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पुरुषोत्तम दास टण्डन

विकिसूक्ति से
भारतरत्न पुरुषोत्तम दास टण्डन

पुरुषोत्तम दास टंडन भारत के एक स्वतन्त्रता सेनानी, राजनेता और हिन्दी के महान सेवक थे। भारत सरकार ने उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार 'भारतरत्न' से सम्मानित किया था। हिन्दुस्तानी के विषय में उनका गाँधीजी से गम्भीर मतभेद था और उन्होंने इस पर गांधीजी का विरोध किया।

विचार

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  • मालवीय जी की स्मृति ने मुझे सदा शक्ति दी है। मेरे जीवन को बनाने में उनका हाथ है। मेरे ऊपर मालवीय जी की छाया इतनी पड़ी है कि आज सोचने लगता हूँ कि मुझ में मेरा अपना क्या है।
  • हमारे जीवन का मुख्य आदर्श नैतिकता है। लेकिन आज जितने काम हैं; क्या व्यापार, क्या सरकारी नौकरी, क्या इन्जीनियरिंग, क्या ठेकेदारी, क्या वकालत सब जगह आज अनैतिकता बढ़ी हुई है।... यह महल शुद्ध कौड़ी पर नहीं उठे हैं। मैं उनको देखता हूँ तो हृदय रो उठता है।
  • जातीय साहित्य मनुष्य के बाह्य एवम् आन्तरिक जीवन का चित्र है। किसी जाति के अधिक सभ्य और समद्धिशाली होने का अर्थ है उसमें अधिकाधिक विद्वान्, बुद्धिमान् और चिन्तनशील मनुष्यों की उत्पत्ति हो। ऐसे मनुष्यों के आभ्यन्तरिक और बाह्य उन्नत जीवन का आभास उनके जातीय साहित्य में विद्यमान रहता है।
  • विदेशी भाषा के द्वारा मानसिक शक्तियों के प्रादुर्भाव का विचार सर्वथा असम्भव है। किसी भाषा का साहित्य कितना ही सर्वांगीण क्यों न हो, परन्तु वह मातृभाषा के साहित्य से अधिक आदरणीय नहीं हो सकता । सर्वसाधारण की उन्नति मातृभाषा के द्वारा ही हो सकती है। वे उसी से लाभ उठा सकते हैं, जो उनकी मातृभाषा में है ।
  • देश के सामने इस समय अनेक समस्यायें हैं, जिनमें भाषा की समस्या, गौ रक्षा की समस्या तथा जीवन में नैतिक उत्थान की समस्या भी है। देश का नैतिक अधःपतन पराधीनता का परिणाम था । पराधीनता का सबसे बड़ा अभिशाप ही यह है कि हम विदेशी शासन के कारण अपने नैतिक आदर्शों के आधार पर समाज का निर्माण नहीं कर सकते। देश में अंग्रेजी की जड़ों के जमने का कारण भी अपनी इच्छा के अनुसार समाज का निर्माण न कर सकने की विवशता ही है ।
  • अपने भाइयों को मैं सचेत करना चाहता हूँ कि वह मोम न बनें और आसानी से पिघल न जाएँ। छोटी-छोटी-सी बातों के लिए ही हम अपनी भाषा को या संस्कृति को न बदलें। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि समय पर चीजें बदलती हैं- समयभेदेन धर्मभेदः । मैं समय की आवश्यकता देख कर परिवर्तन का पक्षपाती हूँ ।
  • हमारी राष्ट्रभाषा का असली स्रोत हमारी राष्ट्रीयता ही है। इस बात को मैं जानता हूँ क्योंकि इस काम में मैं बहुत वर्षों से लगा हूँ कि हमारी आधुनिक राष्ट्रीयता के उत्थान में राष्ट्रभाषा की गहरी सहायता है। जिस भाषा को हमारी जनता समझ नहीं सकती, उससे हमें राष्ट्रीयता की प्रेरणा कैसे मिल सकती है?
