शूद्र
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प्राचीन भारतीय वर्ण व्यवस्था में समाज को चार वर्णों में बाँटा गया था, जिसमें शूद्र भी एक था। अन्य तीन वर्ण ये थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- सिद्धान्त रूप में यद्यपि शूद्रों की स्थिति बहुत निम्न थी, लेकिन इस बात के प्रमाण भी हैं कि बहुत से शूद्र बहुत सम्पन्न थे। उनमें से कुछ तो अपनी बेटियों का विवह रजकुलों में करने में सफल हुए थे। दशरथ की एक रानी सुमित्रा वस्तुतः शूद्र थीं। कुछ शूद्र तो राजा भी बने। परम्परागत रूप से यही माना जाता है कि प्रसिद्ध चन्द्रगुप्त शूद्र ही थे। -- जी सी घुर्ये, Caste and Race in India
- शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवाक्-अनहंकृतः।
- ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥ -- मनुस्मृति 9.335
- स्वच्छ-पवित्र और उत्तमजनों के संग में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों के आश्रय में रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम जाति (=वर्ण) को प्राप्त कर लेता है।
- विप्राणां वेदविदुषां गूहस्थानां यशस्विनाम्
- शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥ -- मनुस्मृति (9.334)
- वेदों के विद्वान् द्विजों, तीनों वर्णों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी कर्त्तव्य है।[१]
इन्हें भी देखें
[सम्पादन]सन्दर्भ
[सम्पादन]- ↑ [ahttp://aryamantavya.in/manu-ke-mat-men-shudra/ मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार]