महर्षि चरक
दिखावट
महर्षि चरक आयुर्वेद के प्रतिसंस्कर्ता माने जाते हैं।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- शास्त्रं ज्योतिः प्रकाशार्थं दर्शनं बुद्धिः आत्मनः ।
- ताभ्यां भिषक् सुयुक्ताभ्यां चिकित्सत् न अपराध्यति ॥ -- चरकसंहिता
- शास्त्र ज्योति के समान होते हैं जो (वस्तुओं को) प्रकाशित करता है। बुद्धि आँख के समान है। इन दोनों से युक्त वैद्य चिकित्सा करते समय गलती नहीं करता।
- आयुरस्मिन् विद्यते अनेन वा आयुर्विन्दतीत्यायुर्वेदः। (चरकसूत्र १/१३)
- अर्थ- जिसमें आयु है या जिससे आयु का ज्ञान प्राप्त हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं।
- शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगो धारि जीवितम्।
- शरीर, इन्द्रियों, शक्ति तथा आत्मा का संयोग ही 'जीवित' या आयु कहलाता है।
- हिताहितं सुखं दुःखं आयुस्तस्य हिताहितम् ।
- मानं च तच्च यत्रोक्तं आयुर्वेदः स उच्यते ॥ (चरकसूत्र ३.४१) ॥
- अर्थात् हितायु, अहितायु, सुखायु एवं दुःखायु; इस प्रकार चतुर्विध जो आयु है उस आयु के हित तथा अहित अर्थात् पथ्य और अपथ्य आयु का प्रमाण एवं उस आयु का स्वरूप जिसमें कहा गया हो, वह आर्युवेद कहा जाता है।
- धर्मार्थकाममोक्षाणाम् आरोग्यं मूलमुत्तमम् । -- चरकसंहिता सूत्रस्थानम् - १.१४
- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल (जड़) उत्तम आरोग्य ही है।
- ब्रह्मचारिणा श्मश्रुधारिण सत्यवादिनाऽमांसादेन मेध्यसेविना निर्मत्सरेणाशस्त्रधारिणा च भवितव्यं, न च ते मद्वचनात् किञ्चिदकार्यं स्यादन्यत्र राजद्विष्टात् प्राणहराद्विपुलादधर्म्यादनर्थसम्प्रयुक्ताद्वाऽप्यर्थात्; -- चरक द्वारा प्रतिपादित शपथ का भाग, जो वैद्यकीय विद्यार्थी के लिये आवश्यक बतायी गयी है।
- तू ब्रह्मचारी का जीवन बितायेगा, अपने बाल और दाढ़ी बढ़ाएगा, केवल सत्य भाषण ही करेगा। माँस नहीं खाएगा, आहार में केवल शुद्ध वस्तुएँ ही लेगा, ईर्ष्या से मुक्त रहेगा तथा कोई हथियार धारण नहीं करेगा। राजा के प्रति घृणा अथवा किसी अन्य की मृत्यु अथवा कोई भी अधार्मिक कृत्य अथवा विनाश उत्पन्न करने वाले कृत्यों को छोड़ तू सभी अन्य कार्य मेरे आदेश पर ही करेगा।
- आहार, स्वप्न ( नींद ) और ब्रह्मचर्य इस शरीर के तीन स्तम्भ हैं।
- धी धृति स्मृति विभ्रष्टः कर्मयत् कुरुत्ऽशुभम्।
- प्रज्ञापराधं तं विद्यातं सर्वदोष प्रकोपणम्॥ (चरकसंहिता, शरीरस्थान १/१०२)
- अर्थात् धी (बुद्धि), धृति (धैर्य) और स्मृति (स्मरण शक्ति) के भ्रष्ट हो जाने पर मनुष्य जब अशुभ कर्म करता है तब सभी शारीरिक और मानसिक दोष प्रकुपित हो जाते हैं। इन अशुभ कर्मों को 'प्रज्ञापराध' कहा जाता है। जो प्रज्ञापराध करेगा उसके शरीर और स्वास्थ्य की हानि होगी और वह रोगग्रस्त हो ही जाएगा।
- नात्मार्थं नाऽपि कामार्थं अतभूत दयां प्रतिः।
- वतर्ते यश्चिकित्सायां स सर्वमति वर्तते ॥ (चरकसंहिता, चिकित्सास्थान १/४/५८)
