विद्या

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तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्याऽन्या शिल्पनैपुणम् ॥ (विष्णुपुराण)
कर्म वह है जो बन्धन में न डाले ; विद्या वह है जो मुक्त कर दे। अन्य कर्म केवल श्रम मात्र हैं तथा अन्य विद्याएँ शिल्प में निपुणता मात्र हैं।


न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों में उसका भाग नहीं होता, उसका भार नहीं लगता, (और) खर्च करने से बढ़ता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।


सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से? सुख की इच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की ।


अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
आलसी व्यक्ति को विद्या नहीं मिल सकती है, और विद्या हीन व्यक्ति धन नहीं कमा सकता है, धनविहीन व्यक्ति का कोई मित्र नहीं होता है और मित्रविहीन व्यक्ति को सुख कहाँ ?


पुस्तकस्या तु या विद्या परहस्तगतं धनं ।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् ॥
जो विद्या पुस्तक में है और जो धन किसी को दिया हुआ है। जरूरत पड़ने पर न तो वह विद्या काम आती है और न वह धन।


रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते ।


विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।


विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
विद्या से विनय (नम्रता) आती है, विनय से पात्रता (सजनता) आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।


दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले ।
श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।


क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥
एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?


विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा ।
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥
विद्या अनुपम कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन ।


नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥
विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।


गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा।
अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥
विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ।


पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् ।
मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥
पढनेवाले को मूर्खत्व नहीं आता; जपनेवाले को पातक नहीं लगता; मौन रहनेवाले का झघडा नहीं होता; और जागृत रहनेवाले को भय नहीं होता ।


नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं ।


ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहीं सकता, जिसे चोर ले जा नहीं सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहीं होता ।


स्वच्छन्दत्वं धनार्थित्वं प्रेमभावोऽथ भोगिता ।
अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
स्वंच्छंदता, पैसे का मोह, प्रेमवश होना, भोगाधीन होना, उद्धत होना – ये छे भी विद्याप्राप्ति में विघ्नरुप हैं ।


गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः ।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
गाकर पढना, शीघ्रता से पढना, पढते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ जाना, अर्थ न जानकर पढना, और धीमा आवाज होना ये छे पाठक के दोष हैं ।


अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?


माधुर्यं अक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठके गुणाः ॥
माधुर्य, स्पष्ट उच्चार, पदच्छेद, मधुर स्वर, धैर्य, और तन्मयता – ये पाठक के छे गुण हैं ।


विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया ।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छे जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहि ।


द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ।
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
जुआ, वाद्य, नाट्य (कथा/फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छे विद्या में विघ्नरुप होते हैं ।


आयुः कर्म च विद्या च वित्तं निधनमेव च ।
पञ्चैतानि विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
आयुष्य, (नियत) कर्म, विद्या (की शाखा), वित्त (की मर्यादा), और मृत्यु, ये पाँच देही के गर्भ में हि निश्चित हो जाते हैं ।


आरोग्य बुद्धि विनयोद्यम शास्त्ररागाः ।
आभ्यन्तराः पठन सिद्धिकराः भवन्ति ॥
आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम, और शास्त्र के प्रति राग (आत्यंतिक प्रेम) – ये पाँच पठन के लिए आवश्यक आंतरिक गुण हैं ।


आचार्य पुस्तक निवास सहाय वासो ।
बाह्या इमे पठन पञ्चगुणा नराणाम् ॥
आचार्य, पुस्तक, निवास, मित्र, और वस्त्र – ये पाँच पठन के लिए आवश्यक बाह्य गुण हैं ।


दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले ।
श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।


तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बंधनात् ।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम् ॥
पुस्तक कहता है कि, तैल से मेरी रक्षा करो, जल से रक्षा करो, मेरा बंधन शिथिल न होने दो, और मूर्ख के हाथ में मुझे न दो ।


दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ।
वित्तं दानसमेतं दुर्लभमेतत् चतुष्टयम् ॥
प्रिय वचन से दिया हुआ दान, गर्वरहित ज्ञान, क्षमायुक्त शौर्य, और दान की इच्छावाला धन – ये चार दुर्लभ है ।


अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणी तरणम् ।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥
व्याकरण छोडकर किया हुआ अध्ययन, तूटी हुई नौका से नदी पार करना, और अयोग्य आहार के साथ लिया हुआ औषध – ये ऐसे करने के बजाय तो न करने हि बेहतर है ।


यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः ।
तथा वेदं विना विप्रः त्रयस्ते नामधारकाः ॥
लकडे का हाथी, और चमडे से आवृत्त मृग की तरह वेदाध्ययन न किया हुआ ब्राह्मण भी केवल नामधारी हि है ।


गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ॥
गुरु की सेवा करके, अत्याधिक धन देकर, या विद्या के बदले में हि विद्या पायी जा सकती है; विद्या पानेका कोई चौथा उपाय नहि ।


विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।


बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ॥
जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है ।


जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं,
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥
: अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है,वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है । चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी )कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है ।(आप ही ) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती ।


चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ॥
संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है । अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है ।


अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।
अर्थात : यह मेरा है,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥
महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं । पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना ।


श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥
:कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है । हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से । दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है ।


पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम् ।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥
पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धनये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते ।


विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च ।
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥
ज्ञान यात्रा में,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है ।


सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥
अचानक ( आवेश में आ कर बिना सोचे समझे ) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है । ( इसके विपरीत ) जो व्यक्ति सोच –समझकर कार्य करता है ; गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है ।


चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसका निग्रह ( वश में करना ) मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ ।


असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ॥
( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है ।


उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥
कोई भी काम कड़ी मेहनत से ही पूरा होता है सिर्फ सोचने भर से नहीं। कभी भी सोते हुए शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं आ जाता।


दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि ।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते ॥
बिना दया के किये गए काम का कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता। जहाँ दया नही होती वहां वेद भी अवेद बन जाते हैं।


विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
विद्या यानि ज्ञान हमें विनम्रता प्रादान करता है, विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमें धन प्राप्त होता है जिससे हम धर्म के कार्य करते हैं और हमे सुख सुख मिलता है।


माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥
जो माता-पिता अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते वे शत्रु के सामान हैं। बुद्धिमानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी सम्मान नहीं पाता, वहां वह हंसों के बीच बगुले के समान होता है।


सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
सुख चाहने वाले यानि मेहनत से जी चुराने वालों को विद्या कहाँ मिल सकती है और विद्यार्थी को सुख यानि आराम नहीं मिल सकता। सुख की चाहत रखने वाले को विद्या का और विद्या पाने वाले को सुख का त्याग कर देना चाहिए।


गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात परमब्रह्म हैं; ऐसे गुरु का मैं नमन करता हूँ।


अग्निना सिच्यमानोऽपि वृक्षो वृद्धिं न चाप्नुयात् ।
तथा सत्यं विना धर्मः पुष्टिं नायाति कर्हिचित् ॥
आग से सींचा गए पेड़ कभी बड़े नहीं होते, जैसे सत्य के बिना धर्म की कभी स्थापना नहीं होती।


संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित् ।
समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम् ॥
जैसे नीचे प्रवाह में बहेनेवाली नदी, नाव में बैठे हुए इन्सान को न पहुँच पानेवाले समंदर तक पहुँचाती है, वैसे हि निम्न जाति में गयी हुई विद्या भी, उस इन्सान को राजा का समागम करा देती है; और राजा का समागम होने के बाद उसका भाग्य खील उठता है ।


कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ।
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥
यत्न कहाँ करना ? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में । अनादर कहाँ करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में ।


विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहि करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहि देता ?


विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥
कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोकिला का रुप स्वर, तथा स्त्री का रुप पतिव्रत्य है ।


सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता, और उसका कभी नाश नहीं होता ।


विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं
धनम् विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है ।


अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?


रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते ।


पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् ।
मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥
पढनेवाले को मूर्खत्व नहि आता; जपनेवाले को पातक नहि लगता; मौन रहनेवाले का झघडा नहि होता; और जागृत रहनेवाले को भय नहि होता ।


अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।
स्वावलम्बः दृढाभ्यासः षडेते छात्र सद्गुणाः ॥
अनालस्य, ब्रह्मचर्य, शील, गुरुजनों के लिए आदर, स्वावलंबन, और दृढ अभ्यास – ये छे छात्र के सद्गुण हैं ।


श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि यशांसि सूते मलिनं प्रमार्ष्टि ।
संस्कारशौचेन परं पुनीते शुद्धा हि वुद्धिः किल कामधेनुः ॥
विद्या सचमुच कामधेनु है, क्योंकि वह संपत्ति को दोहती है, विपत्ति को रोकती है, यश दिलाती है, मलिनता धो देती है, और संस्काररुप पावित्र्य द्वारा अन्य को पावन करती है।


हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता ।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥
जो चोरों के नजर नहीं आती, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा कौन सा धन हो सकता है ?


ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका बंटवारा नहीं हो सकता, जिसे चोर चोरी नहीं कर सकते, और दान करने से जिसमें कमी नहीं आती।


कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ।
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥
यत्न कहाँ करना ? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में। अनादर कहाँ करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में।


विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहीं करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहीं देता ?


विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥
कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोयल का रुप स्वर, और स्त्री का रुप पातिव्रत्य है।


रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
कोई व्यक्ति यदि रुपवान है, जवान है, ऊँचे कुल में पैदा हुआ है, लेकिन यदि वह विद्याहीन है, तो वह सुगंधरहित केसुडे के फूल की तरह शोभा नहीं देता है।


माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥
जो माता-पिता अपने बालक को नहीं पढ़ाते हैं, वह माता शत्रु के समान है और पिता बैरी है; हँसों के बीच बगुले की तरह, ऐसा मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहीं देता।


अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यामर्थं च साधयेत् ।
गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
बुढापा और मृत्यु नहीं आनेवाले है, ऐसा समझकर मनुष्य को विद्या और धन प्राप्त करना चाहिए; पर मृत्यु ने हमारे बाल पकड़े हैं, यह समझकर धर्माचरण करना चाहिए।


विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाद्रियते सदा ॥
शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या – ये दो प्राप्त करने योग्य विद्या हैं। इनमें से पहली वृद्धावस्था में हास्यास्पद बनाती है, और दूसरी सदा आदर दिलाती है।


सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
सब धनों में विद्यारुपी धन सर्वोत्तम है, क्योंकि इसे न तो छीना जा सकता है और न यह चोरी की जा सकती है। इसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती है और उसका न इसका कभी नाश होता है।


विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, विद्या गुप्त धन है। वह भोग देनेवाली, यशदेने वाली, और सुखकारी है। विद्या गुरुओं की गुरु है, विदेश में विद्या बंधु है। विद्या बड़ी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं। विद्याविहीन व्यक्ति पशु हीं है।


मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
विद्या माता की तरह रक्षा करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रिझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है। सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या-क्या नहीं करती है।


सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे ।
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥
सद्विद्या हो तो पेट भरने की चिंता करने का कारण नहीं। तोता भी “राम राम” बोलने से खुराक पा हीं लेता है।


न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों के बीच उसका बंटवारा नहीं होता, न उसका कोई वजन होता है और यह विद्यारुपी धन खर्च करने से बढ़ता है। सचमुच, विद्यारुपी धन सर्वश्रेष्ठ है।


अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धि मायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ॥
हे सरस्वती ! तेरा खज़ाना सचमुच अद्भुत है; जो खर्च करने से बढ़ता है, और जमा करने से कम होता है।


नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
विद्या जैसा बंधु नहीं है, विद्या जैसा कोई मित्र नहीं है, (और) विद्या के जैसा कोई धन नहीं है और विद्या के जैसा कोई सुख नहीं है।


अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥
अनेक संशयों को दूर करनेवाला, परोक्ष वस्तु को दिखानेवाला, और सबका नेत्ररुप शास्त्र जिसने पढ़ा नहीं, वह व्यक्ति (आँख होने के बावजुद) अंधा है।


सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
सुख चाहने वाले को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती, और विद्यार्थी को सुख नहीं मिल सकता। सुख चाहने वाले को विद्या पाने की आशा छोड़ देनी चाहिए, और विद्या चाहने वाले को सुख छोड़ देना चाहिए।


ज्ञानवानेन सुखवान् ज्ञानवानेव जीवति ।
ज्ञानवानेव बलवान् तस्मात् ज्ञानमयो भव ॥
ज्ञानी व्यक्ति हीं सुखी है, और ज्ञानी हीं सही अर्थों में जीता है। जो ज्ञानी है वही बलवान है, इसलिए तू ज्ञानी बन।


विद्या राज्यं तपश्च एते चाष्टमदाः स्मृताः ॥
कुल, छल, धन, रुप, यौवन, विद्या, अधिकार, और तपस्या – ये आठ मद हैं।


सालस्यो गर्वितो निद्रः परहस्तेन लेखकः ।
अल्पविद्यो विवादी च षडेते आत्मघातकाः ॥
आलसी होना, झूठा घमंड होना, बहुत ज्यादा सोना, पराये के पास लिखाना, अल्प विद्या, और वाद-विवाद ये छः आत्मघाती हैं।


स्वच्छन्दत्वं धनार्थित्वं प्रेमभावोऽथ भोगिता ।
अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
स्वंच्छंदता, पैसे का मोह, प्रेमवश होना, भोगाधीन होना, उद्धत होना – ये छः विद्या पाने में बाधा उत्पन्न करते हैं।


गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः ।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
गाकर पढ़ना, जल्दी-जल्दी पढ़ना, पढ़ते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ़ जाना, अर्थ जाने बिना पढ़ना, और धीमा आवाज होना ये छः पाठक के दोष हैं।


