निन्दा

विकिसूक्ति से
  • न विना परवादेन रमते दुर्जनो जनः।
श्वा हि सर्वरसान् भुक्त्वा विनामेध्यं न तृप्यति॥ -- वल्लभदेव सुभाषित
लोगों की निन्दा किये बिना दुष्ट व्यक्तियों को आनन्द नहीं आता। जैसे कौवा सब रसों का भोग करता है परन्तु गंदगी के बिना उसकी तृप्ति नहीं होती ।
  • स हानिं लभते मन्दो यस्तुङ्गं परिनिन्दति।
धूलिं क्षिपति यो भानौ तस्यास्ति मलिनं मुखम्॥
वह मन्द व्यक्ति स्वयं को ही नुकसान पहुँचाता है जो महापुरुष (तुङ्ग) की घोर निन्दा करता है। जो व्यक्ति सूर्य की तरफ धूल फेंकता हैं, उसी का मुख मलिन होता है।
  • तुल्यनिन्दास्तुतिर्मानी संतुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ -- भगवद्गीता
जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।
  • पूरे संसार को वश में वही व्यक्ति कर सकता है, जो किसी की निंदा नहीं करता हो। -- चाणक्य
  • निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥ -- कबीरदास(?)
जो हमारी निन्दा करता है, उसे अपने अधिक से अधिक पास ही रखना चाहिए क्योंकि वह बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बताकर हमारे स्वभाव को साफ कर देता है।
  • खलन्ह हृदयँ अति ताप विसेसी । जरहिं सदा पर संपत देखी ।
जहँ कहुँ निंदासुनहि पराई । हरसहिं मनहुँ परी निधि पाई ॥
दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है । वे दूसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं । दुसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैं जैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो ।
  • तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ॥ -- रामचरितमानस
जो लोग दूसरों की निन्दा करके खुद सम्मान पाना चाहते हैं । ऐसे लोगों के मुँह पर ऐसी कालिख लग जाती है, जो लाखों बार धोने से भी नहीं हटती है ।
  • पर द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद ।
तें नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥ -- रामचरितमानस
वे दूसरों के द्रोही, परायी स्त्री और पराये धन पर जिनकी कुदृष्टि रहती है, तथा पर निंदा में लीन रहते हैं, वे पामर और पापयुक्त मनुष्य शरीर में राक्षस होते हैं ।
  • आलोचना और दूसरों की बुराइयां करने में बहुत अन्तर है। आलोचना निकट लाती है और बुराई दूर करती है। -- प्रेमचंद
  • दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता जितना अपने को बचाता है। -- स्वामी रामतीर्थ
  • दूसरों में ताकत तलाशना कहीं अधिक उपयोगी है। आप उनकी खामियों की आलोचना करने से कुछ हासिल नहीं कर सकते। -- दैसाकु इकेदा
  • कोई भी मूर्ख आलोचना, निंदा और शिकायत कर सकता है लेकिन समझने और क्षमा करने के लिए चरित्र और आत्म-संयम की आवश्यकता होती है। -- डेल कार्नेगी
  • कोई भी मूर्ख आलोचना, निंदा और शिकायत कर सकता है और ज्यादातर मूर्ख करते हैं। -- बेंजामिन फ्रैंकलिन
  • आलोचना लोगों की अस्वीकृति है, दोष होने के लिए नहीं, बल्कि अपने से अलग दोष होने के कारण। -- अज्ञात

इन्हें भी देखें[सम्पादन]