आयुर्वेद

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आयुर्वेद भारत की प्राचीन काल से प्रचलित चिकित्सापद्धति है। आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ है, 'आयु का वेद' अर्थात निरोगी रहते हुए लम्बी आयु जीने का विज्ञान। चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, अष्टाङहृदयम्, भावप्रकाश, माधवनिदानम् आदि आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में स्वास्थ्य, रोग, निदान, चिकित्सा, औषधि, वैद्य आदि अनेकानेक विषयों का बड़ा ही वैज्ञानिक और विशद वर्णन किया गया है।

उक्तियाँ[सम्पादन]

आयुर्वेद, स्वास्थ्य आदि की परिभाषा[सम्पादन]

  • आयुरस्मिन् विद्यते अनेन वा आयुर्विन्दतीत्यायुर्वेदः। (चरकसूत्र १/१३)
अर्थ- जिसमें आयु है या जिससे आयु का ज्ञान प्राप्त हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं।
  • हिताहितं सुखं दुःखं आयुस्तस्य हिताहितम् ।
मानं च तच्च यत्रोक्तं आयुर्वेदः स उच्यते ॥ (चरकसंहिता सूत्रस्थान ३.४१) ॥
अर्थात् हितायु, अहितायु, सुखायु एवं दुःखायु; इस प्रकार चतुर्विध जो आयु है उस आयु के हित तथा अहित अर्थात् पथ्य और अपथ्य आयु का प्रमाण एवं उस आयु का स्वरूप जिसमें कहा गया हो, वह आर्युवेद कहा जाता है।
  • प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।
अर्थ - ...और इसका (आयुर्वेद का) प्रयोजन स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है।
  • आयुः कामयमानेन धर्मार्थ सुखसाधनम् ।
आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः॥ -- अष्टाङ्गहृदयम्
धर्म, अर्थ और सुख का साधन आयु है, इस आयु की जिस व्यक्ति को इच्छा हो उसे आयुर्वेद के उपदेशों का परम आदर करना चाहिए।
  • अन्नाभिलाषो भुक्तस्य परिपाकः सुखेन च ।
सृष्टविण्मूत्रवातत्वं शरीरस्य च लाघवम् ॥
सुप्रसन्नेन्द्रियत्वं च सुखस्वप्न प्रबोधनम् ।
बलवर्णायुषां लाभः सौमनस्यं समाग्निता ॥
विद्यात् आरोग्यलिंङ्गानि विपरीते विपर्ययम् । –- काश्यपसंहिता, खिलस्थान, पञ्चमोध्यायः
भोजन करने की इच्छा, अर्थात भूख समय पर लगती हो, भोजन ठीक से पचता हो, मलमूत्र और वायु के निष्कासन उचित रूप से होते हों, शरीर में हलकापन एवं स्फूर्ति रहती हो, इन्द्रियाँ प्रसन्न रहतीं हों, मन की सदा प्रसन्न स्थिति हो, सुखपूर्वक रात्रि में शयन करता हो, सुखपूर्वक ब्रह्ममुहूर्त में जागता हो; बल, वर्ण एवं आयु का लाभ मिलता हो, जिसकी पाचक-अग्नि न अधिक हो न कम, उक्त लक्षण हो तो व्यक्ति निरोगी है अन्यथा रोगी है।
  • समदोषः समाग्निश्च समधातु मलःक्रियाः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥ -- (सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान १५/१०)
जिसके दोष (वात, कफ, पित्त) सम (normal) हैं, जिसकी अग्नि सम है (न अधिक, न कम), धातु सम हैं, मलक्रिया ठीक है, जिसकी आत्मा, इन्द्रियाँ और मन प्रसन्न हैं, वह स्वस्थ कहा जाता है।
  • त्रयः उपस्तम्भाः । आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यं च सति।
अर्थ - शरीररुपी भवन को धारण करनेवाले तीन स्तम्भ (खम्भे) हैं: आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य (गृहस्थाश्रम में सम्यक् कामभोग) ।