माधुर्यं अक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठके गुणाः ॥
मधुरता, स्पष्ट उच्चारण, पदच्छेद, मधुर स्वर, धैर्य, और तन्मयता – ये पढ़ने वाले व्यक्ति के छः गुण हैं।


विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया ।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छः जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है।


द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ।
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
जुआ, वाद्य, नाट्य (फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छः विद्या पाने में विघ्न होते हैं।


आयुः कर्म च विद्या च वित्तं निधनमेव च ।
पञ्चैतानि विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
आयु, कर्म, विद्या, वित्त, और मृत्यु, ये पाँच चीजें व्यक्ति के गर्भ में हीं निश्चित हो जाती है।


आरोग्य बुद्धि विनयोद्यम शास्त्ररागाः ।
आभ्यन्तराः पठन सिद्धिकराः भवन्ति ॥
आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम, और शास्त्र के प्रति अत्यधिक प्रेम – ये पाँच पढ़ने के लिए जरूरी आंतरिक गुण हैं।


आचार्य पुस्तक निवास सहाय वासो ।
बाह्या इमे पठन पञ्चगुणा नराणाम् ॥
आचार्य, पुस्तक, निवास, मित्र, और वस्त्र – ये पाँच पढ़ने के लिए आवश्यक बहरी गुण हैं।


तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बंधनात् ।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम् ॥
पुस्तक कहता है कि, तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरा बंधन शिथिल न होने दो, और मूर्ख के हाथ में मुझे मत दो।


दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ।
वित्तं दानसमेतं दुर्लभमेतत् चतुष्टयम् ॥
प्रिय वचन के साथ दिया हुआ दान, गर्वरहित ज्ञान, क्षमायुक्त शौर्य, और दान की इच्छावाला धन – ये चारों दुर्लभ हैं।


अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणी तरणम् ।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥
व्याकरण छोड़कर किया हुआ अध्ययन, टूटी हुई नव से नदी पार करना, और नहीं खाने लायक भोजन के साथ दवाई खाना – ये सब चीजें करने से बेहतर है इन्हें न करना।


गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ॥
गुरु की सेवा करके, अधिक धन देकर, या विद्या के बदले में विद्या, इन तीन तरीकों से हीं विद्या पायी जा सकती है; विद्या पाने का कोई चौथा उपाय नहीं होता है।


विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
विद्या का अभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये सब बहुत कल्याण करने वाले हैं।


पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् ।
मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥
पढ़ने वाले व्यक्ति को मूर्खता नहीं आती, जप करने वाले को पाप नहीं लगता है, मौन रहने वाले का झगड़ा नहीं होता है और जागते रहने वाले को डर नहीं होता है।


अर्थातुराणां न सुखं न निद्रा कामातुराणां न भयं न लज्जा ।
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न रुचि न बेला ॥
धन कमाने को आतुर व्यक्ति को सुख और नींद नहीं मिलते, जो व्यक्ति कामातुर होता है… उसे न डर होता है और न किसी से शर्म। विद्या के लिए आतुर व्यक्ति को सुख और नींद कहाँ, और भूखे व्यक्ति को रुचि या समय का ध्यान नहीं रहता है।


अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।
स्वावलम्बः दृढाभ्यासः षडेते छात्र सद्गुणाः ॥
आलसी नहीं होना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, शीलवान होना, गुरुजनों का आदर करना, आत्मनिर्भर होना, और कठिन अभ्यास करना – ये छः छात्र के सद्गुण हैं।


नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥
विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।


गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा।
अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥
विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ।


पुस्तकस्या तु या विद्या परहस्तगतं धनं ।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् ॥
पुस्तकी विद्या और अन्य को दिया हुआ धन ! योग्य समय आने पर ऐसी विद्या विद्या नहीं और धन धन नहीं, अर्थात वे काम नहीं आते ।


पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् ।
मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥
पढनेवाले को मूर्खत्व नहीं आता; जपनेवाले को पातक नहीं लगता; मौन रहनेवाले का झघडा नहीं होता; और जागृत रहनेवाले को भय नहीं होता ।


विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया ।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छे जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं ।


गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः ।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
गाकर पढना, शीघ्रता से पढना, पढते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ जाना, अर्थ न जानकर पढना, और धीमा आवाज होना ये छे पाठक के दोष हैं ।


सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे ।
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥
सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहीं । तोता भी “राम राम” बोलने से खुराक पा हि लेता है ।


मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है । सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या क्या सिद्ध नहीं करती ?


विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहीं करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहीं देता ?


हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता ।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥
जो चोरों के नजर पडती नहीं, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा अन्य कौन सा द्रव्य हो सकता है ?


