राजधर्म
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राजधर्म का अर्थ है - राजा का धर्म
उक्तियाँ
[सम्पादन]- दुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा न्यायेन कोषस्य च संप्रवृद्धिः ।
- अपक्षपातोऽर्थिषु राष्ट्ररक्षा पञ्चैव यज्ञाः कथिता नृपाणाम् ॥ -- अत्रिसंहिता ; द्वात्रिंशत्पुत्तलिकासिंहासनम् (=सिंहासनबत्तीसी)
- दुष्ट को दण्ड, सज्जन की पूजा, न्यायपूर्वक राजकोष की वृद्धि करना, न्याय करते समय अभ्यर्थियों से पक्षपात न करना और राष्ट्र की रक्षा करना - ये राजाओं के लिये पाँच यज्ञ हैं।
- प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
- नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ -- चाणक्य, अर्थशास्त्र 1/19
- प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।
- पुत्र इव पितृगृहे विषये यस्य मानवाः ।
- निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तम ॥
- यथा पुत्रः पितृगृहे विषये यस्य मानवाः ।
- निर्भया विचारिष्यन्ति स राजा राजसत्तम ॥ -- मनुस्मृति ; महाभारत
- जैसे पुत्र अपने पिता के घर में निर्भीक होकर रहते है, उसी प्रकार जिस राजा के राज्य में मनुष्य निर्भय होकर विचरते हैं, वह सब राजाओं में श्रेष्ठ है। जिसके राज्य अथवा नगर में निवास करने वाले लोग (चोरों से भय न होने के कारण) अपने धन को छिपाकर नहीं रखते हों तथा न्याय और अन्याय को समझते हों, वह राजा समस्त राजाओं में श्रेष्ठ है।
- राजधर्म एक नौका के समान है, यह नौका धर्म रूपी समुद्र में स्थित है। सतगुण ही नौका का संचालन करने वाला बल है, धर्मशास्त्र ही उसे बांधने वाली रस्सी है।
महाभारत में राजधर्म
[सम्पादन]- राजन जिन गुणों को आचरण में लाकर राजा उत्कर्ष लाभ करता है, वे गुण छत्तीस हैं। राजा को चाहिए कि वह इन गुणों से युक्त होने का प्रयास करें। -- महाभारत (भीष्म, युधिष्ठिर से)
- प्रतिज्ञां चावरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा ।
- पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत् ॥
- यश्चात्र धर्म इत्युक्ते दण्डनीतिव्यपाश्रयः ।
- तमशङ्कः करिष्यामि स्ववशे न कदाचन ॥ -- महाभारत, 7.58.115-6
- तुम प्रतिज्ञा करो और अपनी शपथ के अनुसार मन, कर्म और वचन से मैं पृथ्वी की रक्षा करूंगा। जहां धर्म का कर्तव्य और दण्ड की नीति होगी, वहां मैं अंधकार को जड़ से मिटा दूंगा। जहां अपमान हो, वहां मैं कभी निवास नहीं करूंगा।
- चारश्च प्रणिधिश्चैव काले दानममत्सरः।
- युक्त्या दानं न चादानमयोगेन युधिष्ठिर॥
- सतां संग्रहणं शौर्यं दाक्ष्यं सत्यं प्रजाहितम्।
- अनार्जवैरार्जवैश्च शत्रुपक्षाविवर्धनम्॥
- केतनानां च जीर्णानामवेक्षा चैव सीदताम्।
- द्विविधस्य च दण्डस्य प्रयोगः कालचोदितः॥
- साधूनामपरित्यागः कुलीनानां च धारणम्।
- निचयश्च निचेयानां सेवा बुद्धिमतामपि॥
- बलानां हर्षणं नित्यं प्रजानामन्ववेक्षणम्।
- कार्येष्वखेदः कोशस्य तथैव च विवर्धनम्॥
- पुरगुप्तिरविश्वासः पौरसंघातभेदनम्।
- अरिमध्यस्थमित्राणां यथावच्चान्ववेक्षणम्॥
- उपजापश्च भृत्यानामात्मनः पुरदर्शनम्।
- अविश्वासः स्वयं चैव परस्याश्वासनं तथा॥
- नीतिवर्त्मानुसारेण नित्यमुत्थानमेव च।
- रिपूणामनवज्ञानं नित्यं चानार्यवर्जनम्॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व 12-57-5 से 12-57-12
