विपिन चन्द्र पाल

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बिपिन चन्द्र पाल

बिपिन चन्द्र पाल (7 नवम्बर 1858 – 20 मई 1932) भारत के एक महान राष्ट्रवादी, लेखक और सामजसुधारक, तथा भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी थे। वे लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक तथा महर्षि अरविंद के दर्शन, कार्य तथा आध्यात्मिक विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। उन्हीं का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अपना जीवन स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में अर्पित करने का निर्णय लिया।

इस स्वतंत्रता सेनानी का जन्म 7 नवंबर 1858 को सिल्हेट जिले के पोइली गांव में हुआ था, जो वर्तमान समय में बांग्लादेश में स्थित है। इनके पिता रामचंद्र पाल एक फारसी विद्वान तथा एक छोटे से जमींदार थे।

एक समृद्ध परिवार से संबंध होने के परिणामस्वरूप उनकी शिक्षा-दीक्षा उच्च कोटि की हुई। उस समय के प्रचलन के अनुसार उनकी प्रारंभिक शिक्षा फारसी में हुई तथा उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया, परंतु कुछ कारणोंवश शिक्षा को बीच में छोड़कर उन्होंने कोलकाता के एक स्कूल में हेडमास्टरी कर ली।

उसके पश्चात् उन्होंने कोलकाता के सार्वजनिक पुस्तकालय में लाइब्रेरियन के रूप में भी कार्य किया। उसी दौरान वे शिवनाथ शास्त्री, एसएन बनर्जी और वी. के. गोस्वामी जैसे अनेक राजनीतिक नेताओं के सानिध्य में आए, जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने शिक्षण कार्य छोड़कर राजनीति में आने का संकल्प लिया।

वे बहुत ही स्पष्टवादी थे। जिस विचार से सहमत न होते थे, उसे तुरंत स्पष्ट कर देते थे। ब्रिटिश सरकार के प्रति गांधी जी के रवैये से असहमत होने पर वे गांधी जी की आलोचना करने से भी नहीं चूके। वे ऐसे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने गांधी या गांधीपंथ की आलोचना करने का साहस किया। उन्होंने गांधीजी को 'तार्किक' की बजाय 'जादुई विचारों वाला' कहकर उनकी आलोचना की।

उन्होंने देश की अवाम में स्वराज की अलख जगाने के लिए कई पत्रिकाएं निकाली। इनमें ‘न्यू इंडिया’ (साप्ताहिक पत्रिका), और ‘वंदे मातरम’ (दैनिक पत्रिका) अहम है, इन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने पंथनिरपेक्षता, तर्कवाद, राष्ट्रीय शिक्षा, स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल और राष्ट्रवाद की वकालत की। वहीं विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और देश में काबिज ब्रिटिश हुकूमत से सभी प्रकार संबंधों को तोड़ने की वकालत की।

वर्ष 1920 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया, और अपने जीवन के अंतिम दिनों का पुस्तकों और लेखों के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करते रहे। 20 मई 1932 को स्वास्थ्य ठीक ने होने कारण उनका 73 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

उक्तियाँ[सम्पादन]