द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ।
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
जुआ, वाद्य, नाट्य (कथा/फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छे विद्या में विघ्नरुप होते हैं ।


माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥
जो अपने बालक को पढाते नहि, ऐसी माता शत्रु समान और पित वैरी है; क्यों कि हंसो के बीच बगुले की भाँति, ऐसा मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहि देता !


अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यामर्थं च साधयेत् ।
गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
बुढापा और मृत्यु आनेवाले नहि, ऐसा समजकर मनुष्य ने विद्या और धन प्राप्त करना; पर मृत्यु ने हमारे बाल पकडे हैं, यह समज़कर धर्माचरण करना ।


श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि यशांसि सूते मलिनं प्रमार्ष्टि ।
संस्कारशौचेन परं पुनीते शुद्धा हि वुद्धिः किल कामधेनुः ॥
शुद्ध बुद्धि सचमुच कामधेनु है, क्यों कि वह संपत्ति को दोहती है, विपत्ति को रुकाती है, यश दिलाती है, मलिनता धो देती है, और संस्काररुप पावित्र्य द्वारा अन्य को पावन करती है ।


हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता ।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥
जो चोरों के नजर पडती नहि, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहि होता, वह विद्या के अलावा अन्य कौन सा द्रव्य हो सकता है ?


ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहि सकता, जिसे चोर ले जा नहि सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहि होता ।


विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाद्रियते सदा ॥
शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या – ये दो प्राप्त करने योग्य विद्या हैं । इन में से पहली वृद्धावस्था में हास्यास्पद बनाती है, और दूसरी सदा आदर दिलाती है ।


सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहि जा सकता; उसका मूल्य नहि हो सकता, और उसका कभी नाश नहि होता ।


विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहि । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है ।


मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है । सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या क्या सिद्ध नहि करती ?


सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे ।
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥
सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहि । तोता भी “राम राम” बोलने से खुराक पा हि लेता है ।


न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहि सकता, राजा ले नहि सकता, भाईयों में उसका भाग नहि होता, उसका भार नहि लगता, (और) खर्च करने से बढता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।


अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धि मायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ॥
हे सरस्वती ! तेरा खज़ाना सचमुच अवर्णनीय है; खर्च करने से वह बढता है, और संभालने से कम होता है।


नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
विद्या जैसा बंधु नहि, विद्या जैसा मित्र नहि, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहि ।


अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥
अनेक संशयों को दूर करनेवाला, परोक्ष वस्तु को दिखानेवाला, और सबका नेत्ररुप शास्त्र जिस ने पढा नहि, वह इन्सान (आँख होने के बावजुद) अंधा है ।


ज्ञानवानेन सुखवान् ज्ञानवानेव जीवति ।
ज्ञानवानेव बलवान् तस्मात् ज्ञानमयो भव ॥
ज्ञानी इन्सान हि सुखी है, और ज्ञानी हि सही अर्थ में जीता है । जो ज्ञानी है वही बलवान है, इस लिए तूं ज्ञानी बन । (वसिष्ठ की राम को उक्ति)


कुलं छलं धनं चैव रुपं यौवनमेव च ।
विद्या राज्यं तपश्च एते चाष्टमदाः स्मृताः ॥
कुल, छल, धन, रुप, यौवन, विद्या, अधिकार, और तपस्या – ये आठ मद हैं ।


सालस्यो गर्वितो निद्रः परहस्तेन लेखकः ।
अल्पविद्यो विवादी च षडेते आत्मघातकाः ॥
आलसी, गर्विष्ठ, अति सोना, पराये के पास लिखाना, अल्प विद्या, और वाद-विवाद ये छे आत्मघाती हैं ।


दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन ।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:॥
दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो अर्थात वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए।


जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति॥
जिस मनुष्य के पास स्वयं का(प्रज्ञा) विवेक नहीं है, उसके शास्त्र किस काम के, जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं॥
बड़ों का सम्मान करने वाले और नित्य वृद्धों (बुजुर्गों) की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल ये चार चीजें बढ़ती हैं।


हस्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम॥
हाथ का आभूषण (गहना) दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान की शोभा शास्त्र सुनने से है, अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।


विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा ॥
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥
विद्या अनुपम कीर्ति है, भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह(अभाव) में रति (आनंद) समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है, इसलिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन।


ज्ञातिभिर्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
विद्यारुपी (ज्ञान) रत्न महान धन है, जिसका बंटवारा नहीं हो सकता, जिसे चोर चोरी नहीं कर सकता, और दान करने से जिसमें कमी नहीं आती।


हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना॥
जो चोरों को नजर नहीं आती, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा कौन सा धन हो सकता है ?