  • राष्ट्रीयता का भाव रखने वालों में कदाचित ही कोई ऐसे हों, जिन्हें मातृभाषा पर प्रगाढ़ ममता न हो, जिन पर उसका बलिष्ठ और उत्साहवर्धक प्रभाव न पड़ा हो एवम् जो उसके मनोहर मोहन मंत्र के वश में न आए हों । मातृभाषा उनके स्वभाव का एक अंग है। उनके हृदय का प्रतिबिम्ब और उनके शरीर का वह एक भाग है, जो शारीरिक सौन्दर्य का प्रधान कारण है।
  • राष्ट्रीय जागृति मातृभाषा के प्रचार के बिना नहीं हो सकती । मातृभाषा द्वारा कला-कौशल और साहित्य को पुनर्जीवित करना देश के शुभचिन्तकों का प्रधान कर्तव्य है। यदि हमें संसार में जीवित रहना है, यदि हमें अपनी पूर्वकीर्तियों की लाज रखनी है तो परमावश्यक है कि सबसे प्रथम हम अपनी मातृभाषा की उन्नति में संलग्न हों, उसे अपना सर्वस्व जानें और संसार में सर्वप्रिय वस्तु मानें और उसके उद्धार के लिए कटिबद्ध रहें।
  • मेरी मान्यता है कि हमारा देश बौद्धिक रहा है। मैं इस पर बल देता हूँ । बहुत से अंग्रेज इतिहासकारों ने कहा है कि हमारे यहाँ परिपाटी के पूजने वाले बहुत हैं। कंजर्वेटिज्म बहुत है। इसमें आंशिक सत्य है। पूरा सत्य नहीं है । हमारा देश अपने आन्तरिक तल में बौद्धिक रहा है, बुद्धि का पुजारी रहा है। बुद्धि के ऊपर उसने किसी किताब को नहीं रखा है -ये बुद्धेः परतस्तुसः। बुद्धि के ऊपर केवल ईश्वर को माना है। ईश्वर के बाद संसार में बुद्धि ही तत्त्व है। मैं बुद्धिवादी हूँ । बुद्धि के ऊपर सब पुस्तकों को, ट्रेडिशन्स को नापने-तोलने के लिए तैयार हूँ ।
  • मैं चाहता हूँ कि आज परराष्ट्र में हमारे दूत मौजूद हैं उनके सामने अपनी राष्ट्रभाषा और लिपि के गौरव की बात रखी जाय, मेरा तो विश्वास है कि भले ही आज यह चीज़ सम्भव न हो, लेकिन कुछ वर्षों बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को एक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त होगी। आज वहाँ पर पाँच भाषाओं को मान्यता दी गई है; लेकिन वह दिन दूर नहीं है, जब हिन्दी को वहाँ पर माना जायगा और वह दिन हमारे लिए गौरव का दिन होगा । हिन्दी को वहाँ पर मनवाना होगा।
  • कुछ काँच पहचानने वाले समालोचक हिन्दी भाषा में साहित्य की कमी देखते हैं। गाँव का रहने वाला, जिसने गाँव की दुकान में रंग-विरंग के काँच के टुकड़े देखे हैं, नगर में जा कर जब एक बड़े जौहरी की दुकान में जाता है तो अपने गाँव के समान रंगीले काँचों को न देख कर बहुमूल्य मणियों का तिरस्कार करता है और कहता है हमारे गाँव के समान यहाँ मणियाँ तो हैं ही नहीं । ठीक यही दशा इन समालोचकों की भी है। यदि मणि की परख न हो तो दोष मणि का नहीं, परखने वाले का है।
  • जब आपने भाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार किया है तब उसके अंकों को भी स्वीकार कीजिए। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि इस विषय पर विचार कीजिए कि क्या हिन्दी पर अंग्रेजी अंक लादने का यह उपयुक्त समय है, जब कि देश इस विषय में किन्हीं विचारों से तैयार नहीं है। मैंने अनेक बार कहा है कि मैं हिन्दी को किसी प्रान्त पर लादूंगा नहीं, परन्तु आप विधान द्वारा इस लिपि को समस्त राजकीय कार्यों के लिए उन सब पर प्रायः लादे जा रहे हैं, जो नागरी लिपि द्वारा अपना कार्य करते हैं। मैं आप से कहता हूँ आप अपना हाथ वहीं रोक लें ।
  • संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के पारस्परिक सम्बन्धों को स्थिर करने में भाषा के विकास क्रम पर ध्यान देना आवश्यक है। इस संसार में जीवन और मृत्यु का कार्य-कारण सम्बन्ध है। जीवन मृत्यु के सहारे ही जीवित है। यही सिद्धान्त जीवित भाषाओं के सम्बन्ध में भी लगता है । मृत्यु और जीवन जहाँ बराबर है, वहीं वास्तविक जीवन है। जब तक भाषा के रूपों का नाश बराबर होता रहता है, तब तक उसका विकास भी चलता रहता है।
  • मैंने सदा ही माना है कि हिन्दी ही हमारे देश को एक सूत्र में बाँध सकती है। मैं जानता हूँ कि हमारे भाई अंग्रेजी के पक्षपाती हैं और ऐसे दस-बीस और भी हैं; जिनका ऐसा विचार है। लेकिन अंग्रेजी से हमारा देश एक सूत्र में बँध सके, यह बिल्कुल गलत है, असम्भव है। उसको बाँधने के लिए हमें देश की ही भाषा रखनी होगी। आज उसका विवाद नहीं है। वह हमारा संविधान निश्चित कर चुका है। (संसद के भाषण से)
  • वाणी की सार्थकता इसी में है कि वह आकाश में सीढ़ी बाँध कर मनुष्य उस स्थान पर चढ़ा दे जहाँ से ही वाणी का उद्भव हुआ है। यदि वाणी ने मनुष्य को लुभा कर नीचे कीच में घसीट कर डाल दिया तो उसका सौन्दर्य कुलटा का सौन्दर्य हैं जो भोग-लिप्सुओं के मन को क्षण भर के लिए भले लुभा ले, किन्तु जो उच्च पुरुषों के सामने आदर नहीं पाती । (हिन्दी साहित्य कानन से)
  • मैं उन सब गुणों अथवा अच्छाईयों को ग्रहण करने के पक्ष में हूँ जो पश्चिम हमें सिखा सकता है। परन्तु मैं यहाँ समुपस्थित सभी सज्जनों से यह निवेदन क देना चाहता हूँ कि वे इस बात को स्मरण रखें कि पश्चिम में चमकने वाली सभी वस्तुएँ सुवर्ण नहीं हैं। केवल पश्चिमी होने के नाते कोई वस्तु गुणप्रद नहीं हो जायगी। हमारे देश ने भी ऐसी उच्चकोटि की विचारशील संस्कृति जन्म दिया है जो समय की गति के साथ संभवतः सम्पूर्ण मानव जाति के भाग्य-निर्माण पर अधिकाधिक प्रभाव डालेगी। (संसद के भाषण से)
  • हर मुल्क और हर सभ्यता का उसकी भाषा से उतना ही गहरा तअल्लुक़ है। जितना उसकी आब व हवा से । मुल्क की भाषा और साहित्य ही हर एक मुल्क की तरक्की की गवाह है । भाषा ही वह खोराक और हवा है, जिस पर देश के हर बच्चे की विचारशक्ति परवरिश पाती है। अगर उसके मुल्की काम किसी ऐसी जबान के ज़रिए से किए जावें, जिसको वह नहीं समझता तो जाहिर है कि दिन-ब-दिन मुल्की मामलात की निस्बत उसकी कूवते फ़हम कम जावेगी।
  • मेरी अत्यधिक इच्छा यह है कि हमारी एक केन्द्रीय संस्कृति, भारतीय संस्कृति का फैलाव हो । मेरी यह दृष्टि नहीं है कि हमारे उत्तर प्रदेश की जो सीमा है उसे कुछ और बढ़ा लें। यदि उसमें से दो जिले दूसरे प्रदेश में जाते हैं तो मैं उसमें बाधक होने वाला नहीं हूँ । मैं इसका पोषक हूँ कि भारत की जो अपनी संस्कृति है, जिसको मैं भारतीय संस्कृति कहा करता हूँ, वह चारों ओर फैले; वह और भारत की एकता की भावना दिन प्रतिदिन देश में बढ़े। (संसद के भाषण से)
  • मेरी यह आशा अवश्य है कि यह जो 'अन्तर्राष्ट्रीय अंक' के नाम से हमारे देश के संविधान पर कलंक है वह अवश्य हटेगा। इन अन्तर्राष्ट्रीय अंकों को मैं आज कलंक मानता हूँ। हमारे लिए लज्जा का विषय है कि हमारी भाषा में, नागरी में हमारे अपने सुन्दर अंक न रखे जाकर यह अन्तर्राष्ट्रीय अंक रखे गये हैं। इस कलंक से संविधान को भविष्य में ठीक करना होगा। मेरी आशा है कि आने वाली संतान हम लोगों से अधिक बुद्धिमान होगी और अधिक शक्तिवान होगी। वह इस कलंक को संविधान से निकालेगी ।
  • राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी भाषा के द्वारा काम करना हानिकर है। अंग्रेजी में अपने घर का काम कर आप स्वयम् अपने मुँह से पुकारते हैं कि गुलाम हैं, हम गुलाम हैं। इस तरह राष्ट्रीयता की आशा करना व्यर्थ है । राष्ट्रीयता के लिए खाली प्रस्ताव पास करना नहीं है बल्कि उसके लिए हृदय में एक चिंघाड़ उठती है, एक प्रकार की जलन होती है कि जनता से उनके शब्दों में बात करें, उन तक अपना सन्देश पहुँचायें।
  • आजकल न सिर्फ़ सरकारी काम बल्कि हमारी कांग्रेस, सूबा और जिलों की कान्फ्रेन्स और मुल्क में हर जगह तालीमयाफ्ता लोगों में अंग्रेजी जबान की हुकुमत नजर आती है। उससे दूसरे मुल्क का आदमी यही नतीजा निकालेगा कि हमारे रहनुमाओं का यह मक़सद है कि हमारे भविष्य स्वराज की जबान अंग्रेजी हो । लेकिन मुझको मालूम है कि हमारे मुल्क के ज्यादातर क़ाबिल लोगों की राय यह हरगिज नहीं है कि हमारी मुल्की जबान अंग्रेजी हो या हो सकती है।
  • मानसिक स्वतंत्रता और स्वाधीन विचार की आवश्यकता बाह्य स्वतंत्रता से कहीं अधिक आवश्यक है। अपने प्राचीन इतिहास को अपना कर, अपनी मातृभाषा का प्रचार कर अपने जातीय चाल, ढाल, व्यवहार, सदाचार को जीवित रखना राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।
  • हिन्दी साहित्य सम्मेलन से मेरा सम्बन्ध उसके प्रारम्भ काल से है। हिन्दी के काम में मेरे जीवन की बहुमूल्य घड़ियाँ बीती हैं। सम्मेलन मेरे प्राणों में समा गया है। (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के बारे में)
  • देश की वर्तमान स्थितियों में और देश के भविष्य को सामने रखते हुए यह आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति की आधारशिला पर ही देश की राजनीति का निर्माण हो। इन सिद्धान्तों को व्यवहार में स्वीकार करने और बरतने से ही देश की सरकार जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व कर उससे शक्ति प्राप्त कर सकती है। -- प्रथम भारतीय संस्कृति सम्मेलन, प्रयाग (1948) में
  • अस्पतालों और शय्यायों की संख्या बढ़ाने के बदले स्वस्थ जीवन के समुचित साधनों को उपलब्ध कराना राष्त्रीय जीवन के लिये परम आवश्यक है।
  • बिना अतीत का आधार बनाए, भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता।[]
  • विधवा विवाह का प्रचार हमारी सभ्यता, हमारे साहित्य और हमारे समाज संगठन के मुख्य आधार पतिव्रत धर्म के प्रतिकूल है। विधवा-विवाह की माँग इसलिए जोर पकड़ रही है, क्योंकि हमारे समाज में बाल-विवाह की शास्त्र विरुद्ध प्रणाली चल पड़ी है और बाल विधवाओं का प्रश्न ही भारतीय समाज की मुख्य समस्या है। अत: बाल-विवाह की प्रथा को रोकना ही विधवा विवाह करने की अपेक्षा अधिक महत्व का कर्तव्य सिद्ध होता है।
  • अगर कहीं अन्याय हो रहा हो, तो उसका विरोध किए बिना मैं हरगिज नहीं रह सकता। -- जब टंडन जी को पता चला कि शहर में बहुत से गरीब लोगों को इसी तरह बहला-फुसलाकर या फिर जोर-जबरदस्ती से किले में ले जाया जा रहा है, ताकि उन्हें बंधुआ मजदूर बनाकर दूसरे मुल्कों में भेजा जा सके
  • देश की सेवा बाजार की चीज नहीं है। वह बेची नहीं जाती। जिस देश में दूध नहीं बेचा जाता था, कन्या नहीं बेची जाती है, देशभक्ति भी वहां बिकती नहीं है। देशभक्ति तो देश के लिए है। उसके लिए कष्ट उठाना ही अपना संतोष है। यही आनन्द है।
