आलोचनात्मक चिन्तन

विकिसूक्ति से
  • प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्तावयव तर्क निर्णय वाद जल्प वितण्डा हेत्वाभास च्छल जति निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्श्रेयसाधिगमः ॥ -- अक्षपाद गौतम, न्यायसूत्र
अर्थ : प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से निःश्रेयस (मोक्ष) प्राप्त होता है।
  • इति खो, कालामा, यं तं अवोचुंह एथ तुम्हे, कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकार परिवितक्केन , मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरूति। यदा तुम्हे, कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ – इमे धम्मा कुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्ञुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीsति, अथ तुम्हें, कालामा, पजहेय्याथ। -- केसमुत्ति सुत्त, त्रिपिटक
अर्थ : हे कालामाओ ! ये सब मैंने तुमको बताया है, किन्तु तुम इसे स्वीकार करो, इसलिए नहीं कि वह एक अनुविवरण है, इसलिए नहीं कि एक परम्परा है, इसलिए नहीं कि पहले ऐसे कहा गया है, इसलिए नहीं कि यह धर्मग्रन्थ में है। यह विवाद के लिए नहीं, एक विशेष प्रणाली के लिए नहीं, सावधानी से सोचविचार के लिए नहीं, असत्य धारणाओं को सहन करने के लिए नहीं, इसलिए नहीं कि वह अनुकूल मालूम होता है, इसलिए नहीं कि तुम्हारा गुरु एक प्रमाण है, किन्तु तुम स्वयं यदि यह समझते हो कि ये धर्म (धारणाएँ) शुभ हैं, निर्दोष हैं, बुद्धिमान लोग इन धर्मों की प्रशंसा करते हैं, इन धर्मों को ग्रहण करने पर यह कल्याण और सुख देंगे, तब तुम्हें इन्हें स्वीकर करना चाहिए।
  • यदस्तिनास्तीति य एष संशयः परस्यवाक्यैर्न ममात्र निश्चयः। अवेत्य तत्त्वं तपसा शमेन च स्वयं ग्रहीष्यामि यदत्र निश्चितम्॥ -- बुद्धचरितम्
क्या (यथार्थ) है और क्या (यथार्थ) नहीं है – इस संशय में दूसरों के वाक्य (ज्ञान) मेरे लिए निश्चय नहीं हैं। अपनी तपस्या और इन्द्रिय संयम से मैं उस निश्चय (यथार्थ) को स्वयं ग्रहण करूँगा॥
  • तापाच्चछेदाच्चनिकषात्सुवर्णमिव पण्डितैः।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् -- (शान्तरक्षित कृत तत्त्वसङ्ग्रह/३५८८)
(भगवान बुद्ध अपने शिष्यों से कहते हैं कि) जिस तरह स्वर्ण की परीक्षा उसे गरम करके, छेद करके और कसौटी पर कसकर किया जाता है, उसी प्रकार पण्डितों द्वारा मेरी बात की अच्छी तरह परीक्षा करके ही इसे ग्रहण करना चाहिये, इसलिये नहीं कि मैं बड़ा आदमी हूँ।
  • युक्तियुक्तं वचं ग्राह्यं न तु पुरुषगौरवात् ॥ -- भास्कराचार्य
  • आलोचनात्मक चिन्तन का उद्देश्य है, पुनर्चिन्तन, अर्थात विचार की समीक्षा करना, उसका मूल्यांकन करना और उसका पुनः स्मराण करना। -- Jon Stratton (1999) Critical Thinking for College Students.

इन्हें भी देखें[सम्पादन]