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नीति

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नीतिशास्त्र मानव आचरण में सही या गलत क्या है, इसका अध्ययन है। यह दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जो नैतिक सिद्धांतों का अध्ययन करती है। नीतिशास्त्र समाज द्वारा प्रतिस्थापित मानंदड एवं नैतिक सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में उचित और अनुचित मानवीय कृत्यों एवं आचरण का अध्ययन करता है। व्यवहार की वह रीति जिससे अपना कल्याण हो और समाज को भो कोई बाधा न पहुँचे । वह चाल जिसे चलने से अपनी भलाई, प्रतिष्ठा आदि हो और दूसरे की कोई बुराई न हो । जैसे, जाकी घन धरती हरी ताहि न लीजै संग । साई तहाँ न बैठिए जहँ कोउ देय उठाय । (गिरिधर)

नीति के अन्य अर्थ हैं -- लोक या समाज के कल्याण के लिये उचित ठहराया हुआ आचार व्यवहार । लोकमर्यादा के अनुसार व्यवहार । सदाचार । अच्छी चाल । नय । राजा और प्रजा की रक्षा के लिये निर्धारित व्यवस्था । राज्य की रक्षा के लिये ठहराई हुई विधि । राजा का कर्तव्य । राजविद्या ।

भारत में नीतिशास्त्र की बड़ी पुरानी परम्परा रही है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। भर्तृहरि का नीतिशतक, चाणक्यनीति, विदुरनीति, शुक्रनीति, कामन्दकीय नीतिसार आदि अत्यन्त प्राचीन और प्रसिद्ध हैं। महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को नीतिशास्त्र की शिक्षा दी है जिसमें प्रजा के लिये कृषि, वाणिज्य आदि की व्यवस्था, अपराधियों को दण्ड, अमात्य, चर, गुप्तचर, सेना, सेनापति इत्यादि की नियुक्ति, दुष्टों का दमन, राष्ट्र, दुर्ग और कोश की रक्षा, धनिकों की देखरेख, दरिद्रों का भरण पोषण, युद्ध, शत्रुओं को वश में करने के साम, दाम, दंड, भेद ये चार उपाय, साधुओं की पूजा, विद्वानों का आदर, समाज और उत्सव, सभा, व्यवहार तथा इसी प्रकार की और बहुत सी बातें आई हैं । नीति विषय पर कई प्राचीन पुस्तकें हैं । जैसे, उशना की शुक्रनीति, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कामन्दकीय नीतिसार इत्यादि ।

शुक्राचार्य ने नीतिशास्त्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है-

क्रियैकदेशबोधीनि शास्त्राण्यन्यानि संति हि।
सर्वोपजीवकं लोक स्थिति कृन्नीतिशास्त्रकम्।
धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यतः॥ -- शुक्रनीति
अन्य जितने शास्त्र हैं वे सब व्यवहार के एक अंश को बतलाते हैं किन्तु सभी लोगों का उपकारक, समाज की स्थिति को सुरक्षित रखने वाला नीतिशास्त्र ही है क्योंकि यह धर्म, अर्थ तथा काम का प्रधान कारण और मोक्ष को देनेवाला कहा गया है।

कामन्दक द्वारा रचित नीतिसार में कहा गया है-

नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदधेः ।
समुद्दध्रे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे ॥ -- कामन्दकीय-नीतिसार १.६
उन बुद्धिमान विष्णुगुप्त (चाणक्य) को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अर्थशास्त्र के महान समुद्र से नीति-शास्त्र रूपी अमृत निकाला।

उक्तियाँ

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  • आत्मोदयः परज्यानिर्द्वयं नीतिरितीयती ।
तदूरीकृत्य कृतिभिर्वाचस्पत्यं प्रतायते॥ -- शिशुपालवध
अपना उदय और शत्रु की ग्लानि - यही दो नीतियाँ हैं। इसको जानने के बाद ही विद्वत्ता (वाचस्पत्य) आती है।
  • प्रागेव विग्रहो न विधिः -- पञ्चतन्त्र
पहले ही ( बिना साम, दान , दण्ड का सहारा लिये ही ) युद्ध करना कोई अच्छी नीति नहीं है।
  • शठे शाठ्यं समाचरतेत्।
दुष्ठ के साथ दुष्ठता का व्यवहार करना चाहिये।
  • बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीत।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती ।
सहज कृपन सन सुंदर नीति ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥ -- रामचरितमानस

