।१०।१८।६ गोदोहमात्रम् [k: गोदोहनमात्रम्] आकाङ्क्षेत् ॥
BDS२।१०।१८।७ अथ भैक्षचर्याद् उपावृत्य शुचौ देशेन्यस्य हस्तपादान् प्रक्षाल्यादित्यस्याग्रं निवेदयेत् । उद् उ त्यम् । चित्रम् इति । ब्रह्मणे निवेदयते । ब्रह्म जज्ञानम् इति ॥ [k: उपावृत्तः ॥। अग्रे]
BDS२।१०।१८।८ विज्ञायते । आधानप्रभृति यजमान एवाग्नयो भवन्ति । तस्य प्राणो गार्हपत्योऽपानोऽन्वाहार्यपचनो व्यान आहवनीयौदानसमानौ सभ्यावसथ्यौ । पञ्च वा एतेऽग्नय आत्मस्थाः ।आत्मन्य् एव जुहोति ॥
BDS२।१०।१८।९ स एष आत्मयज्ञ आत्मनिष्ठ आत्मप्रतिष्ठ आत्मानंक्षेमं नयतीति विज्ञायते ॥
BDS२।१०।१८।१० भूतेभ्यो दयापूर्वं संविभज्य शेषम् अद्भिः संस्पृश्यौषधवत् प्राश्नीयात् ॥ -- बौधायन धर्मसूत्र
These are the vows a Sannyasi must keep –
Abstention from injuring living beings, truthfulness, abstention from appropriating the property of others, abstention from sex, liberality (kindness, gentleness) are the major vows. There are five minor vows: abstention from anger, obedience towards the guru, avoidance of rashness, cleanliness, and purity in eating. He should beg (for food) without annoying others, any food he gets he must compassionately share a portion with other living beings, sprinkling the remainder with water he should eat it as if it were a medicine.
  • हे मानवो ! जैसे अग्नि आप शुद्ध हुआ सबको शुद्ध करता है, वैसे संन्यासी लोग स्वयं पवित्र हुये सबको पवित्र करते हैं। -- वेद
  • जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज़ की अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझने के योग्य है। -- महाभारत
  • भिक्षुक (संन्यासी) को उस पर नाराज़ नहीं होना चाहिए जो उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। अन्यथा वह एक अज्ञानी व्यक्ति की तरह होगा। इसलिए उसे क्रोधित नहीं होना चाहिए। -- महावीर स्वामी
  • संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना। -- स्वामी विवेकानन्द
  • व्यवसायियों को जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह अगर संन्यासियों को झेलनी पड़े, तो सारा संन्यास भूल जाएं। -- प्रेमचन्द

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

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