  • शीतोष्णे चैव वायुश्च त्रयः शारीरजा गुणाः ।
तेषां गुणानां साम्यं यत्तदाहुः स्वास्थ्यलक्षणम् ॥ -- महाभारत
शीत (कफ), उष्ण (पित्त) और वायु (वात) - ये तीन शरीरके गुण (दोष) होते हैं। इन गुणों की जो साम्यावस्था (सामान्य होना) ही स्वास्थ्य का लक्षण है।
  • धर्मार्थकाममोक्षाणाम् आरोग्यं मूलमुत्तमम् । -- चरकसंहिता सूत्रस्थानम् - १.१४
अर्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल (जड़) उत्तम आरोग्य ही है।
अर्थात् धर्म की सिद्धि में सर्वप्रथम, सर्वप्रमुख साधन (स्वस्थ) शरीर ही है। अर्थात् कुछ भी करना हो तो स्वस्थ शरीर पहली आवश्यकता है।
  • तत्त्वाधिगतशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा स्वयंकृती।
लघुहस्तः शुचिः शूरः सज्जोपस्करभेषजः॥ १९
प्रत्युत्पन्नमतिर्धीमान् व्यवसायी विशारदः।
सत्यधर्मपरो यश्च स भिषक् पाद उच्यते॥ २० (सुश्रुतसंहिता)
अर्थ - वैद्य उसे कहते हैं जो ठीक प्रकार से शास्त्र पढ़ा हुआ, ठीक प्रकार से शास्त्र का अर्थ समझा हुआ, छेदन स्नेहन आदि कर्मों को देखा एवं स्वयं किया हुआ, छेदन आदि शस्त्र-कर्मों में दक्ष हाथ वाला, बाहर एवं अन्दर से पवित्र (रज-तम रहित), शूर (विषाद रहित) , अग्रोपहरणीय अध्याय में वर्णित साज-सामान सहित, प्रत्युत्पन्नमति (उत्तम प्रतिभा-सूझ वाला), बुद्धिमान, व्यवसायी (उत्साहसम्पन्न), विशारद (पण्डित), सत्यनिष्ट, धर्मपरायण हो।
  • दक्षस्तीर्थात्तशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा शुचिर्भिषक्।
वैद्य के चार लक्षण—१. दक्ष (चिकित्साकर्म में कुशल), २. तीर्थ (आचार्य) से शास्त्र (आयुर्वेदशास्त्र) के अर्थ को ग्रहण कर चुका हो। ३. दृष्टकर्मा (चिकित्सा की विधियों को जो अनेक बार देख चुका हो) और ४. जो शुचि (शरीर तथा आचरण से पवित्र) हो।
  • चिकित्सा के चार पादों में वैद्य सब में उत्तम (प्रधान) होता है, क्योंकि यदि वैद्य नहीं है तो अन्य तीन पाद गुणवान् होने पर भी अपना-अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाते। अतएव चिकित्सक को (च.सू. ९।१० में) विज्ञाता, शासिता, योक्ता तथा प्रधान कहा गया है। इन विशेषणों का तात्पर्य है—१. विज्ञाता अर्थात् औषधियों का जानकार, २. शासिता—परिचारक या परिचारकों से समयोचित कार्य कराने में सक्षम एवं कुशल और ३. योक्ता—रोगी को यह खाओ, यह पीओ आदि व्यवस्था देने में चतुर।
  • नात्मार्थं नाऽपि कामार्थं अतभूत दयां प्रतिः।
वतर्ते यश्चिकित्सायां स सर्वमति वर्तते ॥ (चरकसंहिता, चिकित्सास्थान १/४/५८)
जो अर्थ तथा कामना के लिए नहीं, वरन् भूतदया अर्थात् प्राणिमात्र पर दया की दृष्टि से चिकित्सा में प्रवृत्त होता है, वह सब पर विजय प्राप्त करता है।
  • प्रशस्तदेशसंभूतं प्रशस्तेऽहनि चोद्धृतम् ।
युक्तमात्रं मनस्कान्तं गन्धवर्णरसान्वितम् ॥२२
दोषध्नमग्लानिकरमविकारि विपर्यये ।
समीक्ष्य दत्तं काले च भेषजं पाद उच्यते ॥ २३ (सुश्रुतसंहिता)
