सज्जन

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सज्जन (सत् + जन) का अर्थ है 'अच्छा व्यक्ति'। साधु, सन्त, सुजन आदि इसके पर्याय हैं।


  • परोपकारय सतां विभूतयः।
सज्जन लोगों का धन परोपकार के लिए होता है।
  • विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय ।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥ -- सुभाषितरत्नभाण्डागारम्
दुर्जन पुरुष की विद्या विवाद के लिये होती है, धन घमण्ड के लिये होता है, और शक्ति दूसरों को पीड़ित करने के लिये होती है। इसके विपरीत सज्जनों की विद्या ज्ञान के लिये, धन दान के लिये और शक्ति रक्षा के लिये होती है।
  • उदेति सविता ताम्रस्ताम्रः एवास्तमेति च।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥
सूर्य उदित होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने के समय भी। महान् पुरुष सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (द:ख) में एक समान रहते हैं।
  • योऽसाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्यः संप्रयच्छति ।
स कृत्वा प्लवमात्मानं संतारयति तावुभौ ॥ -- मनुस्मृति
जो दुर्जन व्यक्तियों का धन लेकर सज्जन लोगों को देता है वह अपने आप को तो पार लगाता ही है, उन दोनों (दुर्जन मनुष्य और सज्जन मनुष्य) को भी तार देत है।
  • न प्राष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तमः स्मॄतः ॥
जो मान देने पर हर्षित नहीं होता अपमान होने पर क्रोधित नहीं होता तथा स्वयं क्रोधित होने पर कठोर शब्द नही बोलता, वही उत्तम साधु है।
  • श्लोकस्तु श्लोकतां याति यत्र तिष्ठन्ति साधवः।
लकारो लुप्यते तत्र यत्र तिष्ठन्त्यसाधवः ॥
जिस सभा में सज्जन व्यक्ति उपस्थित रहते हैं वहाँ श्लोकों (संस्कृत काव्य) के संचालक होते हैं और उनके मनोरंजक लोग कलाकार होते हैं। जिस सभा में असाधु (नीच और दुष्ट) व्यक्ति रहते हैं वहां 'श्लोक' शब्द से 'ल' अक्षर लुप्त हो जाता है अर्थात वहाँ 'शोक' होता है।
  • साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय ॥ -- कबीरदास
  • सन्त न छोड़े सन्तई, कोटिक मिले असन्त
मलय भुजंगहि बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ -- कबीरदास
सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
  • साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥ -- तुलसीदास (रामचरितमानस में)
संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ होता है जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है।जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है।
  • मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भगति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥ –- बालकांड , रामचरितमानस
संतों का समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहां (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं।
  • संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥ -- तुलसीदास
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे चंदन और कुठार (कुल्हाड़ी) का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किन्तु चन्दन अपने स्वभाववश उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) अपना गुण (सुगंध) देकर उसे सुसंधित कर देता है॥
इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत्‌ का प्रिय है। (इसके उल्टा) कुल्हाड़ी के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं।
  • बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥ -- तुलसीदास
संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं। उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और पराया सुख देखकर सुख होता है। वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है। वे मद से रहित और वैराग्यवान्‌ होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं।
  • कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥ -- तुलसीदास
उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणों के समान हैं।


  • पवित्र हृदय वाले सज्जनों को बुद्धि कभी कुंठित ( कुंद ) नही होती। – वाल्मीकि रामायण
  • सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता। -- संत कबीर
  • प्रशंसा सफलता की नहीं, सज्जनता की होनी चाहिए। -- श्री राम शर्मा आचार्य
  • सज्जन व्यक्ति वह होता है जो कभी भी अनजाने में भी किसी की भावनाओं को ठेस नही पहुँचाता हैं। -- ऑस्कर वाइल्ड
  • सज्जन व्यक्ति वह होता है जो दुनिया से कम लेता है और ज्यादा देता हैं। -- जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
  • जहाँ एक ओर सोना, सज्जन और साधुजन सौ बार टूट कर अर्थात पराजित हो कर भी अपनी हिम्मत नहीं हारते हैं और पुनः प्रयास करते रहते हैं, वही दूसरी ओर दुर्जन और कुम्हार के बनाये हुए मिट्टी के घड़े बस एक ठोकर में ही चूर चूर हो जाते हैं। -- कबीर दास
  • सज्जन व्यक्ति जरूर शर्मिंदा होगा यदि उसने कुछ कहा और किया नहीं। -- कन्फ्यूशियस

सन्दर्भ[सम्पादन]

इन्हें भी देखें[सम्पादन]