चाणक्य के नीति के वचन

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  • ऋण, शत्रु और रोग को कभी छोटा नही समझना चाहिए और हो सके तो इन्हें हमेसा समाप्त ही रखना चाहिए।
  • भाग्य भी उन्ही का साथ देता है जो कठिन से कठिन स्थितियों में भी अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहते है।
  • अच्छे आचरण से दुखों से मुक्ति मिलती है विवेक से अज्ञानता को मिटाया जा सकता है और जानकारी से भय को दूर किया जा सकता है।
  • संकट के समय हमेसा बुद्धि की ही परीक्षा होती है और बुद्धि ही हमारे काम आती है।
  • अन्न के अलावा किसी भी धन का कोई मोल नही है और भूख से बड़ी कोई शत्रु भी नही है।
  • विद्या ही निर्धन का धन होता है और यह ऐसा धन है जिसे कभी चुराया नही जा सकता है और इसे बाटने पर हमेसा बढ़ता ही है।
  • फूलों की सुगन्ध हवा से केवल उसी दिशा में महकती है जिस दिशा में हवा चल रही होती है जबकि इन्सान के अच्छे गुणों की महक चारो दिशाओ में फैलती है।
  • उस स्थान पर एक पल भी नही ठहरना चाहिए जहा आपकी इज्जत न हो, जहा आप अपनी जीविका नही चला सकते है जहा आपका कोई दोस्त नही हो और ऐसे जगह जहा ज्ञान की तनिक भी बाते न हो।
  • दूसरे व्यक्ति के धन का लालच करना नाश का कारण बनता है।
  • व्यक्ति हमेसा हमे गुणों से ऊँचा होता है ऊचे स्थान पर बैठने से कोई व्यक्ति ऊचा नही हो जाता है।
  • हमेशा खुश रहना दुश्मनों के दुखो का कारण बनता है और खुद का खुश रहना उनके लिए सबसे सजा है।
  • अपने गहरे राज किसी से प्रकट नही करना चाहिए क्योंकि समय आने पर हमारे यही राज वे दूसरे के सामने खोल सकते हैं।
  • भविष्य की सुरक्षा के लिए धन का इकट्ठा करना आवश्यक है लेकिन जरूरत पड़ने पर इन धन को खर्च करना उससे कही अधिक आवश्यक होती है
  • मन से सोचे हुए काम किसी के सामने जाहिर करना खुद को लोगो के सामने हंसी का पात्र बनने के बराबर है यदि मन में ठान लिया है तो उसे मन में ही रखते हुए पूरे मन से करने में लग जाना ही बेहतर है।
  • जिसे समय का ध्यान नही रहता है यह व्यक्ति कभी भी अपने जीवन के प्रति सचेत नही हो सकता है।
  • धूर्त और कपटी व्यक्ति हमेसा हमे स्वार्थ के लिए ही दूसरे की सेवा करते है अतः इनसे हमेसा बचके ही रहना चाहिए।
  • सर्प के फन में, मक्खी के मुख में, बिच्छु के डंक में ही जहर भरा होता है जबकि दुष्ट व्यक्ति के पूरे शरीर में औरों के लिए जहर भरा होता है।
  • मित्रता सदा बराबर वालों से ही करना चाहिए अधिक धनी या निर्धन व्यक्ति से मित्रता कर लेने पर कभी कभी भरपाई करनी पड़ती है जो कभी भी सुख नही देती है।
  • अपनी कमियों को कभी भी दूसरे के सामने नही बताना चाहिए। ये अपने लिए ही अहितकर हो सकता है।

भर्तृहरि के नीति के वचन

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विदुर के नीति के वचन

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महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर नीति का प्रसंगवस वर्णन हुआ है। उनकी नीतियों में मानवता के श्रेष्ठ सिद्धान्त भरे हुए हैं।मान्यता के अनुसार, जो विदुर नीति का पालन अपने जीवन में अपना लेता है तो संसार में उससे सुखी और कोई नहीं हो स्कता।

  • सुलभाः पुरुषा रजन्! सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥
अप्रिय अर्थात् कठोर बोलने वाला, किन्तु पथ्य अर्थात् सही मार्ग बताने वाला, हितकारी बोलने वाला वक्ता इस संसार में दुर्लभ होते हैं और साथ ही ऐसी वाणी सुनने वाले श्रोता भी दुर्लभ होते हैं ।
  • यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥ []
जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है ।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥
ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्द्रा (उंघना ), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जाने वाले कामों में अधिक समय लगाने की आदत )- इन छ: दुर्गुणों को त्याग देना चाहिए।
  • षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः॥
मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव ), क्षमा तथा धैर्य – इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।
  • ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्याशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुः खिताः॥
ईर्ष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संकित रहने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवन-निर्वाह करने वाला – ये छः सदा दुखी रहते हैं।
  • अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता – ये आठ गुण पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं।
  • क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्।
नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥
ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं। किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।