अर्थ : उत्तम देश में उत्पन्न, प्रशस्त दिन में उखाड़ी गई, युक्तप्रमाण (युक्त मात्रा में), मन को प्रिय, गन्ध वर्ण रस से युक्त, दोषों को नष्ट करने वाली, ग्लानि न उत्पन्न करने वाली, विपरीत पड़ने पर भी स्वल्प विकार उत्पन्न करने वाली या विकार न करने वाली, देशकाल आदि की विवेचना करके रोगी को समय पर दी गई औषध गुणकारी होती है।
  • आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥ -- गर्गसंहिता
हे वनस्पति! आप मेरे लिये आयु, बल, वीर्य, यश, पुत्र, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान, और प्रज्ञा प्रदान करें।
  • शोधनं शमनं चेति समासादौषधं द्विधा।
संक्षिप्त रूप से औषध (चिकित्सा) दो प्रकार की होती है- १. शोधन अर्थात् वमन-विरेचन आदि विधियों से दोषों को निकालना शोधन कहा जाता है और २. शमन अर्थात् उभड़े हुए वात आदि दोषों को शान्त करने का उपचार।
  • शरीरजानां दोषाणां क्रमेण परमौषधम् ॥२५॥
बस्तिर्विरेको वमनं तथा तैलं घृतं मधु।
शारीरिक दोषों की चिकित्सा-शरीरसम्बन्धी दोषों की उत्तम चिकित्सा क्रमशः इस प्रकार है—वातदोष की चिकित्सा बस्ति-प्रयोग, पित्तदोष की चिकित्सा विरेचन-प्रयोग तथा कफदोष की चिकित्सा वमन-प्रयोग है तथा वातदोष में तैल, पित्तदोष में घृत और कफदोष में मधु का प्रयोग उत्तम शमन-चिकित्सा है।
वस्ति, विरेचन, वमन तथा तैल, घृत, मधु के प्रयोगों से क्रमशः वात, कफ दोषों का शमन हो जाता है और बुद्धि, धैर्य आदि से रजोगुण एवं तमोगुण जनित राग तथा क्रोध आदि की शान्ति हो जाती है।
  • मानसो ज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः। -- (चरक संहिता, सूत्रस्थानम्- 1.58)
मानस रोग ज्ञान (आत्मज्ञान), विज्ञान (सांसारिक ज्ञान / वैश्लेषिक ज्ञान), धैर्य, स्मृति और समाधि से शान्त होते हैं। (इन पाँचों व्याख्या अगले श्लोक में दी गयी है।)
ज्ञानम् अध्यात्मज्ञानं, विज्ञानं शास्त्रज्ञानं , धैर्यम् अनुन्नतिश्चेतसः, स्मृतिः अनुभूतार्थस्मरणं, समाधिः विषयेभ्यो निवर्त्यात्मनि मनसो नियमनम् -- चरकसंहिता सूत्रस्थान (?)
ज्ञान = अध्यत्मज्ञा ; विज्ञान = शास्त्रज्ञान ; धैर्य = स्थिर चित्त होना ; स्मृति = पूर्व में अनुभव किये गये अर्थों का स्मरण ; समाधि = विषयों से निवृत्ति और मन को अपने अन्दर लगाना।
  • धीधैर्यात्मादिविज्ञानं मनोदोषौषधं परम्॥२६॥
मानसिक (रजस् तथा तमस्) दोषों की उत्तम चिकित्सा है—बुद्धि तथा धैर्य से व्यवहार करना और आत्मादि विज्ञान (कौन मेरा है, क्या मेरा बल है, यह कौन देश तथा कौन मेरे हितैषी या सहायक हैं) का विचार कर कार्य करना।। २६।।
  • धीधृतिस्मृति विभ्रष्टः कर्मयत् कुरुत्ऽशुभम्।
प्रज्ञापराधं तं विद्यातं सर्वदोष प्रकोपणम्॥ (चरकसंहिता, शरीरस्थान १/१०२)
अर्थात् धी (बुद्धि), धृति (धैर्य) और स्मृति (स्मरण शक्ति) के भ्रष्ट हो जाने पर मनुष्य जब अशुभ कर्म करता है तब सभी शारीरिक और मानसिक दोष प्रकुपित हो जाते हैं। इन अशुभ कर्मों को 'प्रज्ञापराध' कहा जाता है। जो प्रज्ञापराध करेगा उसके शरीर और स्वास्थ्य की हानि होगी और वह रोगग्रस्त हो ही जाएगा।
  • सत्त्वं रजस्तम इति मानसाः स्युस्त्रयो गुणाः ।
तेषां गुणानां साम्यं यत्तदाहुः स्वस्थलक्षणम् ॥ -- महाभारत
सत्त्व, रजस् और तमस् - ये मन के तीन गुण होते हैं। इन गुणों की जो साम्यावस्था होती है उसको (मानसिक) स्वास्थ्य कहते है।

