बाएँ वाला फोटो उस समय का है जब कुमारी वीनस्टीन ने ३० दिन का उपवास समाप्त किया था। दाहिने वाला फोटो उसके ३ सप्ताह बाद का है।लम्बा उपवास करके भगवान बुद्ध ने अपना शरीर ऐसा बना लिया था।
आहार का परित्याग कर देने वाले मनुष्य के इन्द्रियों के विषय दूर हो जाते हैं किन्तु रस दूर नहीं होता। इस मनुष्य का रस भी परमात्मा के दर्शन कर लेने पर दूर हो जाता है।
प्रकुपित हुए (बिगडा हुआ) वात, पित्त एवं कफ, इन सभी रोगों का कारण है । शरीर को परहेज की आवश्यकता है, फिर तो ऐसे में अन्न ग्रहण करना, यह तो वात, पित्त एवं कफ के कुपित होने में कारणीभूत है।
अतीव बलहीनं हि लङ्घनं नैव कारयेत् ।
ये गुणाः लङ्घने प्रोक्तास्ते गुणा: लघुभोजने ॥
अत्यन्त दुर्बल व्यक्तियों को उपवास कभी नहीं करना चाहिये । उपवास में जो गुण हैं वे सभी गुण कम और सुपाच्य भोजन करने में भी होते हैं।
भूख का वेग रोकने से कार्श्य (शरीर का पतलापन), दुर्बलता, वैवर्ण्य (शरीर का रंग बदल जाना), शरीर में दर्द, भोजन से अरुचि और भ्रम होने लगता है। ऐसी स्थिति में स्निग्ध (चिकना), उष्ण (गरम), कम भोजन लेना चाहिये।
जो लोग त्वचा रोगों से, मूत्र के रोगों से (प्रमेह से) ग्रस्त हैं, जिनका शरीर सामान्य से अधिक स्निगध (तैलीय) है, जो आवश्यकता से अधिक खाते हैं, जो जो वात विकारों से ग्रस्त हैं, उन्हें शिशिर ऋतु (जाड़े में) में लङ्घन (उपवास) करना अच्छा रहता है।
जीर्णे भोजनमात्रेयः लङ्घनं परमौषधम् ।
भावार्थ : पूर्वभोजन के जीर्ण होने पर ही भोजन करना चाहिए। यदि कभी प्रमाद से अजीर्ण हो जाए तो लंघन (उपवास) उसकी परम औषधि है।
हिताहारा मिताहारा अल्पाहाराश्च ये जनाः।
न तान् वैद्याश्चिकत्सन्ति आत्मनस्ते चिकित्सकाः॥
अर्थात् जो व्यक्ति हिताहारी (हितकर आहार करने वाले), मिताहारी (परिमित, नपा तुला, न अधिक न कम आहार करने वाले) तथा कभी- कभी अल्पाहारी (कम भोजन या उपवास करने वाले) होते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य लोग नहीं करते, प्रत्युत वे अपने चिकित्सक स्वयं होते हैं।
जठराग्नि आहार को पचाती है, यदि उसे आहार नहीं मिले तो बढ़े हुए दोषों को पचाती है, नष्ट करती है। दोषों के क्षीण होने पर भी उपवास किया जाएगा तो जठराग्नि रस-रक्त आदि धातुओं को जलाने लगती है व शरीर कृश होने लगता है तथा अन्त में जीवन को नष्ट कर देती है।