  • मैंने सुना है कि कुछ लोग मुझ पर अविश्वास का प्रस्ताव लाना चाहते हैं। इस सदन में वे अल्पमत में हैं और उनका पस्ताव पारित नहीं हो सकेगा. और मैं अध्यक्ष बना रहूंगा। किंतु बहुमत के बल पर अध्यक्ष बना रहना मुझे इष्ट नहीं है। मैं इस पद पर तभी रह सकता हूँ, जब सदन के प्रत्येक सदस्य को मेरी निष्पक्षता में पूरा विश्वास हो। अतएव अविश्वास का प्रस्ताव लाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं बहुमत के बल पर इस पद पर नहीं रहना चाहता. यदि इस सदन में तीन सदस्य खड़े होकर या लिखकर कह दें कि उन्हें मुझमें विश्वास नहीं है, तो मैं तत्काल त्यागपत्र दे दूंगा। मैं तभी अध्यक्षता कर सकता हूं, जब प्रत्येक सदस्य का मुझ पर विश्वास हो। -- विधान सभा अध्यक्ष के रूप में टंडन जी के विरुद्ध मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों द्वारा उन पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए अविश्वास प्रस्ताव लाने के समाचार पर टण्डन जी की प्रतिक्रिया

हिन्दी पर

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  • हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया।...... हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।" -- १७ फ़रवरी १९५१ को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ' के १७ वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर
  • यदि हिन्दी भारतीय स्वतंत्रता के आड़े आयेगी तो मैं स्वयं उसका गला घोंट दूँगा।
  • मेरे हिन्दी के काम के कारण लोगों ने मुझे मुसलमान भाइयों का मुखालिफ समझ लिया। इन लोगों को यह नहीं मालूम कि बहुत से मुसलमान मेरे कितने अच्छे दोस्त हैं। मेरे सामने यदि कोई मुसलमान के साथ अन्याय करे, तो मैं उसके पक्ष में जान की बाजी लगा दूँगा।
  • आज हिन्दी और उर्दू दो भिन्न सभ्यता की सूचक भाषाएँ बन गई हैं। उनक धार्मिक प्रोत्साहन भी भिन्न उपमाओं और रूपकों और भिन्न दिव्य पुरुषों द्वार होता है। किन्तु वास्तव में भाषा का आधार एक ही है और अभी यह दोनों स्रोत इतनी दूर एक दूसरे से नहीं हुए हैं कि फिर मिल कर एक प्रबल धारा में परिणत हो भारतवर्ष भर को अपनी शक्ति से उर्वरा कर सुसज्जित न कर दें। मुझे तो आधुनिक हिन्दी और उर्दू भाषाओं के पोषक देशभक्तों का यह तात्कालिक कर्तव्य जान पड़ता है।
  • पूज्य बापूजी, आप का 25 मई का पत्र मुझे मिला। आप को स्वयं हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सदस्य रहते हुए लगभग 27 वर्ष हो गए। इस बीच आपने हिन्दी प्रचार का काम राष्ट्रीयता की दृष्टि से किया। वह सब काम गलत था, ऐसा तो आप नहीं मानते होंगे। राष्ट्रीय दृष्टि से हिन्दी का प्रचार वांछनीय है, यह तो आप का सिद्धांत है ही। आप के नए दृष्टिकोण के अनुसार उर्दू-शिक्षण का भी प्रचार होना चाहिए। यह पहले काम से भिन्न एक नया काम है, जिसका पिछले काम से कोई विरोध नहीं है। सम्मेलन हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानता है। उर्दू को वह हिन्दी की एक शैली मानता है, जो विशिष्टजनों में प्रचलित है। स्वयं वह हिन्दी की साधारण शैली में काम करता है, उर्दू शैली का नहीं। आप हिन्दी के साथ उर्दू को भी चलाते हैं। सम्मेलन उसका तनिक भी विरोध नही करता। किन्तु, राष्ट्रीय कामों में अंग्रेजी को हटाने में वह उसकी सहायता का स्वागत करता है। भेद केवल इतना ही है कि आप दोनो चलाना चाहते हैं। सम्मेलन आरंभ से केवल हिन्दी चलाता आया है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सदस्यों को हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के सदस्य होने से रोक नहीं है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से निर्वाचित प्रतिनिधि हिन्दुस्तानी एकैडमी के सदस्य हैं और हिन्दुस्तानी एकैडमी हिन्दी और उर्दू दोनो शैलियाँ और लिपियाँ चलाती है। इस दृष्टि से मेरा निवेदन है कि मुझे इस बात का कोई अवसर नहीं लगता कि आप सम्मेलन छोड़ें।...