रोग के कारण, रोगपरीक्षा, निदान[सम्पादन]

  • कालार्थ कर्मणां योगो हीन मिथ्या अति मात्रकाः।
सम्यक योगश्च विज्ञेयो रोगारोग्यै कारणम्॥ -- अष्टाङ्गहृदयसूत्र -19
काल, अर्थ, और कर्म का हीनयोग, मिथ्या योग, अतियोग ही रोग का और सम्यक योग आरोग्य का कारण है।
  • रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम् ।
ततः कर्म भिषक् पश्चाज्ज्ञानपूर्वं समाचरेत् ॥
यस्तु रोगमविज्ञाय कर्माण्यारभते भिषक् ।
अप्यौषधविधानज्ञस्तस्य सिद्धिर्यदृच्छया ॥
यस्तु रोगविशेषज्ञः सर्वभैषज्यकोविदः ।
देशकालप्रमाणज्ञस्तस्य सिद्धिरसंशयम्॥ -- (चरकसंहिता, सूत्रस्थान, महारोगाध्याय २०,२१,२२)
आरम्भ में रोग की परीक्षा करनी चाहिये, उसके अनन्तर औषधि का निर्णय करना चाहिये। उसके बाद पूर्व में अर्जित वैद्यकीय ज्ञान का उपयोग करते हुए भिषक-कर्म करना चाहिये। जो भिषक और औषधिविधानज्ञ रोग को बिना जाने ही भिषक-कर्म शुरू कर देते हैं उनको संयोग से ही सफलता मिलती है (इसमें सफलता मिलना सुनिश्चित नहीं है)। किन्तु जो रोगों का विशेष जानकार है और सभी औषधियों में भी प्रवीण है, तथा जो देशकाल और प्रमाण को जानने वाला है, उसकी सिद्धि में कोई संशय नहीं है। (आयुर्वेद का मत है कि औषधि की मात्रा का निर्धारण स्थान के अनुसार, समय/ऋतु के अनुसार उर रोगी की स्थिति के अनुसार किया जाना चाहिये।) [१]
  • निदानं पूर्वरूपाणि रूपाण्युपशयस्तथा ।
सम्प्राप्तिश्चेति विज्ञानं रोगाणां पञ्चधा स्मृतम ॥ -- वाग्भटसंहिता/निदानस्थानम् [२]
रोगों को जानने के पाँच साधन हैं - निदान (origin etiology), पूर्वरूप, रूप, उपशय (diagnostics), सम्प्राप्ति (pathogenesis)।
  • दर्शनस्पर्शनप्रश्नैः परीक्षेत च रोगिणम्।
रोगं निदानप्राग्रूपलक्षणोपशयाऽऽप्तिभिः॥22॥ -- अष्टाङ्गहृदय
दर्शन (देखकर), स्पर्शन (छूकर), प्रश्न (पूछकर), निदान, पूर्व रूप, रूप, सम्प्राप्ति तथा उपशय - (आठ प्रकार) से रोगियों के रोग की परीक्षा करनी चाहिये।
  • षड्विधो हि रोगाणांविज्ञानोपायः तद्यथापञ्चभिः श्रोत्रादिभिः प्रश्नेन चेति । -- सुश्रुत
रोगों को जानने की पाँच विधियाँ हैं- कान आदि पाँच इद्रियों से, तथा प्रश्न द्वारा।
  • रोगाक्रान्तशरीस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत्।
नाड़ीं जिह्वां मलं मूत्रं त्वचं दन्तनखस्वरात्॥ -- भेलसंहिता
अर्थ - रोगाक्रान्त शरीर की आठ स्थानों से परीक्षा करनी चाहिये- नाड़ी, जिह्वा, मल, मूत्र, त्वचा, दाँत, नाखून औ स्वर।
रोगाक्रान्तशरीरस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत् ।
नाड़ीं मूत्रं मलं जिह्वां शब्दं स्पर्श दृगाकृती॥ -- योगरत्नाकर
  • यथादुष्टेन दोषेण यथा चानुविसर्पता।
निर्वृत्तिरामयस्यासौ सम्प्राप्तिर्जातिरागति:॥ -- अष्टांगहृदय ; माधवनिदानसंहिता
विविध खलु रोग विशेषज्ञानं भवति।
तद्यथा प्राप्तोपदेशः प्रत्यक्ष मनुमानचेति॥ -- सुश्रुत
पंचज्ञानेन्द्रियों से तथा छठवाँ प्रश्न के द्वारा अर्थात् नेत्रों से देखकर कान से सुनकर, नासिका से गंध लेकर, जिह्वा से रस जानकर, त्वचा से स्पर्श करके, प्रश्न द्वारा रोगी या उसके सम्बन्धी से रोगी की उम्र आदि सब जानकारी इनका ज्ञान करना इस षड्विध परीक्षा में प्रतिपाद्य है।
  • सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः ।
तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधाहितसेवनम् ॥ -- अष्टाङ्गहृदय/निदानस्थान ; भावप्रकाश/पूर्वखण्ड ; माधवनिदानसंहिता ; गरुडपुराण/आचारकाण्ड
सभी रोगों का मूल कारण (निदान) कुपित मल ही है और मल के प्रकोप का कारण विभिन्न प्रकार के अहितकर आहार-विहार का सेवन है।

चिकित्सा[सम्पादन]

