न्याय सूत्र

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न्याय सूत्र प्राचीन भारतीय ग्रन्थ है जिसकी रचना अक्षपाद गौतम द्वारा की गई है। यह न्याय दर्शन नामक हिन्दू दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना कब और किसके द्वारा हुई, यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है। लेकिन विभिन्न विद्वानों ने 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी ई के बीच इसकी रचना होने का अनुमान लगाया है। यह भी सम्भावना है कि इस ग्रन्थ की सामग्री एक से अधिक लोगों द्वारा रचित है। इस ग्रन्थ के ५ भाग हैं और प्रत्येक भाग में दो अध्याय हैं, जिसमें कुल 528 सूत्र सूत्र हैं, जो तर्क, ज्ञानमीमांसा और तत्वमीमांसा के नियमों के बारे में हैं।

न्याय दर्शन वस्तुतः ज्ञान प्राप्ति की तर्कयुक्त समीक्षात्मक प्रणाली है। युक्तियुक्त विचार करना तथा आलोचनात्मक दृष्टि से सोचना इसकी दार्शनिक प्रक्रिया की विशेषता है। न्यायशास्त्र आत्मा के दर्शन या ज्ञान का एक सशक्त उपागम है। तर्क या प्रमाण प्रस्तुत करने की विद्या ही न्याय है। वात्स्यायन ने न्याय सूत्र पर भाष्य लिखा है जिसमें न्याय का तात्पर्य अर्थ या वस्तु-तत्व की परीक्षा बताया गया है। न्याय से तात्पर्य ऐसे तर्क-युक्त साधनों से है जिनके द्वारा ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है। [१]

न्याय-दर्शन में शिक्षा का अभिप्राय तर्क पर आधारित विद्या और ज्ञान से है। न्याय शब्द का अर्थ है- "नीयते अनेन इति न्यायः" अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा मस्तिष्क एक निष्कर्ष तक पहुँच सके। इस प्रकार न्याय, ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया है। न्यायदर्शन में इन्द्रियजन्य ज्ञान पर बल दिया गया है। इन्द्रियजन्य ज्ञान, बिना मस्तिष्क के सम्भव नहीं होता। शिक्षा और सीखना इंद्रियजन्य ज्ञान प्राप्त करने प्रक्रिया है।

न्याय-दर्शन के अनुसार शिक्षा का एक अन्य अभिप्राय भी है आन्वीक्षिकी अर्थात् तर्क के द्वारा किसी विषय का अनुसंधान करना। इस प्रकार शिक्षा विद्या अथवा जान तक सीमित न रहकर एक सीढ़ी और ऊपर उठते हुए अनुसंधान का पर्याय बन जाती है।

उद्धरण[सम्पादन]

  • प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्त अवयव तर्क निर्णय वाद जल्प वितण्डा हेत्वाभास च्छल जति निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्श्रेयसाधिगमः ॥ -- अक्षपाद गौतम, न्यायसूत्र
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से निःश्रेयस (मोक्ष) प्राप्त होता है।
  • प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः। -- न्यायसूत्र के भाष्यकार महर्षि वात्स्यायन
प्रमाण के द्वारा किसी अर्थ (सिद्धान्त) की परीक्षा करना ही न्याय है।
  • प्ररदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।
आश्रयः सर्वधर्माणां शाश्वदान्वीक्षिकी मता॥ -- वात्स्यायनकृत न्यायभाष्य 1/1/1 तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र, विद्योद्देश प्रकरण
आन्विक्षिकी (न्यायविद्या) समस्त विद्याओं का प्रदीप,सब कर्मों का उपाय, तथा सब धर्मों का आश्रय मानी गयी है।
  • प्रमाणादिव्यवस्थेयमनादिनिधनात्मिका।
सर्वसंव्यवहर्तृणां प्रसिद्धापि प्रकीर्तिता॥ -- आचार्य सिद्धसेन
यह प्रमाण आदि की व्यवस्था अनादिनिधन है और इसका व्यवहार करने वाले सभी लोगों में अत्यन्त प्रसिद्ध है, तथापि यहाँ उसे हमने पुनः कहा है।
  • बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितै-
र्माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायोगुणद्वेषिभिः।
न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते,
सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः॥ -- आचार्य अकलंकदेव
अहो, आत्महिताभिलाषी जीवों के पूर्वोपार्जित महापाप कर्म के उदय से, अविद्या-अंधकार के माहात्म्य से और स्वयं कलियुग के प्रभाव से वर्तमान में गुणद्वेषी लोगों ने न्याय को मलिन कर दिया है। तथापि धन्य हैं वे अनुकम्पा-परायण आचार्य जो आज भी उसे किसी प्रकार सम्यग्ज्ञानरूपी जल से प्रक्षालित करते हुए आगे लिए चले जा रहे हैं।
  • न ह्यत्र रोचते न्यायमीर्ष्यादूषित चेतसे। -- क्षत्रचूड़ामणि
न्याय उन्हें अच्छा नहीं लगता जिनका मन ईर्ष्यादूषित है।
  • प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। -- न्यायसूत्र
प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द - ये (चार) प्रमाण हैं।
  • इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानम् अव्यपदेश्यम् अव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् -- न्यायसूत्र १।१।४
प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न ज्ञान है जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक होता है।
  • आत्म शरीरेन्द्रियार्थ बुद्धि मनः प्रवृत्ति दोष प्रेत्यभाव फल दुःखापवर्गाः तु प्रमेयम् -- न्यायसूत्र
आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग -- ये प्रमेय हैं।
  • नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थेन्यायः प्रवर्तते किं तर्हि संशयितेऽर्थे -- वात्स्यायनकृत न्यायभाष्य
उपलब्ध अथवा निर्णीत अर्थ में न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है अपितु सन्दिग्ध अर्थ में ही न्यायशास्त्र की प्रवृत्ति होती है।
  • अविज्ञाततत्तवेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्तवज्ञानार्थमूहस्तर्कज्जः -- (न्याय दर्शन 1.1.42)
जिस अर्थ का तत्व निर्णीत न हो उसके तत्त्वज्ञान के लिए युक्ति पूर्वक किए जानेवाले "ऊह" ज्ञान का नाम है "तर्क"।
  • प्रमाणतर्कसाधनोपलम्भः सिद्धान्त-अविरुद्धः पञ्चवयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः। -- न्यायसूत्र

न्याय सूत्रों के बारे में उद्धरण[सम्पादन]

  • भारतीय न्यायपालिका अपना न्यायशास्त्र एंग्लो-सैक्सन मॉडल से लेती है जो अरस्तू के लॉजिक (तर्कशास्त्र) और फारसी तर्क पर आधारित है। जब मैंने भारतीय न्याय शास्त्र के बारे में पढ़ा, तो मैंने पाया कि यह अरस्तू की प्रणाली से कुछ भी कम नहीं है। अपने पूर्वजों की प्रतिभा को त्यागने, अनदेखा करने और लाभ न उठाने के पीछे मुझे कोई कारण नहीं दिखता। -- शरद अरविन्द बोबडे (भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश), अप्रैल 2021

सन्दर्भ[सम्पादन]

इन्हें भी देखें[सम्पादन]