मोह

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मोह का अर्थ है - कुछ का कुछ समझ लेना। अर्थात् अज्ञान, भ्रम, भ्रांति । मोह का अर्थ शरीर और सांसारिक पदार्थों को अपना या सत्य समझने की बुद्धि भी है। यह बुद्धि दुःखदायिनी मानी जाती है । मूर्छा , बेहोशी और गश को भी 'मोह' कहा जाता है। मोह शब्द का उपयोग प्रेम , मुहब्बत और प्यार के लिये भी किया जाता है ( जैसे साँचेहु उनके मोह न माया । उदासीन धन धाम न जाया ॥) । साहित्य में ३३ संचारी भावों में से 'मोह' भी एक भाव है।

उक्तियाँ[सम्पादन]

  • देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ -- भगवद्गीता
देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तरकी प्राप्ति होती है। उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
  • मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह तें पुनि उपजहिं बहु सूला॥ -- रामचरितमानस
मोह सभी रोगों की जड़ है। उन रोगों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं।
  • मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥ -- रामचरितमानस,
उनमें से भी किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया?
  • बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥ -- रामचरितमानस
भावार्थ:-सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचंद्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