  • या क्रिया व्याधिहरणी सा चिकित्सा निगद्यते ।
दोषधातुमलानां वा साम्यकृत्सैव रोगहृत॥ -- भावप्रकाश [३]
बढ़ी धातुओं व दोषो को घटाना, घटी हुई को बढ़ाना तथा साम्यावस्था वाले दोष धातु-मलो को साम्यावस्था में बनाये रखना ही चिकित्सा है।
  • याभिः क्रियाभिर्जायन्ते शरीरे धातवः समाः ।
सा चिकित्सा विकाराणां कर्म तदभिषजां मतम् ॥ -- चरकसंहिता सूत्रस्थान 16 / 34
जिस क्रिया के द्वारा रोग का नाश हो, और जिससे शरीर को धारण करने वाले दोष, धातु, और मलों की विषमता दूर होकर आरोग्य की स्थापना होती है, उसे चिकित्सा कहते हैं, इस चिकित्सा कर्म को करने वाले को चिकित्सक कहते हैं।
  • प्रयोगः शमयेत् व्याधिं योऽन्यं अन्यमुदीरयेत्।
नासौ विशुद्धः शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत् ॥ -- चरकसंहिता निदानस्थान ८/२३
जिस चिकित्सा के प्रयोग से एक रोग शान्त हो जाय किन्तु वह दूसरे रोगों को उत्पन्न करे, वह चिकित्सा शुद्ध नहीं है।
  • भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम्।
गुणवत् कारणं ज्ञेयं विकार व्युपशान्तये ॥ -- चरकसंहिता सूत्रस्थान 9 / 3
सभी प्रकार के विकारों को ठीक करने के लिए चार चरण (पाद) हैं - गुणवान चिकित्सक, गुणयुक्त द्रव्य (औषधियाँ), गुण-सम्पन्न उपस्थाता ( परिचारक) और गुणवान रोगी का होना परम आवश्यक है ।
  • भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम्।
चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम्॥ -- अष्टाङहृदयम् सूत्रस्थान
चिकित्सा की के चार पाद हैं- भिषक् (वैद्य), द्रव्य (औषधि एवं उपकरण), उपस्थाता (परिचारक), तथा रोगी। इसमें भी प्रयेक में चार गुण होने चाहिये।
  • बहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौषधम् ॥२८॥
औषध-द्रव्य के चार लक्षण- १. बहुकल्प (जो स्वरस, क्वाथ, फाण्ट, अवलेह, चूर्ण आदि अनेक रूपों में दिया जा सकता) हो, २. बहुगुण (जो औषध के सभी गुणों से सम्पन्न) हो, ३. सम्पन्न (अपने गुणों की सम्पत्ति से जो युक्त) हो और ४. योग्य (जो रोग-रोगी, देश, काल आदि के अनुकूल) हो।
  • अनुरक्तः शुचिर्दक्षो बुद्धिमान् परिचारकः।
परिचारक (उपस्थाता) के चार लक्षण- १. अनुरक्त (रोगी से स्नेह रखने वाला), २. शुचि (खान-पान, औषधि खिलाने, रखने आदि में साफ-सफाई रखने वाला), ३. दक्ष (कुशल) तथा ४. बुद्धिमान् (समयोचित सूझ-बूझ वाला) होना चाहिए।
  • आढ्यो रोगी भिषग्वश्यो ज्ञापकः सत्त्ववानपि ॥२९॥
रोगी के चार लक्षण- १. आढ्य (धन-जन आदि से सम्पन्न), २. भिषग्वश्य (वैद्य की आज्ञानुसार औषध तथा पथ्य सेवन करने वाला), ३. ज्ञापक (अपने सुख-दुःख कहने में सक्षम) तथा ४. सत्त्ववान् (मानसिक शक्तिसम्पन्न अर्थात् चिकित्साकाल में होने वाले कष्टों से न घबड़ाने वाला) हो। २९।।
  • विकारो धातुवैषम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते।
सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमेव च ॥ -- चरकसंहिता सूत्रस्थान ९/४
रसरक्तादि धातुओं का वैषम्य (abnormal) होना ही विकार (रोग) है और उनका साम्य (सामान्य होना) प्रकृति (स्वास्थ्य) है। (सुख-दुःख कुछ और नहीं हैं बल्कि) निरोग होना ही सुख है तथा रोगग्रस्त होना ही दु:ख कहलाता है।
  • श्रुते पर्यवदातत्त्वं बहुशो दृष्टकर्मता ।
  • दाक्ष्यं शौचमिति ज्ञेयं वैद्ये गुणचतुष्टयम् ॥ -- च०सू० 9 / 6
कुशल चिकित्सक में चार गुण होने चाहिए - शास्त्र का सर्वतोमुखी ज्ञान, अनेक बार उस कर्म का प्रत्यक्ष द्रष्टा होना का प्रत्यक्ष प्रष्टा होना, दक्षता ( कुशलता) और स्वच्छता ।
  • बहुता तत्र योग्यत्वमनेकविधकल्पना ।
सम्पच्चेति चतुष्कोऽयं द्रव्याणां गुण उच्यते ॥ -- च० सू० 9 /7
द्रव्य (औषधि) में चार गुण होने चाहिए - औषध द्रव्यों का पर्याप्त मात्रा में मिलना या होना, रोग को शांत करने की योग्यता (शक्ति) का होना, एक ही द्रव्य का अनेक विधि से निर्माण करना यथा - स्वरस, कल्क, फॉण्ट इत्यादि और उस द्रव्य (औषधि) में उसके स्वाभाविक सभी गुणों का होना।

विविध[सम्पादन]