  • दासता मानवीय आत्मा के विरुद्ध है, भगवान ने समस्त प्राणियों को स्वतंत्र बनाया है।
  • 'विदेशी उत्पादों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था खराब हो रही है और बेरोजगारी भी बढ़ रही है।
  • हम बाजार में सस्ती वस्तुओं का आयात प्रतिबंधित नहीं कर सकते हैं। न ही सरकार को ऐसा करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। किन्तु हम दृढ़ संकल्प से विदेशी वस्तुओं को खरीदने से इनकार अवश्य कर सकते हैं। इस प्रकार विदेशी सामान खरीदने से इनकार कर बहिष्कार आंदोलन द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से अपने स्वयं के उद्योगों की रक्षा की जा सकती है।
  • निवेदन, तर्क, असहयोग जैसे तरीकों से अंग्रेजों को देश से नहीं भगाया जा सकता।
  • अहिंसावादी आन्दोलनों से आजादी नहीं पाई जा सकती।
  • आप जादू चाहते हैं, लेकिन मैं तर्क में विश्वास करता हूँ। आप मंत्र चाहते हैं, लेकिन मैं कोई ­ऋषि नहीं हूँ और मंत्र नहीं दे सकता। -- 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण में गांधीजी की आलोचना करते हुए
  • भारत की एकमात्र आशा वर्तमान शासन प्रणाली को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने में ही है।
  • स्वराज का नारा केवल राजनीतिक स्वतंत्रता का नारा नहीं है, बल्कि भारतीय आत्मा की मुक्ति का नारा है।
  • भारत का उद्धार उसके प्राचीन उद्योगों के पुनरुद्धार और उसके स्वयं के संसाधनों के विकास में है।
  • भारत का भविष्य पश्चिम का अनुकरण करने में नहीं है, बल्कि अपनी विशिष्ट पहचान को फिर से खोजने में है।
  • शिक्षा ही एकमात्र ऐसा हथियार है जो वास्तव में भारत को अज्ञानता और गरीबी की बेड़ियों से मुक्त कर सकती है।
  • भारत के युवा ही राष्ट्र की आशा हैं। उन्हें उठ खड़ा होना चाहिए और अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ना चाहिए।
  • जिस प्रस्ताव पर मैं आपकी स्वीकृति के लिए दबाव दे रहा हूं, यदि इसे आप सभी के द्वारा और सरकार के द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया तो उससे मुझे विशेष खुशी नहीं होगी। सज्जनों! इसके लिए मैं आश्वस्त हूं कि मुझे अपनी फौलादी कलम और मेरी तेज जिह्वा को छोड़कर जीवन में अपने हथियारों के इस्तेमाल की अप्रिय जरूरत कभी नहीं होगी। जैसा कि हमें विश्वास है कि फौलादी कलम एवं तेज जिह्वा रूपी हथियार शस्त्र अधिनियम की सूची में शामिल नहीं है।
मेरा अधिकार ब्रिटिश सरकार की सच्ची निष्ठा-स्तुति में है। इस प्रस्ताव पर गौर करने के लिए मेरा मकसद-जिस सरकार के अधीन मैं रह रहा हूं, उसके हित के लिए-मेरी प्रबल इच्छा में निहित है। मैं उनमें से एक हूं जो मानवीय इतिहास में हितैषी परमेश्वर के कार्यों में विश्वास रखते हैं, लेकिन मैंने ज्यों ही इस विस्तृत एवं पावन सभा में प्रवेश किया और इस राजनीतिक संघ के एक विनम्र प्रतिनिधि के रूप में मैंने अपना आसन ग्रहण किया, त्यों ही मैंने निष्कपट रूप से अपने प्यारे वतन के वर्तमान इतिहास में पावन जननी के हाथ की सत्यता को स्वीकार किया।... और इस मंच पर खड़े होकर तथा इस विशाल सभा के मध्य उचित समय पर स्थान ग्रहण कर मेरा दिल कई बार परमेश्वर की ओर उन्हें सारी आशीषों के लिए कृतज्ञता की विनीत प्रशस्ति अर्पित करने हेतु उन्मुख हुआ। इन आशीषों को उन्होंने मेरी प्यारी पैतृक भूमि के लिए जमा करके रखा है और जिसके चिन्ह इस सभागार में देखे जा सकते हैं।
मित्रों! मैं कबूल करता हूं कि मैं अतिवादी एवं प्रजातंत्रवादी हूं, लेकिन अनोखी बात है कि मेरा अतिवाद और प्रजातंत्रवाद ही ब्रिटिश सरकार के प्रति शस्त्र अधिनियम में निरूपित आत्मघातक नीति का निराकरण करने और इसे निरस्त करने हेतु आवाज उठाने में मुझे दृढ़तापूर्वक बल प्रदान करता है।