- जो अर्थ तथा कामना के लिए नहीं, वरन् भूतदया अर्थात् प्राणिमात्र पर दया की दृष्टि से चिकित्सा में प्रवृत्त होता है, वह सब पर विजय प्राप्त करता है।
- सुखं शेते सत्यवक्ता सुखं शेते मितव्ययी।
- हितभुक् मितभुक् चैव तथैव विजितेन्द्रिय: ॥ -- चरकसंहिता
- सत्य बोलनेवाला, कम व्यय करनेवाला, हितकारक पदार्थ आवश्यक प्रमाण मे खानेवाला, तथा जिसने इन्द्रियों पर विजय पाया है, वह चैन की नींद सोता है।
- शरीरं हि सत्त्वमनुविधीयते सत्त्वं च शरीरम्॥ (च.शा.४/३६)
- शरीर सत्त्व का अनुसरण करता है और सत्त्व शरीर का।
- अनुपानं हितं युक्तं तर्पयत्याशु मानवम्।
- सुख पचति चाहारमायुषे च बलाय च॥ (च सू 27/326)
- दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः।
- जिता संशोधनैर्ये तु न तेषां पुनरुद्भवः॥ (च.सू.१६/२०-२१)
- संशमन चिकित्सा से नष्ट हुए रोग पुनः उत्पन्न हो सकते हैं किन्तु संशोधन द्वारा नष्ट हुए रोग पुनः उत्पन्न नहीं होते।
- विकारनामाकुशलो न जिह्रीयात् कदाचन। न हि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः ॥४४॥
- स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः। स्थानान्तरगतश्चैव जनयत्यामयान् बहून् ॥४५॥
- तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्ठानान्तराणि च। समुत्थानविशेषांश्च बुद्ध्वा कर्म समाचरेत् ॥४६॥
- यो ह्येतत्त्रितयं ज्ञात्वा कर्माण्यारभते भिषक् । ज्ञानपूर्वं यथान्यायं स कर्मसु न मुह्यति ॥४७॥ -- (च.सू.१८/४४-४७)
- किसी विकार का नाम बताने में अकुशल को लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिये क्योंकि सभी विकारों का नाम नाम नहीं दिया जा सकता। विकार असंख्य हैं क्योंकि वही दोष कुपित होने पर स्थान और हेतु के अनुसार भिन्न-भिन्न रोग उत्पन्न करता है। इसलिये विकार के स्थानान्तर और समुत्थानविशेष की प्रकृति का पूर्ण निर्धारण करने के बाद ही चिकित्सा आरम्भ करनी चाहिये। जो वैद्य ऐसा करता है, वह चिकित्सा कर्म में गलती नहीं करता।
- रोगमादौ परीक्षेत ततोनन्तरं औषधम् ।
- ततः कर्म भिषक् पश्चात् ज्ञानपूर्वं समाचरेत् ॥
- यस्तुरोगं अविज्ञाय कर्मान्यरभते भिषक।
- अपि औषधविधानज्ञः तस्य सिद्धि यद्रच्छया ॥
- यस्तु रोगविशेषज्ञः सर्वभैषज्यकोविदः।
- देशकालप्रमाणज्ञः तस्य सिद्धिरसंशयम् ॥ (चरकसंहिता, सूत्रस्थान, २०/२०,२१,२२)
- चिकित्सा के पूर्व परीक्षा अत्यन्त आवश्यक है। परीक्षा की जहां तक बात आती है तो परीक्षा रोगी की भी होती है और रोग की भी। रोग-रोगी दोनों की परीक्षा करके उनका बलाबल ज्ञान करके ही सफल चिकित्सा की जा सकती है।
चरक और चरकसंहिता के बारे में कथन
[सम्पादन]- औषध विज्ञान की हिन्दुओं की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक चरक सहिंता है। -- अलबरूनी
- यस्य द्वादशसाहस्री हृदि तिष्ठति संहिता।
- सोऽर्थज्ञः स विचारज्ञश्चिकित्साकुशलश्च सः॥
- रोगांस्तेषां चिकित्सां च स किमर्थं न बुध्यते।
- चिकित्सा वह्निवेशस्य सुस्थातुरहितं प्रति॥
- यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्ववित्। (च.सि.१२/५२-५३)