  • ‘’युक्ताहारविहारस्य युक्ताचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥ -- गीता
जिसका आहार और विहार संतुलित हों, जिसका आचरण अच्छा हो, जिसका शयन, जागरण व ध्यान नियम नियमित हो, उसके जीवन के सभी दु:ख स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
  • आयु:कामयमानेन धर्मार्थं सुखसाधनम् ।
आयुर्वेदो उपदेशेषु विधेयः परमादरः॥ -- भावप्रकाश निघण्टु
आयुर्वेद के उपदेशों में परम् आदर का विधेय करना चाहिये (उसे श्रद्धापूर्वक मानना चाहिये) क्योंकि चार में से तीन पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम, जिससे प्राप्त होते हैं वह आयु (आरोग्य) है, उसके ही कारण ये पूर्ण होते हैं।
  • निदाने माधव श्रेष्ठः सूत्रस्थाने तु वाग्भटः ।
शारीरे सुश्रुतः प्रोक्तः चरकस्तु चिकित्सिते ॥
निदान में माधव श्रेष्ठ हैं, सूत्रस्थान में वाग्भट। शारीरस्थान में सुश्रुत और चिकित्सा में चरक ।
  • सुश्रुतो न श्रुतो येन वाग्भटो न च वाग्भटः।
नाधीतश्चरको येन स वैद्यो यमकिङ्करः॥
जिसने सुश्रुत का नाम नहीं सुना, जिसने वाग्भट की वाणी नहीं पढ़ी-सुनी-समझी, जिसने चरक के ग्रंथों का अध्ययन नहीं किया; - ऐसा वैद्य (चिकित्सक) यमदूत-तुल्य है।
  • कलौ वाग्भटनामातु गरिमात्र प्रदर्शिते।
वाग्भट्ट की गरिमा कलियुग के प्रमुख वैद्य के रूप में प्रदर्शित है।
  • शरीरं हि सत्त्वमनुविधीयते सत्त्वं च शरीरम्॥ (च.शा.४/३६)
अर्थ - शरीर सत्त्व का अनुसरण करता है और सत्त्व शरीर का।
  • प्राणः प्राण भूतानाम् अन्नः।
अर्थात् प्राणियों में प्राण आहार ही होता है।
  • अग्नि रक्षति रक्षितः
जो व्यक्ति अपने अंदर की अग्नि की रक्षा करता है, अग्नि उसकी रक्षा करती है (वह दीर्घायु होता है)।
  • सर्वेपि रोगाः जायन्ते मन्दे अग्नौ -- चरक संहिता
सब रोग मन्दाग्नि के कारण की होते हैं। अर्थात पाचन की खराबी के कारण होते हैं।
  • पित्तः पंगुः कफः पंगुः पंगवो मलधातवः।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत्॥
पवनस्तेषु बलवान् विभागकरणान्मतः।
रजोगुणमयः सूक्ष्मः शीतो रूक्षो लघुश्चलः॥ (शार्ङ्गधरसंहिता 5.25-26)
अर्थ - पित्त पंगु है, कफ पंगु है तथा मल और धातुएँ पंगु हैं। इन्हें वायु जहाँ ले जाती है, ये सभी बादल की भांति वहाँ चले जते हैं। अतएव इन तीनों दोषों-वात, पित्त एवं कफ में वात (वायु) ही बलवान् है; क्योंकि वह सब धातु, मल आदि का विभाग करनेवाला और रजोगुण से युक्त सूक्ष्म, अर्थात् समस्त शरीर के सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश करनेवाला, शीतवीर्य, रूखा, हल्का और चंचल है।
  • यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरीतकी।
कदाचिद् कुप्यते माता, नोदरस्था हरीतकी॥
अर्थात् जिसकी माता घर में नहीं है उसकी माता हरीतकी (हर्रे) है। माता तो कभी-कभी कुपित भी हो जाती है, परन्तु उदर में स्थित अर्थात् खायी हुई हरड़ कभी भी कुपित (अपकारी) नहीं होती।
  • सुखं शेते सत्यवक्ता सुखं शेते मितव्ययी।
हितभुक् मितभुक् चैव तथैव विजितेन्द्रियः ॥ -- चरकसंहिता
अर्थ - सत्य बोलनेवाला, कम व्यय करनेवाला, हितकारक पदार्थ आवश्यक प्रमाण मे खानेवाला, तथा जिसने इन्द्रियों पर विजय पाया है, वह चैन की नींद सोता है।
  • दिनचर्या निशाचर्यामृतुचर्या यथोदितान् ।