कामन्दकीय नीतिसार

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शुक्रनीति

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रहीम के नीति के दोहे

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जे गरीब पर हित करैं, हे रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।१।
~ जो लोग गरिब का हित करते हैं वो बड़े लोग होते हैं. जैसे सुदामा कहते हैं कृष्ण की दोस्ती भी एक साधना हैं कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बड़े लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया। रहीम कहते हैं कि जो लोग गरीब मनुष्य के हित में कार्य करते हैं, सही मायने में वही बड़े लोग कहलाते हैं।

बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोले बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मम मोल।२।
~ जो लोग सचमुच में बड़े होते हैं, वे अपनी बड़ाई नहीं किया करते हैं। कभी आपने सुना है की हीरे ने खुद कहा हो कि मेरा मोल लाख टके का है।

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहिं सुजान।३।
~ वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और सरोवर भी अपना पानी स्वयं नहीं पीते हैं। रहीमदास कहते हैं कि अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के हित हेतु संपत्ति को संचित करते हैं। इसी में उनका बड़प्पन है।

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।४।
~ रहीम ने कहा की जिन लोगों का स्वभाव अच्छा होता हैं, उन लोगों को बुरी संगती भी कुछ बिगाड़ नहीं पाती, जैसे जहरीले साप सुगंधित चन्दन के वृक्ष को लिपटे रहने पर भी उस पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते हैं।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े जुड़े तो गाठ पड़ जाय।५।
~ प्रेम का नाता नाज़ुक होता है, इसे झटका देकर तोड़ना उचित नही होता। यदि यह प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है, तो फिर इसे मिलाना कठिन होता है और यदि मिल भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है।

बिहारी

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  • दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।

परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति॥
भाव- प्रेम की रीति अनूठी है। इसमें उलझते तो नयन हैं,पर परिवार टूट जाते हैं, प्रेम की यह रीति नई है इससे चतुर प्रेमियों के चित्त तो जुड़ जाते हैं पर दुष्टों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।

  • लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।

भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥
भाव- नायिका के अतिशय सौंदर्य का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि नायिका के सौंदर्य का चित्रांकन करने को गर्वीले ओर अभिमानी चित्रकार आए पर उन सबका गर्व चूर-चूर हो गया। कोई भी उसके सौंदर्य का वास्तविक चित्रण नहीं कर पाया क्योंकि क्षण-प्रतिक्षण उसका सौंदर्य बढ़ता ही जा रहा था।

  • गिरि तैं ऊंचे रसिक-मन बूढे जहां हजारु।

बहे सदा पसु नरनु कौ प्रेम-पयोधि पगारु॥
भाव- पर्वत से भी ऊंची रसिकता वाले प्रेमी जन प्रेम के सागर में हज़ार बार डूबने के बाद भी उसकी थाह नहीं ढूंढ पाए,वहीं नर -पशुओं को अर्थात अरसिक प्रवृत्ति के लोगों को वो प्रेम का सागर छोटी खाई के समान प्रतीत होता है।

  • स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।

बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि॥
भाव- हिन्दू राजा जयशाह, शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध किया करते थे, यह बात बिहारी कवि को अच्छी नही लगी तो उन्होंने कहा,-हे बाज़ ! दूसरे व्यक्ति के अहम की तुष्टि के लिए तुम अपने पक्षियों अर्थात हिंदू राजाओं को मत मारो। विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न यह शुभ कार्य है, तुम तो अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो।

  • कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।

इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय॥

  • भाव: - सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है, सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।


  • अंग-अंग नग जगमगत,दीपसिखा सी देह।

दिया बढ़ाए हू रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह॥
भाव- नायिका का प्रत्येक अंग रत्न की भाँति जगमगा रहा है,उसका तन दीपक की शिखा की भाँति झिलमिलाता है अतः दिया बुझा देने पर भी घर मे उजाला बना रहता है।

  • कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।

तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ॥
भाव- है प्रभु ! मैं कितने समय से दीन होकर आपको पुकार रहा हूँ और आप मेरी सहायता नहीं करते। हे जगत के गुरु, जगत के स्वामी ऐसा प्रतीत होता है मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो।

  • या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।

ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ॥
भाव- इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है,वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद अधिक निर्मल हो जाते हैं।

  • जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।

कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात॥
भाव- नायिका अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती है कि मेरे नेत्र यश-अपयश की चिंता किये बिना मात्र साँवले-सलोने कृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं विवश हो जाती हूँ कि क्या करूं क्योंकि कृष्ण के दर्शनों के लालच से भरे मेरे चंचल नयन बार -बार उनकी ओर चल देते हैं।

  • मेरी भाव-बाधा हरौ,राधा नागरि सोइ।

जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ॥
भाव- कवि बिहारी अपने ग्रंथ के सफल समापन के लिए राधा जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मेरी सांसारिक बाधाएँ वही चतुर राधा दूर करेंगी जिनके शरीर की छाया पड़ते ही साँवले कृष्ण हरे रंग के प्रकाश वाले हो जाते हैं। अर्थात–मेरे दुखों का हरण वही चतुर राधा करेंगी जिनकी झलक दिखने मात्र से साँवले कृष्ण हरे अर्थात प्रसन्न जो जाते हैं।

  • कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।

भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु॥
भाव- जिस प्रकार पानी मे नमक मिल जाता है,उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण का रूप समा गया है। अब कोई कितना ही यत्न कर ले, पर जैसे पानी से मनक को अलग करना असंभव है वैसे ही मेरे हृदय से कृष्ण का प्रेम मिटाना असम्भव है।

  • तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।

तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान॥
भाव- राधा को यूँ प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्ण किसी अन्य स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है -हे राधिका अच्छे से जान लो,कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई हो।

  • कहत,नटत, रीझत,खीझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन में करत है,नैननु ही सब बात।
भाव- गुरुजनों की उपस्थिति के कारण कक्ष में नायक-नायिका मुख से वार्तालाप करने में असमर्थ हैं। आंखों के संकेतों के द्वारा नायक नायिका को काम-क्रीड़ा हेतु प्रार्थना करता है,नायिका मना कर देती है,नायक उसकी ना को हाँ समझ कर रीझ जाता है। नायिका उसे खुश देखकर खीझ उठती है। अंत मे दोनों में समझौता हो जाता है। नायक पुनः प्रसन्न हो जाता है। नायक की प्रसन्नता को देखकर नायिका लजा जाती है। इस प्रकार गुरुजनों से भरे भवन में नायक-नायिका नेत्रों से परस्पर बातचीत करते हैं।

  • पत्रा ही तिथि पाइये,वा घर के चहुँ पास।

नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास॥
भाव- नायिका की सुंदरता का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि नायिका के घर के चारों ओर पंचांग से ही तिथि ज्ञात की जा सकती है क्योंकि नायिका के मुख की सुंदरता का प्रकाश वहाँ सदा फैला रहता है जिससे वहां सदा पूर्णिमा का स आभास होता है।

  • कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।

मो संपति जदुपति सदा,विपत्ति-बिदारनहार॥
भाव- भक्त श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति करोड़ एकत्र करे या लाख-हज़ार, मेरी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं है। मेरी संपत्ति तो मात्र यादवेन्द्र श्रीकृष्ण हैं जो सदैव मेरी विपत्तियों को नष्ट कर देते हैं।

  • कहा कहूँ बाकी दसा,हरि प्राननु के ईस।

विरह-ज्वाल जरिबो लखै,मरिबौ भई असीस॥
भाव- नायिका की सखी नायक से कहती है- हे नायिका के प्राणेश्वर ! नायिका की दशा के विषय में तुम्हें क्या बताऊँ,विरह-अग्नि में जलता देखती हूँ तो अनुभव करती हूँ कि इस विरह पीड़ा से तो मर जाना उसके लिए आशीष होगा।

  • जपमाला,छापें,तिलक सरै न एकौकामु।

मन कांचे नाचै वृथा,सांचे राचै रामु॥
भाव- आडंबरों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए बिहारी कहते हैं कि नाम जपने की माला से या माथे पर तिलक लगाने से एक भी काम सिद्ध नहीं हो सकता। यदि मन कच्चा है तो वह व्यर्थ ही सांसारिक विषयों में नाचता रहेगा। सच्चा मन ही राम में रम सकता है।

  • घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।

दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई॥
भाव- लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि लोभी ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है। लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।

  • मोहन-मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोई।

बसतु सु चित्त अन्तर, तऊ प्रतिबिम्बितु जग होइ॥
भाव- कृष्ण की मनमोहक मूर्ति की गति अनुपम है। कृष्ण की छवि बसी तो हृदय में है और उसका प्रतिबिम्ब सम्पूर्ण संसार मे पड़ रहा है।

  • मैं समुझयौ निरधार,यह जगु काँचो कांच सौ।

एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ॥
भाव- बिहारी कवि कहते हैं कि इस सत्य को मैंने जान लिया है कि यह संसार निराधार है। यह काँच के समान कच्चा है अर्थात मिथ्या है। कृष्ण का सौन्दर्य अपार है जो सम्पूर्ण संसार मे प्रतिबिम्बित हो रहा है।

विविध

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  • येषां बाहुबलं नास्ति येषां नास्ति मनोबलम्।
तेषां चन्द्रबलं देव किं कुर्यादम्बरस्थितम्॥ (यशस्तिलकम् )
हे राजन्! जिनका स्वयं का शारीरिक बल नहीं है और मानसिक बल भी नहीं हैं, हे देव, उनके लिये गगन में स्थित चन्द्रबल भी क्या भला कर सकता है?
  • इमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति है। -- अज्ञात

सन्दर्भ

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