मुझे जो बात उचित लगी, ऊपर निवेदन किया किन्तु यदि आप मेरे दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं और आप की आत्मा यही कहती है कि सम्मेलन से अलग हो जाऊं तो आप के अलग होने की बात पर बहुत खेद होते हुए भी नतमस्तक हो आप के निर्णय को स्वीकार करूंगा। विनीत, पुरुषोत्तमदास टण्डन -- गाँधी जी को उनके पत्र के उत्तर में टण्डन जी का पत्र (8-05-1945) (उद्धृत, हिन्दी राष्ट्रभाषा से राजभाषा तक, विमलेश कान्ति वर्मा, पृष्ठ-43)

पुरुषोत्तम दास टण्टन के बारे में महापुरुषों के विचार

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  • पुरुषोत्तमदास टण्डन मेरे पुराने साथी हैं। हम वर्षों तक साथ काम करते रहे हैं। मेरे जैसे वह ईश्वर के भक्त हैं। -- महात्मा गांधी
  • वे अपनी संतुलित शक्तियों को कभी बेकार नहीं रहने देते थे। अपने सारे प्रयत्नों को केवल भारत की स्वतंत्रता और हिन्दी के उद्धार में लगाते थे। उनके लिए देश की स्वतंत्रता से हिन्दी का प्रश्न कम महत्वपूर्ण नहीं था। -- प्रसिद्ध साहित्यकार माखनलाल चतुर्वेदी
  • टण्डन जी का व्यक्तित्व इतना बड़ा है कि वह राजनीति और साहित्य की परिधि में नहीं समा सकता। सामाजिक जीवन के जिस पहलू से भी उनका सम्बन्ध रहा है ; उसे उन्होंने समृद्ध किया है। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण करने के बाद टण्डन जी जिन सिद्धान्तों का अनुगमन करते रहे हैं, उनमें से अधिकांश आज भी आदर्श रूप में सर्वमान्य हैं। उनके नेतृत्व में सदा सत्य, सदाचरण और नैतिकता के पक्ष को समर्थन मिला है। -- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
  • गांधी युग में भारतीय क्षितिज पर जो अनेक नेता प्रकट हुए उनमें श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन अपनी निराली कान्ति से दीप्तमान हैं और जब उनके विचार नवीनतम फ़ैशन से मेल नहीं खाते तो वह शाब्दिक हेर-फेर नहीं करते, स्पष्टवादिता से काम लेते हैं । उनका व्यक्तित्व प्राचीन भारतीय संस्कृति की उस ओजस्विता का प्रतीक है जिसमें हर नये ज्ञान को अपनी अजस्त्र ज्ञानधारा में समा लेने और उनके परस्पर समन्वय का प्रयास किया है। मैं भारतीय संस्कृति के इस जीवित प्रतीक को अपनी आदरपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ । -- अनन्तशयनम् अय्यंगार
  • वे स्वतंत्रता संग्राम के निर्भय सेनानी और हमारी संस्कृति के मूलभूत मूल्यों में विश्वास रखने वाले रहे हैं। -- सर्वपल्ली राधाकृष्णन्
  • अगर टण्डन जी कभी हिन्दी-उर्दू के झगड़ों में फँस जाते तो सम्मेलन का जहाज बे-पतवार का होकर तूफान में उलट जाता और कभी का छिन्न-भिन्न हो गया होता । किन्तु उनकी हिन्दी-भक्ति उनको मुस्लिमों का द्वेष या उर्दू का भय नहीं सिखाती । वह खूब तपे तपाए शुद्ध सोने की तरह कांग्रेसनिष्ठ हैं, सच्चे राष्ट्रीय हैं और पूर्ण स्वराज्य-भक्त हैं। उनकी सम्मेलन-सेवा स्वराज्य-सेवा का ही एक महत्त्व का अंग है। उनकी साहित्यिक अभिरुचि उनकी उच्च संस्कारिता और जीवन-समृद्धि से ही फलित हुई है। श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन जैसा सेवक जिस भाषा को मिला है, उस भाषा का भाग्योदय निश्चित हो है। -- काका कालेलकर
