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क्षत्रिय

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क्षत्रिय, हिन्दुओं के चार वर्णों में से एक वर्ण है। महर्षि यास्क, अपने ग्रन्थ 'निरुक्त' में "क्षतात त्रायते इति क्षत्रियः" कहा है जिसका अर्थ है- क्षति (अर्थात् पाप, अधर्म, कष्ट, शत्रु आदि सर्व प्रकार की क्षति) से जो रक्षा करता है वह क्षत्रिय कहलाता है।

उक्तियाँ

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  • बाह्वायत्तं क्षत्रियैर्मानवानां लोकश्रेष्ठं धर्ममासेवमानैः ।
सर्वे धर्माः सोपधर्मास्त्रयाणां राज्ञो धर्मादिति वेदाच्छृणोमि ॥ महाभारत, शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व २४)
मानवों में क्षत्रियों द्वारा वहन किया जाने वाला धर्म सबसे श्रेष्ठ धर्म है। उसका सेवन करने वाले क्षत्रिय मानवमात्र की रक्षा करते हैं। अतः तीनों धर्मों के उपधर्मों सहित जो अन्यान्य समस्त धर्म हैं, वे राजधर्म से ही सुरक्षित रह सकते हैं, यह मैंने वेदशास्त्र से सुना है।[]
  • क्षतात् किलत्रायत इत्युग्रह,
क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढा। -- कालिदास
विनाश या हानि से रक्षा करने के अर्थ में यह क्षत्रिय शब्द सारे भुवनों में प्रसिद्व है।
  • धृतव्रता क्षत्रिय यज्ञनिष्कृतो बृहदिना अध्वं राणभर्याश्रियः।
अग्नि होता ऋत सापों अदु हो सो असृजनु वृत्र तये ॥ -- ऋग्वेद
क्षत्रिय नियमों का पालक, यज्ञ करने वाला, शत्रुओं का संहारक, युद्व में सधैर्य और युद्व क्रियाओं का ज्ञाता होता है।
  • शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥ -- गीता 18.43
शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव -- ये सब के सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।
  • स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥ -- गीता 2.31
अपने स्वधर्म (क्षात्रधर्म) को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है।
  • यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥ -- गीता, अध्याय 2 श्लोक 32
वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं।
  • युद्धाय क्षत्रियो जातो न राज्यमुपभोग्यते ।
धर्ममूलं यशोऽस्यास्ति तस्मात् क्षत्रिय उच्यते ॥ -- मनुस्मृति 7.88
क्षत्रिय केवल राज्य का भोग करने के लिए उत्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि वह युद्ध और धर्म के लिए बना है।
  • अत्यन्तं च क्षमा न कार्य्या वैरं क्षत्रेण बन्धुभिः ।
धर्मेणैव हि क्षत्रस्य हन्तव्यो रिपुराहवे ॥ -- मनुस्मृति 7.90
क्षत्रिय को अत्यधिक क्षमा नहीं करनी चाहिए, न ही अपने कुल में आपसी वैर रखना चाहिए। उसे धर्मपूर्वक युद्ध में शत्रु को मारना चाहिए।
  • क्षत्रियो हि प्रजा रक्षञ्शस्त्रपाणिः प्रदण्डवान्।
निर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत्॥ -- पराशर
क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे। इसीलिए उसे शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है । अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक धरती का पालन करना चाहिए।
  • बारह बरस लौ कूकर जीवै, अरु सोरह लौ जियै सियार।
बरस अठारह क्षत्री जीवै, आगे जीवै को धिक्कार॥ -- आल्हखण्ड
  • सीधो रजवट परखनो, ऐ रजवट अहनान।
प्राण जठेई रजवट नहीं , रजवट जठे न प्राण ॥ -- राजस्थान के रजवट साहित्य में
  • शस्त्रेण रक्षिते राज्ये, शास्त्रचिंता प्रवर्तते ॥
जब राज्य शस्त्र से सुरक्षित कर दिया जाता है, तब वहा की प्रजा शास्त्र का चिन्तन-मन करने के लिये उद्यत होता है।
  • क्षत्रिय, क्षत्रिय केवल इसलिये नहीं होते थे कि वे योद्धाओं या राजाओं के पुत्र थे, बल्कि इसलिये कि वे देश की रक्षा करने के धर्म का पालन करते थे और अत्यधिक साहस रखते थे। इसके साथ ही वे अपने अन्दर राजपुत्र जैसा मनःस्थिति विकसित करते थे और युद्ध का प्रशिक्षण लेकर स्वयं को क्षत्रिय धर्म का पालन करने के योग्य निर्मित करते थे। -- अरविन्द घोष
  • राजनीति, क्षत्रियों का धर्म है और यदि हम स्वतन्त्रता के अधिकारी बनना चाह्ते हैं तो हम सबको अपने अन्दर क्षत्रियों के गुण विकसित करना चाहिये। -- अरविन्द घोष, अपने पत्र 'वन्दे मातरम' में सन १९०७ में
  • सर्वे धर्माः राजधर्म प्रधानाः ।
सर्वो हि लोको नृपधर्भमूलः ॥
  • सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधानाः
सर्वे वर्णा: पाल्यमाना भवन्ति ।
सर्वत्यागो राजधर्मेषु रार्ज
स्त्यागं धर्मं चाहुरग्रयं पुराणम्॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व २7)
The royal duties are the foremost of all duties. All the castes are protected by them. Every sort of Renunciation is included in kingly duties, O king, and Renunciation has been declared to be an eternal virtue and the foremost of all.
  • मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्माः प्रक्षयेयुर्विबुद्धाः ।
सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः स्युः क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे ॥ २८ ॥
If the science of punishment disappears, the Vedas will be lost. All these scriptures also describing the duties of men become lost. Indeed, if these ancient duties on the Kshatriyas be abandoned, all the duties of all the modes of life, become lost.
  • सर्वे त्यागा राजधर्मेषु दृशः सर्वा दीक्षा राजधर्मेषु चोक्ताः ।
सर्वा विद्या राजधर्मेषु युक्ताः सर्वे लोका राजधर्मे प्रविष्टाः ॥ २९ ॥
All sorts of renunciation are in kingly duties; all kinds of initiation are in them; all sorts of learning are connected with them; and all sorts of worldly conduct are in them.
  • यथा जीवाः प्राकृतैर्वध्यमाना धर्मश्रुतानामुपपीडनाय ।
एवं धर्मा राजधर्मैर्वियुक्ताः संचिन्वन्तो नाद्रियन्ते स्वधर्मम् ॥ ३० ॥
As animals, killed by the vulgar, become the instrument of destroying the virtue and the religious acts of the destroyer so all other duties, if deprived of the protection offered by kingly duties, become subject to attack and destruction, and men, full of anxiety, neglect the practices laid down for them.
  • छत्रिय तनु धरि समर सकाना, कुल कलंकु तेहिं पावर आना॥
कहऊं सुभाऊ न कुलहि प्रसंसी, कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥ -- रामचरितमानस, 'परशुराम-राम संवाद' में
( रामचंद्र जी कहते हैं कि ) क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्घ में डर गया, उस नीच ने अपने कुल को कलंक लगा लिया। मैं अपना स्वभाव कहता हूँ, कुल की बड़ाई नहीं करता कि रघुवंशी रण में काल से भी नही डरते।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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