राज्य
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राज्य का अर्थ एक भू-क्षेत्र और एक व्यवस्था से है जो उस भूक्षेत्र पर एक या अधिक व्यक्तियों के नेतृत्व में लागू होती है। प्राचीन और मध्य युग में राज्य की सर्वोच्च सत्ता राजा के हाथ में होती थी। लोकतंत्र (डेमोक्रैसी) में यह सत्ता किसी चुने हुए प्रतिनिधि के पास होती है। जनपद और स्टेट (अंग्रेजी शब्द) इसके पर्यायवाची हैं।
उद्धरण
[सम्पादन]- अथ धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः। -- सोमदेव सूरि, नीतिवाक्यामृतम् में
- धर्म, अर्थ और काम का फल देने वाले राज्य को नमस्कार है।
राज्य की उत्पत्ति
[सम्पादन]- नैव राज्यं न राजाऽऽसीन्न च दण्डो न दाण्डिकः।
- धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥ -- महाभारत (शान्तिपर्व)
- अर्थ : न (उस समय) राज्य था न राजा था। न दण्ड था न दण्ड देने वाला। धर्म से ही सारे लोग परस्पर रक्षा करते थे।
- अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात् ।
- रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत् प्रभुः ॥ -- मनुस्मृति
- बिना राजा के (अराजकता की स्थिति में) राज्य में सर्वत्र असुरक्षा फैल जाती है। इन भयग्रस्त लोगों की (बलवानों से) रक्षा के लिये प्रभु ने राजा का सृजन किया।
- सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलमर्थः। अर्थस्य मूलं राज्यम्। राज्यस्य मूलमिन्द्रियजयः। (चाणक्य नीतिसूत्र)
- अर्थ : सुख का मूल (जड़) धर्म है। धर्म का मूल अर्थ (धन-सम्पत्ति, रुपया-पैसा, सोना-चाँदी आदि) है। अर्थ का मूल राज्य है। राज्य का मूल इन्द्रियों पर विजय है।
राज्य के अंग
[सम्पादन]- स्वाम्यमात्यदुर्गकोशदण्डराष्ट्रमित्राणि प्रकृतयः॥ (विष्णुधर्मसूत्र - 3/33 )
- स्वाम्यमात्यसुहृद् दुर्ग कोशदण्ड जनाः ॥ (गौतमधर्मसूत्र, पृ. सं. 45)
- स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत्तथा ।
- सप्तप्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ -- मनुस्मृति 9-294
- स्वामी, अमात्य, पुर (राजधानी), राष्ट्र, कोश, दण्ड तथा मित्र- राज्य इन सात प्रकृतिवाला होता है। इसलिये इसे 'सप्तांग' कहते हैं।
- स्वाम्यमात्यौ जनो दुर्ग कोशो दण्डस्तथैव च । मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति - 1/353 , 253)
- स्वाम्यमात्यजनदुर्गकोशदण्डमित्राणि प्रकृतयः। (कौटिलीय अर्थशास्त्र - 6/1/1)
- स्वाभ्यामात्य सुहकोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च ।
- सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः ॥ -- शुक्रनीति
- स्वामी, मंत्री, पुर, राज्य, कोश, दण्ड व मित्र - ये राज्य के सात अंग कहे जाते हैं। इनमें राजा का स्थान सर्वोच्च है।
- दृगमात्यः सुहृच्छोत्रं मुखं कोशो बलं मनः।
- हस्तौ पादौ दुर्गराष्ट्रं राज्याङ्गानि स्मृतानि हि॥ -- शुक्राचार्य
- राज्य रूपी शरीर के मंत्री नेत्र हैं, मित्र कान हैं, कोष मुख है, सेना (बल) मन है। हाथ और पैर क्रमशः दुर्ग और राष्ट्र हैं। ये ही राज्य रूपी शरीर के के अंग माने जाते हैं।
- राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्याश्च कोशाश्व दण्डो मित्राणि चैव हि॥
- तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन। एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः ॥ (महाभारत, शान्तिपर्व - 69/64-65)
- स्वाम्यमात्याश्च तथा दुर्ग कोषो दण्डस्तथैव च। मित्रजनपदश्चैव राज्यं सप्तामुच्यते ॥ (अग्निपुराण - 233/12)
- स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्रं च दुर्ग कोशो बलं सुहृत्। एतावदुच्यते राज्य सत्वबुद्धिब्यपाश्रयम् ।परस्परोपकारीदं सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ (कामन्दकीय नीतिसार - 1/18/4/1)
- स्वाम्यमात्यौ च राष्ट्रं च कोशो दुर्गं बलं सुहृत् । सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते॥ -- कालिदास, मेघदूतम् में
- राज्यं नाम शक्तित्रयायत्तम् । शक्तयश्च मन्त्रप्रभावोत्साहाः परस्परानुगृहीताः कृत्येषु क्रमन्ते । मन्त्रेण हि विनिश्चयोर्थानां प्रभावेण प्रारम्भः । उत्साहेन निर्वहणम् । अतः पञ्चाङ्गमन्त्रमूलो द्विरूपप्रभावस्कन्धश्चतुर्गुणोत्साहविटपो द्विसप्ततिप्रकृतिपत्त्रः षड्गुणकिसलयः शक्तिसिद्धिपुष्पफलश्च नयवनस्पतिर्नेतुरुपकरोति । -- दण्डी, दशकुमारचरितम् में
- राज्य तीन शक्तियों के अधीन है और ये शक्तियाँ हैं- मंत्र, प्रभाव और उत्साह जो एक दूसरे से लाभान्वित होकर कर्तव्यों के क्षेत्र में प्रगति करती हैं। मंत्र (योजना, परामर्श) से कार्य का ठीक निर्धारण होता है, प्रभाव (राजोचित शक्ति, तेज) से कार्य का आरम्भ होता है और उत्साह (उद्यम) से कार्य सिद्ध होता है। अतः मंत्र की पाँच जड़ों वाला, प्रभाव के दो कन्धों वाला, उत्साह की चार शाखाओं वाला, प्रकृति के बहत्तर पत्तों वाला, छः प्रकार के किसलय वाला तथा शक्ति के पुष्प और सिद्धि के फल से युक्त नय (नीति) रूपी वनस्पति (अपने सभी अंगों सहित) विजिगीषु का निरन्तर उपकार करने वाला होता है। (मन्त्र के पाँच अङ्ग हैं- friends, expedients, distinction of place and time, counteraction of evil, success)
विविध
[सम्पादन]- शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्रणिनां यथा ।
- तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात् ॥ -- मनु
- जिस प्रकार प्राणियों के प्राण शरीर को कृशित करने से क्षीण हो जातें हैं वैसे ही प्रजा को दुर्बल करने से राजाओं के प्राण अर्थात् बलादि बन्धुसहित नष्ट हो जाते हैं।
- अथ धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः -- सोमदेव सुरि, नीतिवाक्यामृतम् में
- स्टेटिज्म (Statism) एक कपोलकल्पित आदर्श है जो मानता है कि केवल सही मात्रा में, सही लोगों द्वारा और सही दिशा में उपयोग की गयी हिंसा समाज को पूर्ण बना सकती है। -- Keith Hamburger, as quoted in “The Myth of Limited Government: Anarchy Vs. Minarchy”, Jon Torres, Logical Anarchy, August 12, 2014
- राज्य एक षड्यन्त्र है जो न केवल शोषण के लिये, अपितु अपने नागरिकों को भ्रष्ट करने के लिये भी बनाया गया है। -- लेव टॉलस्टॉय, Letter to Vasily Botkin
- सफलता के लिये एक स्थिर राज्य चाहिये, स्थिर सरकार नहीं। -- Karolina Vidović-Krišto, quoted in the morning talk-show Dobro jutro Hrvatska of the Croatian Radiotelevision, 13th May 2018