  • अभी मेरे हाथ में एक फाइल पड़ गई। टंडन जी बहुत बीमार पड़े तो नेहरूजी मिलने गए। दोनों में सैद्धांतिक झगड़े हुए किंतु आत्मीयता रही। तुम का प्रयोग करते थे....टंडन जी ने सदैव नेहरू से कहा कि हिंदी में पत्र लिखा करो। जनवरी 53 के पत्र में जिसमें नेहरूजी ने अंग्रेजी में लिखने के लिए क्षमा मांगी है। -- वियोगी हरि
  • पूज्य तुम राजर्षि क्या ब्रह्मर्षि बहुगुण धाम ।
व्यर्थ आज वशिष्ठ विश्वामित्र के संग्राम ॥
बहुत मेरे अर्थ पुरुषोत्तम तुम्हारा नाम ।
सतत श्रद्धायुक्त तुमको शत सहस्र प्रणाम ॥ -- मैथिलीशरण गुप्त
  • ऋषे ! मरेगा कभी न भारतवर्ष तुम्हारे मन का ।
अब तो वह बन रहा ध्येय जग भर के अन्वेषण का ॥
टूट रही परतें स्वरूप अपना घुलता जाता है।
मंद-मंद मुद्रित सरोज का मुख खुलता जाता है ।
एक हाथ में कमल एक में धर्म दीप्त विज्ञान ।
लेकर उठने वाला है धरती पर हिन्दुस्तान ॥ -- रामधारी सिंह 'दिनकर'
  • यदि किसी धर्म या संस्कृति में कोई व्यक्ति विशेष आस्था रखता है, तो उसके विरोधी प्रायः यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि वह आदमी अन्य धर्मों तथा संस्कृतियों का शत्रु है। यही बात राजर्षि टण्डन के साथ हुई। उनके अनन्य हिन्दी प्रेम, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की एकनिष्ठा, आस्था और साधुओं के से वेष-विन्यास को देखकर उनके विरोधियों ने जान बूझकर या अनजाने ही यह प्रचार करने की भूल कर दी कि टण्डन जी मुसलमानों के शत्रु हैं। -- कुलकुसुम
  • "बाबू जी के जीवन को बनाने में चार व्यक्तियों का प्रमुख हाथ रहा है- उनके माता-पिता अर्थात हमारे पितामह और दादी, पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित बालकृष्ण भट्ट। हमारे पितामह से उन्हें सत्य पर अडिग रहने की शिक्षा मिली, दादी से स्वभाव की दृढ़ता मिली, मालवीय जी से समाज और हिंदी की सेवा और भट्ट जी से हिंदी में लिखने की प्रेरणा मिली। -- पुरुषोत्तम दास टण्डन के पुत्र संतप्रसाद टंडन
  • उनके निकट रहकर किसी की निन्दा नहीं की जा सकती थी। टंडन जी न तो किसी की निंदा करते थे और न सुन सकते थे। उनका मानना था कि हर आदमी बुनियादी रूप से अच्छा है। अगर वह कभी अपने रास्ते से डिगता या भटकता है तो यह तो निंदा या चुगली नहीं, बल्कि करुणा का विषय है। हालत यह थी कि जब स्वयं टंडन जी के निकट का कोई व्यक्ति उनके मानदंड से गिरता हुआ दिखाई पड़ता, तो उनका हृदय दुख से भर जाता था। वे अत्यंत व्याकुल हो उठते थे. ऐसे अवसर पर उनके मुख से फारसी का एक वाक्य सुनाई देता था, 'नागुफ्ता बेह...!' यानी कुछ न कहना ही बेहतर है। -- भाषाविज्ञानी उदयनारायण तिवारी
  • हमारे जमाने के ज्यादा लोग तो अब रहे नहीं, टण्डन जी से हमारा जो रिश्ता बना वह साथियों का-सा था, मिल कर काम करते थे जेल में और बाहर भी । -- जवाहरलाल नेहरू
  • टण्डन जी हम सब से बड़े बुजुर्ग हैं। उस जमाने की तस्वीर देखना है तो टण्डन जी को देखिए जो अटल खम्भे की तरह आज भी अपने सिद्धान्त के पक्के हैं । हममें से कुछ लोग बह गए लेकिन वह डटे रहे। उनके रहने के ढंग और आदत में कोई फ़र्क़ नहीं है भले ही उम्र का फ़र्क़ हो गया हो। एक आदमी का ख़ास बातों में जमा रहना इस बात की याद दिलाता है कि उसके पीछे सिद्धान्त है। -- जवाहरलाल नेहरू
