दुर्जन

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दुर्जन अर्थात दुष्ट व्यक्ति। धूर्त, शठ, खल, दुष्ट, असन्त आदि इसके पर्याय हैं।

सूक्तियाँ[सम्पादन]

  • सर्पदुर्जनरोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः ।
सर्प दशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे ॥
सर्प एवम् दुर्जन के मध्य तुलना करें तो दुर्जन से सर्प अच्छा है क्योंकि सर्प कभी-कभार समय आने पर काटता है परन्तु दुर्जन पद-पद पर समय काटता रहता है।
  • आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण,
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्ध भिन्ना ,
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥
दुष्टों और सज्जनों की मित्रता दिन की छाया की तरह होती है। जिस प्रकार मध्यान्ह से पूर्व की छाया आरम्भ में बड़ी होती दिखती है और बाद में क्रमशः छोटी होती हुई मध्यान्ह में समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार दुष्टों की मित्रता आरम्भ में अत्यन्त प्रगाढ़ होती है जो धीरे-धीरे कम होकर समाप्त हो जाती है।
  • दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्यालङ्कृतो सन।
मणिना भूषितो सर्पः किमसौ न भयङ्करः॥
दुष्ट लोग भले ही बुद्धिमान हों और विद्या प्राप्त कर लें, तो भी उनका परित्याग कर देना चाहिए। मणि युक्त सांप क्या भयानक नहीं होता?
  • दुर्जनः स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।
नोदर तृप्तिमायाती मूषकः वस्त्रभक्षकः॥
दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव ही दूसरे के कार्य बिगाड़ने का होता है। वस्त्रों को काटने वाला चूहा पेट भरने के लिए कपड़े नहीं काटता।
  • कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्।
तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत्॥" -- महात्मा विदुर, महाभारत में
जो जैसा करता है, उसके साथ वही व्यवहार करना चाहिए। यदि कोई हिंसा करता है, तो उसके साथ भी हिंसा करनी चाहिए। यदि दुष्ट (शठ) के साथ दुष्टता(शठता) की जाए, तो इसमें मैं कोई दोष नहीं मानता।
  • आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः। -- श्रीहर्ष, नैषधीयचरितम् में
कुटिल जनों के प्रति सरलता की नीति नहीं अपनानी चाहिये।
  • ये हि धर्मस्य लोप्तारो वध्यास्ते मम पाण्डव।
धर्म संस्थापनार्थ हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया॥ -- भगवान श्रीकृष्ण, महाभारत में
हे पाण्डव! मेरी प्रतिज्ञा निश्चित है कि धर्म की स्थापना के लिए मैं उन्हें मारता हूँ जो धर्म का लोप (नाश) करने वाले हैं।
  • मायाभिरिन्द्रमायिनं त्वं शुष्णमवातिरः। -- ऋग्वेद 1।11। 6।
हे इन्द्र! मायावी, पापी, छली तथा जो दूसरों को चूसने वाले हैं, उनको तू माया से पराजित करता है। (अर्थत जो मायावी, छली, कपटी अर्थात् धोखेबाज हैं, उसे छल, कपट अथवा धोखे से भी मार देना चाहिए।)
  • मायिनं तु राजानं माययैव निकृन्ततु।
भीमसेनस्तु धर्मेण युध्यमानो न जेष्यति॥
अन्यायेन तु युध्यन् वै हन्यादेव सुयोधनम्। -- श्रीकृष्ण, भीमसेन से, महाभारत में
भीमसेन धर्म से युद्ध करता हुआ दुर्योधन को नहीं जीत सकता। किन्तु तू यदि छल से युद्ध करेगा तो सुयोधन (दुर्योधन) को जीतेगा। (अतः छली दुर्योधन को तुम्हें छल से ही मारना चाहिये।)
  • दुर्जन दर्पण सम सदा, करि देखौ हिय गौर।
सम्मुख की गति और है, विमुख भए पर और॥ -- तुलसीदास
दुर्जन, दर्पण के समान होते हैं, इस बात को ध्यान से देख लो। ये दोनों जब सामने होते हैं तब तो और होते हैं और जब पीछ पीछे होते हैं तब कुछ और हो जाते हैं। भाव यह है कि दुष्ट पुरुष सामने तो मनुष्य की प्रशंसा करता है और पीठ पीछे निन्दा करता है, इसी प्रकार शीशा भी जब सामने होता है तो वह मनुष्य के मुख को प्रतिबिम्बित करता है; पर जब वह पीठ पीछे होता है तो प्रतिबिंबित नहीं करता।
  • सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। -- तुलसीदास
सत्संगति पाकर दुष्ट भी सुधर जाते हैं।
  • खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥ -- तुलसीदास
दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो।
  • काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥ -- तुलसीदास
वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ भी बुराई करते हैं।
  • झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥ -- तुलसीदास
उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है। जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है, परन्तु उसका हृदय ऐसा कठोर होता है कि वह महान् विषैले साँपों को भी खा जाता है।
  • लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्रोदर पर जमपुर त्रास न॥
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥ -- तुलसीदास
लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात् लोभही से सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं। उन्हें यम लोक का भय नहीं लगता। यदि किसी की बड़ाई सुनते हैं तो वे ऐसी [दुःखभरी] साँस लेते हैं, मानो जूड़ी (ज्वर के कारण आने वाली कँपकँपी) आ गयी हो॥
  • पर द्रोही पर दार रत, पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥ -- तुलसीदास, रामचरितमानस में
वे (दुष्ट) दूसरों से द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निंदा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर धारण किए हुए राक्षस ही हैं॥
  • दुर्जन विद्वान हो तो भी उसे त्याग देना ही उचित है। -- भर्तृहरि
  • दुष्ट का निग्रह किसको अच्छा नहीं लगता ? -- भवभूति
  • दुष्ट व्यक्ति प्रत्युपकार से ही शान्त होता है, उपकार से नहीं नहीं। -- कालिदास
  • मनुष्य की बुराई मरणोपरान्त भी बनी रहती है। -- गुरुदत्त
  • दुष्टों से गुणवानों को भी भय होता है। -- हितोपदेश
  • काँटो और दुष्टों के प्रतिकार के दो ही मार्ग हैं - जूतों से उनके मुख तोड़ देना अथवा दूर से ही उनका परित्याग। -- चाणक्य
  • बुराई से बुराई उत्पन्न होती है, इसलिए आग से भी बढ़ कर बुराई से डरना चाहिए। -- तिरुवल्लुवर
  • एक दुष्ट के दोष से बहुतों का अकल्याण होता है। -- अचिन्त्यानन्द
  • दुष्ट मनुष्य के लिए न न्याय है, न धर्म और न सुभाषित। दुष्ट मनुष्य के सामने पराक्रम ही करें। सदव्यवहार से वह प्रसन्न नहीं होता। -- जातक कथाएं
  • सज्जनों की निंदा करने में दुष्ट सब ओर से आँख, कान, सिर व मुख वाला होता है और सर्वत्र व्याप्त भी होता है। -- आचार्य क्षेमेन्द्र
  • दुष्ट पर दया न करो वह दण्ड से ही राह पर लाया जा सकता है। -- चाणक्य
  • विपत्ति आ पड़ने पर दुष्ट तमाशा ही देखना चाहते हैं। -- शुकसप्तति

इन्हें भी देखें[सम्पादन]