तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ -- (भोजन मन्त्र) कृष्ण यजुर्वेद
हम दोनों (गुरु और शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों का साथ-साथ पालन करें। हम दोनों को साथ-साथ वीर्यवान (पराक्रमी) बनाएं। हम जो कुछ पढ़ते हैं, वह तेजस्वी हो। हम गुरु और शिष्य एक दूसरे से द्वेष न करें।
नदियाँ बहें और बादल बरसें। औषधीय पौधे फलें-फूलें और सभी पेड़ फल दें। मैं चावल और दुग्ध आदि पैदा करने वाले लोगों का हितैषी बनूं। थाली में परोसा गया पका हुआ भोजन ईश्वर की ओर से एक उपहार है जिसके सेवन से उच्चतम स्तर की समृद्धि और कल्याण होगा।
मनुष्य के शरीर-मन आदि के जितने रोग हैं; अगर मनुष्य युक्त आहार, युक्त विहार व युक्त चेष्टाएं करे, तो उसे कोई दुःख व रोग नहीं होगा । परन्तु हम भगवान के बताए गए रास्ते पर चल नहीं पाते हैं । हम अयुक्त आहार करते हैं, अयुक्त विहार करते हैं और अयुक्त चेष्टाएं करते हैं; इसलिए दु:ख पाते हैं।
जो भोजन सात्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा ह्रदय को भाने वाला होता है।
अत्यधिक तिक्त (कड़वे), खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क, तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।
कौन स्वस्थ है, कौन स्वस्थ है, कौन स्वस्थ है? (जो) हितकर भोजन करता है, जो कम भोजन करता है, जो सच्चाई का अन्न खाता है।
जीर्णे भोजनमात्रेयः लङ्घनं परमौषधम् ।
भावार्थ : पूर्वभोजन के जीर्ण होने पर ही भोजन करना चाहिए। यदि कभी प्रमाद से अजीर्ण हो जाए तो लंघन (उपवास) उसकी परम औषधि है।
हिताहारा मिताहारा अल्पाहाराश्च ये जनाः।
न तान् वैद्याश्चिकत्सन्ति आत्मनस्ते चिकित्सकाः॥ -- महर्षि चरक
अर्थात् जो व्यक्ति हिताहारी (हितकर आहार करने वाले), मिताहारी (परिमित, नपा तुला, न अधिक न कम आहार करने वाले) तथा कभी- कभी अल्पाहारी (कम भोजन या उपवास करने वाले) होते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य लोग नहीं करते, प्रत्युत वे अपने चिकित्सक स्वयं होते हैं।
जठराग्नि आहार को पचाती है, यदि उसे आहार नहीं मिले तो बढ़े हुए दोषों को पचाती है, नष्ट करती है। दोषों के क्षीण होने पर भी उपवास किया जाएगा तो जठराग्नि रस-रक्त आदि धातुओं को जलाने लगती है व शरीर कृश होने लगता है तथा अन्त में जीवन को नष्ट कर देती है। (अतः उतना उपवास या अल्पाहार करना चाहिए जिससे दोष तो नष्ट हो जाएं, परन्तु शरीर की क्षीणता का अवसर न आए।)
कठोर श्रम से जीविकोपार्जन करने वाले दरिद्र लोग सदा स्वादिष्ठ भोजन करते हैं, क्योंकि भूख स्वाद पैदा कर देती है और वह धनी लोगों में प्रयः दुर्लभ होती है।
हितकर और अहितकर भोजन को मिलकर खाना (समशन), कभी अधिक कभी कम या कभी समय पर कभी असमय खाना (विषमाशन) या पहले खाये हुये भोजन के बिना पचे ही पुनः खाना (अध्यशन) शीघ्र ही अनेक बीमारियों को जन्म दे देते हैं।
सुबह खाने के बाद जब तक तेज भूख न लगे तब तक दुबारा अन्न नहीं खाना चाहिये। पहले का खाया हुआ अन्न विदग्ध हो जाता है और ऐसी दशा में फिर खाने वाला इंसान अपनी पाचकाग्नि को नष्ट कर लेता है।
पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। (इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों का शरीर के परिप्रेक्ष्य में गुण-धर्म का ध्यान रखते हुये यहाँ दिये गये महावाक्यों के अनुरूप ही भोजन करने का लाभ है।)