- जीर्ण गृहों का निरीक्षण, अवसरानुसार शारीरदण्ड और अर्थदण्ड का प्रयोग, सज्जनों का अपरित्याग, कुलीनों का धारण, धान्य आदि का संग्रह, बुद्धिमान की सेवा, सेना की प्रसन्नता, प्रजा के हित-अहित और अनुराग-विराग पर ध्यान, कार्य करके थकावट का अनुभव न करना, कोषवृद्धि, नगर-रक्षा, अंगरक्षकों पर भी पूर्ण विश्वास न रखना, शत्रुओं द्वारा वाणिज्यादि के माध्यम से संघटित संघटनों में फूट डालना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थ को यथावत् समझना, नीति और धर्म का अनुसरण करना, नित्य उद्योगी रहना, शत्रुओं को हीनशक्ति समझकर उनका अपमान न करना, नित्य ही अनुचित उपायों से दूर रहना, आदि उपायों से प्रजा की रक्षा करनी चाहिए । [१]
याज्ञवल्क्य स्मृति में राजधर्म
[सम्पादन]- महोत्साहः स्थूललक्षः कृतज्ञो वृद्धसेवकः ।
- विनीतः सत्त्वसंपन्नः कुलीनः सत्यवाक्शुचिः ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३०९
- अदीर्घसूत्रः स्मृतिमानक्षुद्रोऽपरुषस्तथा ।
- धार्मिकोऽव्यसनश्चैव प्राज्ञः शूरो रहस्यवित् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३१०
- स्वरन्ध्रगोप्तान्वीक्षिक्यां दण्डनीत्यां तथैव च ।
- विनीतस्त्वथ वार्तायां त्रय्यां चैव नराधिपः ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३११
- राजा महान उत्साही , अत्यन्त धन देने वाला , विनित , सत्त सम्पन्न , सम्पत्ति एवं विपत्ति में एक - सा आचरण करने वाला हो। वह कुलीन, सत्य वचन बोलने वाला' पवित्र' आलस्य रहित , जानते हुए कार्यों का स्मरण रखने वाला' सद्गुणी , दूसरे को दुःख न देने वाला, आर्थिक व्यसन न करने वाला, बुद्धिमान , वीर , रहस्य को छिपाने में चतुर तथा अपने राज्य के प्रवेश द्वारों को गुप्त रखने वाला हो। आन्वीक्षिकी , दण्डनीती और वार्ता इन विद्याओं में राजा प्रवीण होना चाहिए।[२]
- स्वाम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च ।
- मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण
- स्वामी (राजा), मन्त्रीवृन्द, प्रजा, दुर्ग, राजकोश, दण्ड, एवं राज्य के मित्रगण, ये सभी राज्य के सात अंग होते हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग (सात अंगों वाला) कहा गया है।
- अपि भ्राता सुतोऽर्घ्यो वा श्वसुरो मातुलोऽपि वा ।
- नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति धर्माद्विचलितः स्वकात् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण
- भाई, पुत्र, पूज्य जन, श्वसुर, एवं मामा, कोई भी अपने धर्म से विचलित होने पर राजा के लिए अदण्डनीय नहीं होता है।
- ब्राह्मणेषु क्षमी स्निग्धेष्वजिह्मः क्रोधनोऽरिषु ।
- स्याद्राजा भृत्यवर्गेषु प्रजासु च यथा पिता ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३३४
- राजा को ब्राह्मणों के प्रति क्षमाशील, अनुराग रखने वालों के प्रति सरल , शत्रुओं के प्रति क्रोधी तथा सेवकों एवं प्रजा के प्रति पिता के समान दयावान एवं हितकारी होना चाहिए।
- मन्त्रमूलं यतो राज्यं तस्मान्मन्त्रं सुरक्षितम् ।
- कुर्याद्यथास्य न विदुः कर्मणां आफलोदयात् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३४४
- राज्य कार्य का मुख्य आधार मन्त्र है। इसलिए मन्त्र को इस प्रकार राजा गुप्त रखे कि राजा के कर्मों के फलीभूत होने के पूर्व उसकी जानकारी किसी को न मिल सके।
- स्वाम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च ।
- मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गं उच्यते ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३५३
- राजा , अमात्य, प्रजा , दुर्ग , कोष , दण्ड (सेना) और मित्र ये राज्य के मूल कारण हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग कहा जाता है।
इन्हें भी देखें
[सम्पादन]सन्दर्भ
[सम्पादन]- ↑ विचार पीयूष (स्वामी करपात्री)
- ↑ याज्ञवल्क्य स्मृति में राजधर्म