आचरन् पुरुषः स्वस्थः सदा तिष्ठति नान्यथा ॥ -- भावप्रकाश
दिनचर्या का, रात्रिचर्या का तथा ऋतुचर्या का जो पुरुष उसी प्रकार से पालन करता है जैसा शास्त्रों में वर्णित किया गया है तो वह सदा स्वस्थ रहता है, अन्यथ नहीं।
  • अल्पमात्रोपयोगित्वादरुचेरप्रसंगतः।
क्षिप्रमारोग्यदायित्वादौषधेभ्योऽधिको रसः॥
अर्थ- अपनी तीन मौलिक विशेषताओं के कारण रस-चिकित्सा सर्वोत्तम हैं, (१) अल्पमात्रा में प्रयोग, (२) स्वाद में रुचिपूर्णता, और (३) शीघ्रातिशीघ्र रोगनाशक।
  • अनुपानं हितं युक्तं तर्पयत्याशु मानवम्।
सुख पचति चाहारमायुषे च बलाय च॥ -- चरकसंहिता, सूत्रस्थान 27/326
अनुपान शरीर को तृप्त करता हैं, मन को प्रसन्न करता हैं, शरीर को ऊर्जा देता हैं, शरीर का वृंहण करता हैं, खाए हुये पदार्थों को आमाशय से नीचे की ओंर ले जाता हैं, अन्न को छोटे-छोटे टुकड़ों तोडता हैं, अन्न में मृदुता उत्पन्न करता हैं, भोजन को गीला करता हैं, भोजन का पाचन करता हैं, भोजन को सुखपूर्वक पचाकर आहार-रस को शीघ्र ही सम्पूर्ण शरीर में फैलने योग्य बनाता हैं। उचित रूप से अनुपान लेने पर मनुष्य तृप्त हो जाता हैं तथा आहार को विना कष्ट के अच्छी तरह पचाता हैं जिससे आयु एवं बल की वृद्धि होती हैं। (औषधि या भोज्य पदार्थों के सेवन के साथ या पश्चात् जो द्रव (शीत-उष्ण जल , दुग्ध, तक्र्र , स्वरस, क्वाथ , मद्य, काशी, घृत, तैलादि ) पदार्थ पान किया जाता हैं, उसे अनुपान कहते हैं।)[४]
  • दिनान्ते च पिबेद् दुग्धं निशान्ते च जलं पिबेत् ।
भोजनान्ते पिबेत् तक्रं वैद्यस्य किं प्रयोजनम् ॥ --
भावार्थ : जो प्रातकाल उठकर जलपान करता है, रात्रि को भोजनोपरान्त दुग्धपान तथा मध्याह्न में भोजन के बाद छाछ पीता है, उसे वैद्य की आवश्यकता नहीं होती।
  • भुक्त्वोपविशतः स्थौल्यं शयानस्य रूजस्थता।
आयुश्चक्र माणस्य मृत्युर्धावितधावत:॥
अर्थात् भोजन करने के पश्चात एक ही जगह बैठे रहने से स्थूलत्व आता है । जो व्यक्ति भोजन के बाद चलता है उसक आयु में वृद्धि होती है और जो भागता या दौड़ लगाता है, उसकी मृत्यु समीप आती है।
  • भुक्त्वा शतपदं गच्छेत्।
अर्थात् भोजन के बाद सौ कदम चलन चाहिए।
  • अत्यम्बुपानाद् विषमाशनाच्च दिवा शयाद् जागरणाच्च रात्रौ।
संरोधनाद्मूत्रपुरीषयोश्च, षड्भिः प्रकारैः प्रभवन्ति रोगाः॥
रोग छः प्रकार से उत्पन्न होते हैं- अधिक जल पीने से, विषम वस्तुएँ खाने से, दिन में सोने से, रात में जागने से, मल मूत्र को अनावश्यक रोकने से।
  • तेभ्योऽतिविप्रकीर्णेभ्यः प्रायः सारतरोच्चयः ।
क्रियतेऽष्टाङ्गहृदयं नातिसङ्क्षेपविस्तरम् ॥ -- अष्टाङ्गहृदयम् - ४
इधर-उधर (प्रकीर्ण) विक्षिप्त उन प्राचीन तन्त्रों में से उत्तम से उत्तम (सार) भाग को लेकर यह संग्रह किया गया है। इस संग्रह ग्रंथ का नाम अष्टांगहृदय है। इसमें वर्णित विषय न अत्यन्त संक्षेप से और न अत्यन्त विस्तार से कहे गये हैं।
  • सञ्चयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थानसंश्रयम् ।
व्यक्तिं भेदं च यो वेत्ति दोषानां स भवेदभिषक ॥ -- सुश्रुतसंहिता 21.36
जो दोषों के संचय, प्रकोप तथा प्रसारकाल को, स्थानसंश्रय को तथा रोगी व्यक्ति के भेदों (पूर्वरूप, रूप) को जानता है, उसे ही रोगों का चिकिसक बनना चाहिये।