मित्रों! प्रस्ताव-जिसे मैं गौण समझता हूं-वह पूर्व के प्रस्तावों से थोड़ा भिन्न है। उन प्रस्तावों के समर्थकों ने सरकार से लोगों की तरफदारी में अभ्यर्थना की थी, लेकिन मैं स्वयं सरकार की तरफदारी में अभ्यर्थना करता हूं। यह मेरे कहने के लिए नहीं है कि यह लोगों के जख्म पर प्रभाव नहीं डाल सकता। जब मैं यह स्मरण करता हूं कि साल-दर-साल जंगली जानवरों के उत्पात तेजी से खतरे के संकेत देते हुए बढ़ रहे हैं, जब मैं स्मरण करता हूं कि हमारे देश के हजारों पुरुष और महिलाएं प्रतिवर्ष बाघों और तेंदुओं द्वारा मारे जा रहे हैं, जब मैं गरीब किसानों को अपनी फसलों की जंगली जानवरों के उपद्रव से रक्षा के लिए सरकार से अनुरोध करते हुए पाता हूं, शस्त्र अधिनियम उन्हें उन उपायों से वंचित कर देता है, जिनसे वे स्वयं व अपनी फसलों की रक्षा कर सकते हैं। जब मैं इन तमाम वास्तविकताओं पर नजर डालता हूं, तब मैं यह कैसे कह सकता हूं कि यह अधिनियम लोगों के जीवन एवं संपत्ति के विरुद्ध प्रभाव नहीं डाल सकता।
लेकिन मित्रों! मुझे इस बात को कहने के लिए क्षमा प्रदान करें कि यह लोगों पर सीधा आघात हो रहा है कि सरकार के स्वयं के क्रियाकलापों के कारण लोगों को क्षति हो रही है, जिससे वह (सरकार) अपना महत्व दिनोंदिन नष्ट करती जा रही है। हम लोग साफ तौर से यह कह रहे हैं कि सरकार को अपनी मर्यादा कायम रखनी चाहिए। परंतु मैं इस अप्रिय अधिनियम के रूप में सरकार की मर्यादा के अभिप्राय को पूरी तरह कभी नहीं समझ सकता। यदि आप वस्तुत: मर्यादा रखते हैं तो आप स्वयं अपने लिए एक शक्ति के मीनार के रूप में होना क्यों चाहते हैं, शस्त्र की आनुषंगिक शस्त्रविहीनता ही जिसे उन्नत कर सकती है?
मैं एक सैन्यकर्मी नियुक्त नहीं होना चाहता और यह मैं कह भी नहीं सकता कि राष्ट्र की शस्त्रविहीनता से, देश के लोगों को सामरिक शक्तिविहीन कर देने के क्या गंभीर प्रभाव पड़ रहे हैं। मैं एक शांतिप्रिय बंगाली हूं, जो कि ब्रिटिश सरकार के संरक्षण में आराम और सुरक्षा में रहता हूं और मेरे दिमाग में शस्त्र अधिनियम का सर्वाधिक हानिकारक प्रभाव प्रलोभन में निहित है, जो कि रूस द्वारा भारत आने और आक्रमण करने के संदर्भ में फैलाया जा रहा है। सज्जनों! मैं रूस से भयाक्रांत नहीं हूं। ईश्वर मुझे उस खतरनाक बीमारी से बचाए। मैं यह विश्वास नहीं करता कि रूस की उन्नति एक नीति के द्वारा प्रेरित है, जो कि भारत पर हमला और अंतिम फतह है। परंतु यदि रूस कभी आता है और हमारे उत्तरी-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में कदम रखता है, तो वह वहां शस्त्र अधिनियम के द्वारा ही प्रस्तुत हो सकता है, लेकिन सवाल है कि क्या विदेशी विश्वास करेंगे, क्या रूस शस्त्र अधिनियम के रूप में इन प्रदर्शनों की सत्यता एवं यथार्थता में विश्वास करेगा? क्या वह एक दुखद सवाल नहीं खड़ा कर देगा कि यदि भारत के लोग वफादार हैं और यदि आप उन्हें वैसा होने में विश्वास करते हैं तो आप वहां पूरी आबादी की शस्त्रविहीनता की इच्छा क्यों रखते हैं?
महाशय! स्पष्टत: शस्त्र अधिनियम की नीति सिद्धांतत: गलत है, अपने प्रभाव में घातक है और सरकार के लिए बिल्कुल आत्मघाती है। सरकार के लिए हितकर यह है कि उसे अपनी सुरक्षा को बरकरार रखने के लिए तुरंत निष्क्रिय कर दे।
-- मद्रास, 29 दिसंबर, 1887 के कांग्रेस अधिवेशन में अंग्रेजों द्वारा पारित 'आर्म्स एक्ट' पर बिपिन चंद्र पाल की वक्रोक्ति
  • यदि भारत को स्वतंत्र होना है, तो यह यूरोप, अमेरिका या जापान से राजनीतिक और सामाजिक संस्थानों के आयात से नहीं होगा, बल्कि भारत के अपने अंतर्निहित जीवन शक्तियों और सांस्कृतिक आदर्शों के सहज और स्वस्थ विकास से होगा।
  • हमारा पहला कर्तव्य अपने पड़ोसी को सुधारने के लिए उत्सुक होना नहीं है, बल्कि खुद को पूर्ण करने के लिए उत्सुक होना है।
  • स्वतंत्रता निस्संदेह एक अनमोल रत्न है, लेकिन यह तभी तक अनमोल रत्न है जब तक हम इसका जो मूल्य हैं उसे चुकाने के लिए तैयार हैं।
  • हमारे देश में, झूठ न केवल एक नैतिक श्रेणी बन गया है बल्कि राज्य का एक स्तंभ बन गया है।
  • हम स्वतंत्र होंगे, इसलिए नहीं कि स्वतंत्रता का दावा करते हैं, बल्कि इसलिए कि हम स्वतन्त्रता का अभ्यास करते हैं।
  • हमारे जीवन और हमारे राष्ट्रीय कार्यों में हमारी बहुत सी असफलताएँ सीधे तौर पर आत्मविश्वास की कमी के कारण होती हैं।
  • राष्ट्रवाद का अर्थ यह नहीं है कि एक राष्ट्र दूसरे के खिलाफ है, बल्कि यह है कि हर राष्ट्र खुद के लिए है।
  • स्वराज कोई उपहार नहीं है जिसे प्राप्त किया जाता है, बल्कि यह एक ऐसी विजय है जिसे हासिल करना है।

सन्दर्भ[सम्पादन]

बाहरी कड़ियाँ[सम्पादन]