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अन्न

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यहाँ अन्न, आहार, भोजन आदि से सम्बन्धित सूक्तियाँ दी गयीं हैं।

उक्तियाँ

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  • सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यम् करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ -- (भोजन मन्त्र) कृष्ण यजुर्वेद
हम दोनों (गुरु और शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों का साथ-साथ पालन करें। हम दोनों को साथ-साथ वीर्यवान (पराक्रमी) बनाएं। हम जो कुछ पढ़ते हैं, वह तेजस्वी हो। हम गुरु और शिष्य एक दूसरे से द्वेष न करें।
  • ॐ यन्तु नद्यो वर्षन्तु पर्जन्या सुपिप्पला ओषधयो भवन्तु ।
अन्नवतां ओदनवतां मामिक्षवतां एषां राजा भूयासम् ॥
ओदनमुत्ब्रुवते परमेष्ठीवा एष यदोदनः ।
परमामेवैनं श्रियं गमयति ॥ -- बौधायन श्रौत सूत्र १८-१८-१९ (भोजन मन्त्र)
नदियाँ बहें और बादल बरसें। औषधीय पौधे फलें-फूलें और सभी पेड़ फल दें। मैं चावल और दुग्ध आदि पैदा करने वाले लोगों का हितैषी बनूं। थाली में परोसा गया पका हुआ भोजन ईश्वर की ओर से एक उपहार है जिसके सेवन से उच्चतम स्तर की समृद्धि और कल्याण होगा।
  • मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुत स्वसा ।
सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ॥३॥ -- अथर्ववेद/काण्ड ३/सूक्त ३० (भोजन मन्त्र)
भाई, भाई से द्वेष न करे। बहन, बहन से द्वेष न करे। समान गति से एक-दूसरे का आदर-सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर (अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर) भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
  • पृथिव्यां त्रिणी रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल, अन्न और सुभाषित
  • युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ॥ -- गीता
मनुष्य के शरीर-मन आदि के जितने रोग हैं; अगर मनुष्य युक्त आहार, युक्त विहार व युक्त चेष्टाएं करे, तो उसे कोई दुःख व रोग नहीं होगा । परन्तु हम भगवान के बताए गए रास्ते पर चल नहीं पाते हैं । हम अयुक्त आहार करते हैं, अयुक्त विहार करते हैं और अयुक्त चेष्टाएं करते हैं; इसलिए दु:ख पाते हैं।
  • आयुः सत्त्ववला रोग्यसुखप्रीतिविवर्धनः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विकप्रियाः॥ -- गीता, अध्याय 17, श्लोक 8
जो भोजन सात्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा ह्रदय को भाने वाला होता है।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णंरूक्षविदाहि
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥ -- गीता, अध्याय 17, श्लोक 9
अत्यधिक तिक्त (कड़वे), खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क, तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।
  • सम्पन्नतरमेवान्नं दरिद्रा भुञ्जते सदा।
क्षुत् स्वादुतां जनयति सा चैवाढ्येषु दुर्लभा॥ (विदुरनीतित- २.५१)
कठोर श्रम से जीविकोपार्जन करने वाले दरिद्र लोग सदा स्वादिष्ठ भोजन करते हैं, क्योंकि भूख स्वाद पैदा कर देती है और वह धनी लोगों में प्रयः दुर्लभ होती है।
  • अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनम् ।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥ -- प्राच्य-शिक्षा-रहस्य
अति भोजन आरोग्यता और आयु को नाश करनेवाला है, और स्वर्ग के कारणभूत यज्ञादिकों का विरोधी होने से स्वर्ग का भी नाश करनेवाला है, पापरूप है और लोक में निन्दित है। इससे अति भोजन का त्याग करे (अर्थात् बहुत कभी न खावे)।
  • आरोग्यं भोजनाधीनम्। -- काश्यपसंहिता, खि० 5.9
आरोग्य भोजन के अधीन होता है।
  • जीर्णे हितं मितं चाद्यात् -- चरकसंहिता []
पूर्वभोजन के जीर्ण होने (पचने) पर ही हितकर व मित (अल्प) भोजन करना चाहिए।
  • कोऽरुक् कोऽरुक् कोऽरुक् ? हितभुक् मितभुक् ऋतभुक् ।
कौन स्वस्थ है, कौन स्वस्थ है, कौन स्वस्थ है? (जो) हितकर भोजन करता है, जो कम भोजन करता है, जो सच्चाई का अन्न खाता है।
  • जीर्णे भोजनमात्रेयः लङ्घनं परमौषधम् ।
भावार्थ : पूर्वभोजन के जीर्ण होने पर ही भोजन करना चाहिए। यदि कभी प्रमाद से अजीर्ण हो जाए तो लंघन (उपवास) उसकी परम औषधि है।
  • हिताहारा मिताहारा अल्पाहाराश्च ये जनाः।
न तान् वैद्याश्चिकत्सन्ति आत्मनस्ते चिकित्सकाः॥ -- महर्षि चरक
अर्थात् जो व्यक्ति हिताहारी (हितकर आहार करने वाले), मिताहारी (परिमित, नपा तुला, न अधिक न कम आहार करने वाले) तथा कभी- कभी अल्पाहारी (कम भोजन या उपवास करने वाले) होते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य लोग नहीं करते, प्रत्युत वे अपने चिकित्सक स्वयं होते हैं।
  • आहारमग्निः पचति दोषानाहारवर्जितः।
धातून् क्षीणेषु दोषेषु जीवितं धातुसंक्षये॥ (अष्टाङ्गहृदय, चिकित्सास्थान-१०.९१)