श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि यशांसि सूते मलिनं प्रमार्टि॥
संस्कारशौचेन परं पुनीते शुद्धा हि वुद्धिः किल कामधेनुः ॥
विद्या सचमुच कामधेनु है, क्योंकि वह संपत्ति को दोहती है, विपत्ति(मुसीबत) को रोकती है, यश(प्रसिद्धी)दिलाती है, मलिनता(गरीवी) धो देती है, संस्काररूप पावित्र्य द्वारा अन्य को पावन करती है।


कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ॥
अवधीरणा के कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ।
अर्थात:- प्रयास कहाँ करना चाहिए? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में, त्याग कहाँ करना चाहिए? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में।
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
विद्यावान और विनयी मनुष्य सभी का चित्त हरण(आकर्षित) कर लेता है।जैसे सुवर्ण और मणि का संयोग सबकी आँखों आँखों को सुख देता है।


विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥
कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोयल का रुप स्वर, और स्त्री का रुप पातिव्रत्य है।


माता शत्रुः पिता वैरी येन बालों ने पाठितः ॥
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥
जो माता-पिता अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं, वह माता शत्रु के समान है और पिता बैरी है, ऐसा मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहीं देता जैसे हँसों के बीच बगुला।


अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यामर्थं च साधयेत् ।
गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
बुढापा और मृत्यु नहीं आनेवाले है, ऐसा समझकर मनुष्य को विद्या और धन प्राप्त करना चाहिए। पर मृत्यु ने हमारे बाल पकड़े हैं, यह समझकर धर्माचरण करना चाहिए।


विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्।
विद्या राजसु पुज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः॥
विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, विद्या गुप्त धन है। वह भोग देनेवाली, यशदेने वाली, और सुखकारी है। विद्या गुरुओं की गुरु है, विदेश में विद्या बंधु है। विद्या बड़ी देवता है, राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं, विद्याविहीन व्यक्ति पशु हीं है।


सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा॥
सब धनों में विद्यारुपी धन सर्वोत्तम है, क्योंकि इसे न तो छीना जा सकता है और न यह चोरी की जा सकती है।इसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती है और उसका न इसका कभी नाश होता है।


विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ॥
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाद्रियते सदा ॥
शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या ये दो प्राप्त करने योग्य विद्या हैं। इनमें से पहली वृद्धावस्था में हास्यास्पद बनाती है और दूसरी सदा आदर दिलाती है।


मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ॥
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
विद्या माता की तरह रक्षा करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रिझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है। सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या-क्या नहीं करती है।


नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ॥
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
विद्या जैसा बंधु नहीं है, विद्या जैसा कोई मित्र नहीं है, (और) विद्या के जैसा कोई धन नहीं है और विद्या के जैसा कोई सुख नहीं है।


सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे ॥
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ।
अर्थात:- सद्विद्या हो तो पेट भरने की चिंता करने का कारण नहीं। तोता भी राम राम” बोलने से खुराक पा हीं लेता है।
अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धि मायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ॥
हे सरस्वती ! तेरा खज़ाना सचमुच अदुभत है; जो खर्च करने से बढ़ता है, और जमा करने से कम होता है।


न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों के बीच उसका बंटवारा नहीं होता, न उसका कोई वजन होता है और यह विद्यारुपी धन खर्च करने से बढ़ता है। सचमुच, विद्यारुपी धन सर्वश्रेष्ठ है।


अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ॥
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥
अनेक संशयों को दूर करनेवाला, परोक्ष वस्तु को दिखानेवाला, और सबका नेत्ररुप शास्त्र जिसने पढ़ा नहीं, वह व्यक्ति (आँख होने के बावजुद) अंधा है।


कुलं छलं धनं चैव रुपं यौवनमेव च ।
विद्या राज्यं तपश्च एते चाष्टमदाः स्मृताः ॥
कुल, छल, धन, रुप, यौवन, विद्या, अधिकार, और तपस्या – ये आठ मद हैं।


ज्ञानवानेन सुखवान् ज्ञानवानेव जीवति ॥
ज्ञानवानेव बलवान् तस्मात् ज्ञानमयो भव ॥
ज्ञानी व्यक्ति हीं सुखी है, और ज्ञानी हीं सही अर्थों में जीता है। जो ज्ञानी है वही बलवान है, इसलिए तू ज्ञानी बन।


आरोग्य बुद्धि विनयोद्यम शास्त्ररागाः ।
आभ्यन्तराः पठन सिद्धिकराः भवन्ति ॥
आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम, और शास्त्र के प्रति अत्यधिक प्रेम – ये पाँच पढ़ने के लिए जरूरी आंतरिक गुण हैं।


विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया ।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छे जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं ।


गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः ।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
गाकर पढना, शीघ्रता से पढना, पढते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ जाना, अर्थ न जानकर पढना, और धीमा आवाज होना ये छे पाठक के दोष हैं ।


सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे ।
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥
सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहीं । तोता भी “राम राम” बोलने से खुराक पा हि लेता है ।


मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते कान्तेव
चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है । सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या क्या सिद्ध नहीं करती ?


विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहीं करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहीं देता ?


हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता ।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥
जो चोरों के नजर पडती नहीं, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा अन्य कौन सा द्रव्य हो सकता है ?


द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ।
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
जुआ, वाद्य, नाट्य (कथा/फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छे विद्या में विघ्नरुप होते हैं ।


विद्या वितर्का विज्ञानं स्मति: तत्परता किया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छ: जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है।


आयुः कर्म च विद्या च वित्तं निधनमेव च ॥
पञ्चैतानि विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
आयु, कर्म, विद्या, वित्त, और मृत्यु, ये पाँच चीजें व्यक्ति के गर्भ में ही निश्चित हो जाती है।


दुयतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ॥
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
जुआ, वाद्य, नाट्य (फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छः विद्या पाने में विघ्न होते हैं।


विद्या वितर्का विज्ञानं स्मति: तत्परता किया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छ: जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है।


आयुः कर्म च विद्या च वित्तं निधनमेव च ॥
पञ्चैतानि विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
आयु, कर्म, विद्या, वित्त, और मृत्यु, ये पाँच चीजें व्यक्ति के गर्भ में ही निश्चित हो जाती है।


दुयतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ॥
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
जुआ, वाद्य, नाट्य (फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छः विद्या पाने में विघ्न होते हैं।


आरोग्य बुद्धि विनयोद्यम शास्त्ररागाः ।
आभ्यन्तराः पठन सिद्धिकराः भवन्ति ॥
आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम, और शास्त्र के प्रति अत्यधिक प्रेम – ये पाँच पढ़ने के लिए जरूरी आंतरिक गुण हैं।


क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥
एक-एक क्षण गँवाए बिना विद्या पानी चाहिए; और एक-एक कण बचाकर धन इकट्ठा करना चाहिए। क्षण गँवाने वाले को विद्या प्राप्त नहीं होती, और कण नष्ट करने वाले को धन नहीं मिलता।


सालस्यो गर्वितो निद्रः परहस्तेन लेखकः ।
अल्पविद्यो विवादी च षडेते आत्मघातकाः ॥
आलसी होना, झूठा घमंड होना, बहुत ज्यादा सोना, पराये के पास लिखाना, अल्प विद्या, और वाद-विवाद ये छः आत्मघाती हैं।


गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः ॥
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
गाकर पढ़ना, जल्दी-जल्दी पढ़ना, पढ़ते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ़ जाना, अर्थ जाने बिना पढ़ना, और धीमा आवाज होना ये छः पाठक के दोष हैं।


स्वच्छन्दत्वं धनार्थित्वं प्रेमभावोऽथ भोगिता ॥
अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
स्वच्छंदता, पैसे का मोह, प्रेमवश होना, भोगाधीन होना, उद्धत होना – ये छः विद्या पाने में बाधा उत्पन्न करते हैं।


माधुर्यं अक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।
धैर्य लयसमर्थं च षडेते पाठके गुणाः ॥
मधुरता, स्पष्ट उच्चारण, पदच्छेद, मधुर स्वर, धैर्य, और तन्मयता – ये पढ़ने वाले व्यक्ति के छः गुण


आचार्य पुस्तक निवास सहाय वासो ।
बाह्या इमे पठन पञ्चगुणा नराणाम् ॥
आचार्य, पुस्तक, निवास, मित्र, और वस्त्र – ये पाँच पढ़ने के लिए आवश्यक बहरी गुण हैं।


तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत्रक्षेत् शिथिल बंधनात् ।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम् ॥
पुस्तक कहता है कि, तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरा बंधन शिथिल न होने दो, और मूर्ख के हाथ में मुझे मत दो


दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ॥
वित्तं दानसमेतं दुर्लभमेतत् चतुष्टयम् ॥
प्रिय वचन के साथ दिया हुआ दान, गर्वरहित ज्ञान, क्षमायुक्त शौर्य, और दान की इच्छावाला धनये चारों दुर्लभ हैं।


गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ॥
गुरु की सेवा करके, अधिक धन देकर, या विद्या के बदले में विद्या, इन तीन तरीकों से ही विद्या पायी जा सकती है, विद्या पाने का कोई चौथा उपाय नहीं होता है।


अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणी तरणम् ।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥
व्याकरण छोड़कर किया हुआ अध्ययन, टूटी हुई नाव से नदी पार करना, और नहीं खाने लायक भोजन के साथ दवाई खाना – ये सब चीजें करने से बेहतर है इन्हें न करना।


उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ॥
उद्यम, यानि मेहनत से ही कार्य पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से नहीं। जैसे सोये हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता बल्कि शेर को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है।


वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ॥
जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।


प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:॥
संध्या-काल मे चंद्रमा दीपक है, प्रातः काल में सूर्य दीपक है, तीनो लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कुल का दीपक है।


प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता॥
प्रिय वाक्य बोलने से सभी जीव संतुष्ट हो जाते हैं, अतः प्रिय वचन ही बोलने चाहिएं। ऐसे वचन बोलने में कंजूसी कैसी।


सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।
यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते॥
विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए क्योंकि वो फल और छाया दोनो से युक्त होता है। यदि दुर्भाग्य से फल नहीं हैं तो छाया को भला कौन रोक सकता है।


देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः॥
भाग्य रूठ जाए तो गुरु रक्षा करता है, गुरु रूठ जाए तो कोई नहीं होता। गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।


अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च॥
अपमान करके दान देना, विलंब से देना, मुख फेर के देना, कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करना- ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं॥
बड़ों का अभिवादन करने वाले मनुष्य की और नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल -ये चार चीजें बढ़ती हैं।


दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन ।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:॥
दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो अर्थात वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए। जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता?


हस्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम॥
हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान की शोभा शास्त्र सुनने से है, अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।


यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति॥
जिस मनुष्य के पास स्वयं का विवेक नहीं है, शास्त्र उसका क्या करेंगे। जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।


न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु:
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा॥
न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं ।


अर्थातुराणां न सुखं न निद्रा कामातुराणां न भयं न लज्जा ।
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न रुचि न बेला ॥
अर्थातुर को सुख और निद्रा नहीं होते, कामातुर को भय और लज्जा नहीं होते । विद्यातुर को सुख व निद्रा, और भूख से पीडित को रुचि या समय का भान नहीं रहता ।


नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यं त्वं एव तनुषे चेत।
विश्वस्मिन अधुना अन्य:कुलव्रतम पालयिष्यति क:॥
ऐ हंस, यदि तुम दूध और पानी को भिन्न करना छोड़ दोगे तो तुम्हारे कुलव्रत का पालन इस विश्व मे कौन करेगा। भाव यदि बुद्धिमान व्यक्ति ही इस संसार मे अपना कर्त्तव्य त्याग देंगे तो निष्पक्ष व्यवहार कौन करेगा।


दुर्जन:स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।
नोदर तृप्तिमायाती मूषक:वस्त्रभक्षक:॥
दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव ही दूसरे के कार्य बिगाड़ने का होता है। वस्त्रों को काटने वाला चूहा पेट भरने के लिए कपड़े नहीं काटता।


सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं प्रियम।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:॥
सत्य बोलो, प्रिय बोलो,अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिये। प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए।


काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमतां।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥
बुद्धिमान लोग काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने में अपना समय व्यतीत करते हैं, जबकि मूर्ख लोग निद्रा, कलह और बुरी आदतों में अपना समय बिताते हैं।


पृथ्वियां त्रीणि रत्नानि जलमन्नम सुभाषितं।
मूढ़े: पाधानखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते॥
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल,अन्न और शुभ वाणी । पर मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा देते हैं।


भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात अपि गरीयसी॥
भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।


शैले शैले न माणिक्यं,मौक्तिम न गजे गजे।
साधवो नहि सर्वत्र,चंदन न वने वने॥
प्रत्येक पर्वत पर अनमोल रत्न नहीं होते, प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होता। सज्जन लोग सब जगह नहीं होते और प्रत्येक वन में चंदन नही पाया जाता ।


न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन:।
काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यम न तृप्यति॥
लोगों की निंदा किये बिना दुष्ट व्यक्तियों को आनंद नहीं आता। जैसे कौवा सब रसों का भोग करता है परंतु गंदगी के बिना उसकी तृप्ति नहीं होती ।


आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ॥
मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है । परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता ।


यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥
जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है ।


नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ॥
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
विद्या जैसा बंधु नहीं है, विद्या जैसा कोई मित्र नहीं है, (और) विद्या के जैसा कोई धन नहीं है और विद्या के जैसा कोई सुख नहीं है।


हर्तृर्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना॥
जो चोरों को नजर नहीं आती, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा कौन सा धन हो सकता है ?


माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥
जो माता-पिता अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते वे शत्रु के सामान हैं। बुद्धिमानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी सम्मान नहीं पाता, वहां वह हंसों के बीच बगुले के समान होता है।


अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥
आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ ।

इन्हें भी देखें[सम्पादन]