ऐ मनुष्यो! तुम लोगों की पानी पीने की तथा भोजन करने की एक ही जगह हों, समान धुरा मैं मैंने तुम सबको समानता से जोत दिया है। जिस प्रकार एक चक्र के बीच आरे जमे रहते हैं उसी प्रकार तुम भी एक जगह एकत्रित होकर अग्नि मैं हवन करो।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम ।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ॥ -- मनुस्मृति १०.६५
विद्या (कर्म) के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं।
जन्मना जायतेशूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।
वेद्भ्यासी भवेद्विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः॥
जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं। द्विज कहलाता उनके संस्कारों की वजह से है। यदि वह वेदाध्ययन करने वाला है तो वह विप्र कहलायेगा और जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण कहलाता है।
सामग्रयानुष्ठाननयुणौः सयम्राः
शूद्रायतः सन्ति समाद्विजानाम्
तस्माद्विशेषो द्विजशूद्रनाम्नो-
नाध्यात्मिको बाह्यनिमित्तकोवा । -- भविष्यपुराण
सामान्य शूद्र और सामान्य ब्राह्मण, ये दोनों सामग्री और अनुष्ठान समान ही है, इसीलिये ब्राह्मण और शूद्र भी वाध्य या आध्यात्मिक कोई भेद नहीं हैं।
तस्मान्नच विभेदोऽस्ति न वहिर्मान्तरात्मनि!
न सुखादौ न चाश्वैर्ये नाज्ञाया न भयेष्वपि।
न वीर्ये नाकृतौ नाक्षे न व्यापारे न चायुषि।
नाँगे पुष्टे न दौर्बल्ये न स्थैर्ये नापि चापले।
न प्रज्ञाया न वैरग्ये न धैर्ये न पराक्रमे॥
न त्रिवर्गे न नैपुण्ये न रुपादौ न भेषजे।
न स्त्रीगर्भे न गमते न दह मलसंप्लवं।
नास्थि रंध्रे न च प्रेम्णि न प्रमाणे न लोमसु ॥ -- भविष्यपुराण
जाति-भेद में और सम्प्रदाय-सम्प्रदाय में कोई भेद नहीं है। भेद न तो बाहर है न भीतर, न सुख में, न ऐश्वर्य में, न आज्ञा में, न भय में, न वीर्य में, न आकृति में, न ज्ञान-दृष्टि में, न व्यापार में, न आयु में, न अंग की पुष्टि में, न दुर्बलता में, न स्थिरता में, न चंचलता में, न बुद्धि में, न वैराग्य में, न रूपादि में, न औषध में, न स्त्रीगर्भ में, न गमन में, न देह के मल-मोचन में, न हड्डी के छेद में, न प्रेम में, न प्रमाण में और न लोभ में।
न योनिर्नापि संस्कारों न श्रुतिर्नच सन्ततिः।
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमिव तु कारणम्।
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितश्च शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं चगच्छति।
ब्रह्मत्वभावः सुश्रोणि, समः सर्वत्र में मतः।
निगुणाँ निमलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः॥ -- ब्रह्मपुराण
जाति, संस्कार श्रुति और स्मृति से कोई द्विज नहीं होता, केवल चरित्र से ही होता है। इस लोक में चरित्र से ही सबके ब्राह्मणत्व का विधान है। सद्वृत्त में स्थित शूद्र भी ब्राह्मणता को प्राप्त होता है। ब्राह्मण वही है जिसमें निर्मल, निर्गुण ब्रह्मज्ञान हो।