जठराग्नि आहार को पचाती है, यदि उसे आहार नहीं मिले तो बढ़े हुए दोषों को पचाती है, नष्ट करती है। दोषों के क्षीण होने पर भी उपवास किया जाएगा तो जठराग्नि रस-रक्त आदि धातुओं को जलाने लगती है व शरीर कृश होने लगता है तथा अन्त में जीवन को नष्ट कर देती है। (अतः उतना उपवास या अल्पाहार करना चाहिए जिससे दोष तो नष्ट हो जाएं, परन्तु शरीर की क्षीणता का अवसर न आए।)
  • नाप्रक्षालितपाणिपादवदनो' -- चरकसंहिता, सूत्रस्थान 8.20
बिना हाथ, पाँव व मुंह धोए (भोजन नहीं करना चाहिये)।
  • नाशुद्धमुखो -- चरकसंहिता, सूत्रस्थान 8.20
अशुद्ध मुंह से (भोजन नहीं लेना चाहिये)।
  • न कुत्सयन्न कुत्सितं न प्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत -- चरकसंहिता, सूत्रस्थान 8.20
दूषित अन्न या भोजन या दुश्मन या विरोधियों द्वारा दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।
  • आदौ फलानि भुञ्जीत -- चरकसंहिता, सूत्रस्थान
भोजन के प्रारम्भ में फल खाना चाहिये।
  • हिताहितोपसंयुक्तमन्नं समशनं स्मृतम्। बहु स्तोकमकाले वा तज्ज्ञेयं विषमाशनम्।। अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनमुच्यते। त्रयमेतन्निहन्त्याशु बहून्व्याधीन्करोति वा॥ -- सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान 46.494
हितकर और अहितकर भोजन को मिलकर खाना (समशन), कभी अधिक कभी कम या कभी समय पर कभी असमय खाना (विषमाशन) या पहले खाये हुये भोजन के बिना पचे ही पुनः खाना (अध्यशन) शीघ्र ही अनेक बीमारियों को जन्म दे देते हैं।
  • प्राग्भुक्ते त्वविविक्तेऽग्नौ द्विरन्नं न समाचरेत्। पूर्वभुक्ते विदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम्। -- सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान 46.492-493
सुबह खाने के बाद जब तक तेज भूख न लगे तब तक दुबारा अन्न नहीं खाना चाहिये। पहले का खाया हुआ अन्न विदग्ध हो जाता है और ऐसी दशा में फिर खाने वाला इंसान अपनी पाचकाग्नि को नष्ट कर लेता है।
  • भुक्त्वा राजवदासीत यावदन्नक्लमो गतः। ततः पादशतं गत्वा वामपार्श्वेन संविशेत्॥ -- सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान 46.487
भोजन के बाद राजा की तरह सीधा तन कर बैठना चाहिये ताकि भोजन का क्लम हो जाये। फिर सौ कदम चल कर बायें करवट लेट जाना चाहिये।
  • उष्णमश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.1
उष्ण आहार करना चाहिये। (गरम खाना खाना चाहिये)
  • स्निग्धमश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.2
स्निग्ध भोजन करना चाहिये।
  • मात्रावदश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.3
मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिये। (भोजन आवश्यकता से कम या अधिक नहीं करना चाहिये।)
  • जीर्णेऽश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.4
पूर्व में ग्रहण किये भोजन के जीर्ण होने या पच जाने के बाद ही भोजन करना चाहिये।
  • वीर्याविरुद्धमश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.5
वीर्य के अनुकूल भोजन करना चाहिये। अर्थात् विरुद्ध वीर्य वाले खाद्य-पदार्थों, जैसे दूध और खट्टा अचार आदि को मिलाकर नहीं खाना चाहिये।
  • इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.6
मन के अनुकूल स्थान और सामग्री के साथ भोजन करना चाहिये। अभीष्ट सामग्री के साथ भोजन करने से मन अच्छा रहता है।
  • नातिद्रुतमश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.7
बहुत तेज गति से या जल्दबाज़ी में भोजन नहीं करना चाहिये।
  • नातिविलम्बितमश्नीयात् -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.24.8
अत्यन्त विलम्बपूर्वक भोजन नहीं करना चाहिये।
  • अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत -- च.वि.1.24.9
बिना बोले बिना हँसे तन्मयतापूर्वक भोजन करना चाहिये।
  • आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत -- चरकसंहिता, विमानस्थान 1.25
पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। (इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों का शरीर के परिप्रेक्ष्य में गुण-धर्म का ध्यान रखते हुये यहाँ दिये गये महावाक्यों के अनुरूप ही भोजन करने का लाभ है।)
  • अशितश्चोदकं युक्त्या भुञ्जानश्चान्तरा पिबेत् -- सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान 46.482
भोजन के पश्चात युक्तिपूर्वक पानी की मात्रा लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि खाने के बाद गटागट लोटा भर जल नहीं चढ़ा लेना चाहिये।
  • जैसा अन्न, वैसा मन ।
  • मुझे बता दो कि तुम क्या खाते हो और मैं बता दूँगा कि तुम क्या हो। -- Jean Anthelme Brillat-Savarin, Physiologie du Gout (1825)
  • आदमी जैसा खाता है, वैसा बन जाता है।
  • अन्न का दान परम दान है।
  • रूखा सूखा काय के ठण्डा पानी पीव। देखि पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव ॥ (कबीर)

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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