  • टण्डन जी देश के उन थोड़े लोगों में हैं जिनका जीवन एक नहीं अनेक रूप में असाधारण रहा है। राजनीतिक क्षेत्र में उन्होंने लगभग पचास वर्ष लगाये परन्तु कभी उन्होंने अपना क़दम पीछे नहीं हटाया। कहा जाता है कि आगे बढ़ने पर राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वालों की उग्रता कुछ कम हो जाती है; परन्तु टण्डन जी के विचार सदा प्रगतिशील बने रहे । राजनीतिक आँधियों में टण्डन जो कभी डगमगाये नहीं। अपने विचारों को वह निडर होकर प्रकट करते। उनमें बड़ा साहस है और अटूट दृढ़ता। राष्ट्र के महान प्रश्न पर वह स्वतंत्र रूप से सोचते हैं और जब कभी ऐसी परिस्थिति आई, उन्होंने अपनी आवाज उठाई, चाहे वह अकेली ही आवाज क्यों न हो। ऐसे व्यक्ति कम ही होते हैं परन्तु ऐसे महानुभावों की देश को सदा आवश्यकता होती है। -- लालबहादुर शास्त्री
  • हमारे राजनीतिक नेताओं में जो लोग त्यागमूर्ति कहे जाने के अधिकारी हैं। उनमें टण्डन जी का नाम निश्चय ही प्रथम श्रेणी में लिखा जाएगा। उनका त्याग जिस उत्कृष्ट कोटि का था और अपनी त्यागवृत्ति से जिस प्रकार उन्होंने अपने कुटुम्बियों को संयम की दृढ़ शृंखला में बांधा वह चिरस्मरणीय कथा है। उसको सोच कर द्रोणाचार्य की याद आती है जिन्होंने राजगुरु होते हुए अपने एक मात्र पुत्र को दूध पीने तक का अवसर नहीं दिया क्योंकि इससे त्याग में बट्टा लगता और राजा के सामने हाथ फैलाना पड़ता। यों अजातशत्रु तो स्यात् कोई नहीं होता फिर भी मैं समझता हूँ टण्डन जी का स्यात् ही कोई शत्रु होगा, परन्तु यदि कोई हो तो उसको भी टण्डन जी के त्यागमय जीवन के सामने नतमस्तक होना पड़ेगा। -- डा० सम्पूर्णानन्द
  • त्याग और मनस्विता, आदर्श चिन्तन और कर्ममय जीवन औदार्य और सत्य पर दृढ़ रहने का आग्रह, प्रेम पेशल हृदय और निर्भय कर्तव्य निष्ठा, सब के प्रति आदर भाव और यथा प्रयोजन कस कर विरोध करने की क्षमता, अपरिग्रही स्वभाव और निरन्तर दान निष्ठा, विनम्रता और सैद्धान्तिक अकड़ एक साथ नहीं रह पाते । जहाँ रहते हैं वहाँ पूर्ण मनुष्यत्व विराजता है । टण्डन जी के व्यक्तित्व में इनका अद्भुत मिलन हुआ है। इन दुर्लभ गुणों ने उन्हें एक ओर जहाँ असामान्य व्यक्तित्व सम्पन्न मनुष्य बनाया है वहीं गलत-फ़हमी के लिए द्वार भी खोल दिया है। --आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
  • प्रातःस्मरणीय राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन का हिन्दी साहित्य अभेद्य सम्बन्ध था। वस्तुतः यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है हिन्दी साहित्य सम्मेलन का जो कुछ भी स्वरूप और आकार-प्रकार नि उन सब के निर्माण में टण्डन जी का सर्वोपरि हाथ था। -- प्रभात शास्त्री, प्रधान मन्त्री, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग (१९७७)
  • उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य क्षेत्र में कोई सर्जनात्मक कृति नहीं दी है। कुछ तुकबन्दियों तथा लेखों के अतिरिक्त उन्होंने और कुछ नहीं लिखा। लेकिन उनकी वास्तविक कृति है अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का संगठन। इसके द्वारा उन्होंने हिन्दी साहित्य की परीक्षाओं का जो संचालन किया, उससे साधारण जनता में हिन्दी साहित्य के प्रति अभिरुचि, साहित्य की जानकारी और लोक साहित्य में जागृति की भूमिका बनी। सम्मेलन की परीक्षाओं का जाल सम्पूर्ण भारत में बिछ गया। सन् 1910-1950 के मध्य राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय टण्डन जी को है। इसीलिए लोग उन्हें राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्राण कहा करते थे। -- प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मीनारायण सुधांशु

सन्दर्भ

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