अर्थात्- दुष्कर्म करने से द्विज वर्णस्थ अपने वर्णस्थान से पतित हो जाता है। अतः बड़े वर्ण को प्राप्त करके द्विज को उसकी रक्षा करनी चाहिये (उसके अनुरूप आचरण करना चाहिये।)
वैश्य वाले कर्म करने वाला द्विज वैश्य हो जाता है और शूद्र का काम करने वाला वैश्य, शूद्र वर्ण का हो जाता है। अपने धर्म से प्रच्युत विप्र वैसेवैसे शूद्र हो जाता है।
हे देवि ! इन कर्मों के पालन करने से तथा शुभ आचरण से शूद्र भी ब्राह्मण बन जाता है और वैश्य क्षत्रिय हो जाता है।
शूद्रे तु यत् भवेत् लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते।
न वै शूद्रो भवेत् शूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः॥ -- महाभारत, वनपर्व 180.19; शान्तिपर्व 188.1
अर्थात्-शूद्र में जो लक्षण या कर्म होते हैं वे ब्राह्मण में नहीं होते। ब्राह्मण के कर्म और लक्षण शूद्र में नहीं होते। यदि शूद्र में शूद्र वाले लक्षण न हों तो वह शूद्र नहीं होता और ब्राह्मण में ब्राह्मण वाले लक्षण न हों तो वह ब्राह्मण नहीं होता। अभिप्राय यह है कि लक्षणों और कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति उस वर्ण का होता है जिसके लक्षण या कर्म वह ग्रहण कर लेता है।
यदि एक पिता के चार पुत्र हो तो उन पुत्रों की एक जाति होनी चाहिये। इसी प्रकार सबका पिता एक ही परमेश्वर है अतः मनुष्य समाज में भी जाति भेद बिल्कुल नहीं होना चाहिये। जिस प्रकार एक ही गूलर के वृक्ष के अग्रभाग, मध्यभाग तथा पींड में वर्ण, आकृति, स्पर्श तथा रस इन बातों में एक से फल लगते हैं उसी प्रकार एक विराट् पुरुष परम ब्रह्म परमेश्वर से उत्पन्न हुये मनुष्यों में भी किसी प्रकार का जातिभेद नहीं हो सकता।
हे युधिष्ठिर! इस जगत में पहले एक ही वर्ण था। आगे चलकर गुणकर्म के विभाग हो जाने से चार वर्ण हुए। सब मनुष्य योनि से ही उत्पन्न हुए हैं, सब लोगों की उत्पत्ति रज और वीर्य के मिश्रण से ही है। सबकी इन्द्रियाँ समान हैं। इसलिये जन्म से जातिभेद मानना ठीक नहीं। जिस मनुष्य में शील की प्रधानता होती है, वह द्विज कहलाता है। यदि शूद्र शीलवान हो तो उसे द्विज ही समझना चाहिये और यदि ब्राह्मण शीलता से परे हो तो उसे शूद्र से भी नीच समझना चाहिये।
अधम योनिजा कन्या अक्षमाला वशिष्ठ के साथ युक्त होकर और तिर्यक् कन्या शारंगी मंदपाल ऋषी की परिणीता होकर मान्या पदवी को प्राप्त हुई थी इनके सिवा और अनेक नारियाँ निकृष्ट कुल में उत्पन्न होकर भी पति के महद्गुण के कारण उत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर गई थीं।
एवं प्रजानाँ हि पितेक एव पित्रैकभावान्न च जातिभेदः॥ -- भविष्य पुराण
चलना, फिरना, शरीर, वर्ण केश, सुख दुख रक्त , त्वचा, माँस, मेद, अस्थि रस-इनमें सभी तो समान हैं, फिर चार वर्णों का भेद कहाँ है? वर्ण, प्रमाण आकृति, गर्भवास, वाक्य, बुद्धि कर्म, इन्द्रिय, प्राणशक्ति धर्म,अर्थ,काम,व्याधि, औषधि-इनमें कहीं भी तो जातिगत प्रभेद नहीं है। जिस प्रकार एक ही पिता के चार पुत्रों की जाति एक ही होती है उसी प्रकार सभी प्रजाओं का वह भगवान एकमात्र पिता है। इसीलिये जातिभेद नहीं हैँ।