आयुर्वेद पर लोगों के विचार[सम्पादन]

  • आयुर्वेद योग की सिस्टर फिलॉसफी है। ये जीवन या दीर्घायु होने का विज्ञान है और ये हमें प्रकृति की शक्तियों, चक्र और तत्वों के बारे में भी सिखाता है। -- क्रिस्टी टरलिंग्टन
  • आयुर्वेद में सिद्धांत है कि कुछ भी भोजन, दवा, या ज़हर हो सकता है, निर्भर करता है कि कौन खा रहा है, क्या खा रहा है, और कितना खा रहा है। इस सन्दर्भ में एक प्रचलित कहावत है: “एक आदमी का खाना दूसरे आदमी का ज़हर है। -- सेबेस्टियन पोल
  • आयुर्वेद हमें “जैसा है” वैसे प्यार करना सिखाता है- ना कि जैसा हम सोचते हैं लोग “होने चाहिएं। -- लीजा कॉफे
  • आयुर्वेद के बारे में एक बहुत अच्छी बात ये है कि इसके उपचार से हमेशा साइड बेनिफिट्स होते हैं, साइड इफेक्ट्स नहीं। -- शुभ्रा कृष्ण
  • कोई भी दवा अन-हेल्दी लिविंग की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकती है। -- रेणु चौधरी
  • जब आहार गलत हो, दवा किसी काम की नहीं है; जब आहार सही हो, दवा की कोई ज़रुरत नहीं है। -- आयुर्वेदिक कहावत
  • सामान्यतया, आयुर्वेद चावल, गेहूं, जौ, मूंग दाल, शतावरी, अंगूर, अनार, अदरक, घी (मक्खन), क्रीम दूध और शहद को सबसे अधिक लाभकारी खाद्य पदार्थ मानता है। -- सेबेस्टियन पोल
  • अपने परमानन्द का अनुसरण करना और खुशबु, रंग,एवं स्वाद के रहस्य में गोता लगाना; प्रकृति माँ की शानदार विविधता में खो जाना, और भीतरी चिन्हों का अनुगमन करके जानना कि हम सचमुच कौन हैं – यही आयुर्वेदिक पाकशास्त्र का विज्ञान है। -- प्राण गोगिया
  • क्योंकि हम अपने अंदरुनी शरीर को स्क्रब नहीं कर सकते हमें अपने ऊतकों, अंगों, और मन को शुद्ध करने कुछ उपाय सीखने होंगे। ये आयुर्वेद की कला है। -- सेबस्टियन पोल
  • अच्छे स्वास्थ्य के लिए जो आयुर्वेदिक मार्ग है उसमे दो सरल कदम शामिल हैं: कम करना; अधिक होना। -- शुभ्रा कृष्ण
  • आयुर्वेद हमें हमारी सहज-प्रकृति को संजोना सिखाता है- “हम जो हैं उससे प्रेम करना, उसका सम्मान करना”, वैसे नही जैसा लोग सोचते हैं या कहते हैं, “हमे क्या होना चाहिए। -- प्राण गोगिया
  • आयुर्वेद जैसा कि नाम में निहित है (‘आयु’: “जीवन” और ‘वेद’: “ज्ञान”) स्वस्थ्य रहने का ज्ञान है और सिर्फ बीमारी के इलाज तक सिमित नहीं है। -- शरदिनी, उर्मिला
  • समय बदल रहा है और न सिर्फ भारत के नीति निर्माता, बल्कि पूरी दुनिया आयुर्वेद के महत्व को समझ रही है। कुछ साल पहले कौन सोच सकता था कि महानगरीय संस्कृति में पले-बढे लोग निकट भविष्य में कार्बोनेटेड शीतल पेय से अधिक लौकी का रस या करौंदे का रस पसंद करेंगे। -- आचार्य बालकृष्ण
  • योग का विज्ञान और आयुर्वेद; चिकित्सा विज्ञान की तुलना में सूक्ष्म हैं, क्योंकि अकसर चिकित्सा विज्ञान सांख्यिकीय गड़बड़ी का शिकार हो जाता है। -- अमित रे
  • आयुर्वेद का यही लक्ष्य है कि स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को बरकरार रखा जाए और बीमार व्यक्ति को ठीक कर दिया जाए।
  • आयुर्वेद केवल कुछ दवाएं या कुछ शास्त्र नहीं हैं, बल्कि एक समग्र समग्र जीवन शैली है जो योग, ध्यान, भोजन की आदतों और स्वदेशी सामाजिक संस्कृतियों से गहराई से जुड़ी हुई है।
  • एक आयुर्वेदिक शिक्षार्थी के रूप में, मेरा मानना ​​है कि कैंसर जैसी बीमारियों का प्रचलन आज अधिक बढ़ रहा है क्योंकि हम एक समाज के रूप में अपने दैनिक जीवन की परिस्थितियों के प्रति गलत रवैया अपना रहे हैं।
  • शांत रहो और आसक्ति और घृणा की जड़ों को जीतो। अर्थात जुड़ाव की असल जड़ों को पहचानों।
  • हमारा कल्याण हमारे व्यवहार, जीवन शैली और मन की स्थिति पर निर्भर करता है। आयुर्वेद और योग हमें हमारे शारीरिक, मानसिक और शारीरिक कल्याण को मजबूत करके हमारे जीवन में कल्याण की हमारी पूरी क्षमता को प्रकट करने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।
  • वैदिक ज्ञान एक आधुनिक पुनर्जागरण ला रहा है जो पहले ही शुरू हो चुका है।
  • प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सा वास्तव में अति आधुनिक, अत्याधुनिक एकीकृत क्षेत्र आधारित औषधि है
  • जीवन (आयु) शरीर, इंद्रियों, मन और पुनर्जन्म आत्मा का संयोजन (संयोग) है। आयुर्वेद जीवन का सबसे पवित्र विज्ञान है, जो इस दुनिया में और दुनिया के बाहर इंसानों के लिए फायदेमंद है।
  • भोजन, नींद और ब्रह्मचर्य से संबंधित स्वस्थ आदतें किसी के जीवन की पूरी अवधि के लिए अच्छे रंग, विकास और पूर्ण स्वास्थ्य की ओर ले जाती हैं।
  • योग और आयुर्वेद का विज्ञान चिकित्सा विज्ञान की तुलना में सूक्ष्म है, क्योंकि चिकित्सा विज्ञान अक्सर सांख्यिकीय हेरफेर का शिकार होता है।
  • ध्यान हमारे बढ़ने के इरादे का प्रतीक और अभिव्यक्ति दोनों है। अपने विचारों और भावनाओं के साथ अकेले बैठे हुए, हम छूटे हुए अवसरों, गुजर रही इच्छाओं, याद की गई निराशाओं के साथ-साथ अपनी आंतरिक शक्ति, व्यक्तिगत ज्ञान और क्षमा करने और प्यार करने की क्षमता का सम्मान कर सकते हैं।
  • वास्तव में एलोपैथिक चिकित्सा को वैकल्पिक चिकित्सा कहा जाना चाहिए। जैसा कि आयुर्वेद अधिक समग्र, सिद्ध, समय परीक्षण, कम दुष्प्रभाव, और एलोपैथी से पुराना है।

इन्हें भी देखें[सम्पादन]

बाहरी कड़ियाँ[सम्पादन]

सन्दर्भ[सम्पादन]