दान

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दान का शाब्दिक अर्थ है- 'देने की क्रिया'। सभी धर्मों में दान का बहुत महत्व है। दान देने में सुपात्र का ध्यान रखना चाहिये। हिन्दू धर्म में दान की बहुत गरिमा और महत्व बताया गया है। अन्नदान,विद्यादान, अभयदन आदि की प्रशंशा की गयी है। विनोबा भावे जी के शब्दों में "दान का अर्थ फेंकना नहीं बोना है"।

उक्तियाँ[सम्पादन]

  • उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्॥
जिस तरह तालाब का पानी बहता रहे तभी वह शुद्ध रह सकता है अन्यथा खराब हो जाता है , उसी तरह धन भी यदि दान या भोग न किया जाय तो वह नष्ट हो जाता है। (धन के त्याग में ही उसका रक्षण है संग्रह में नही ।)
  • सुक्षेत्रे वापयेद्बीजं सुपात्रे निक्षिपेत् धनम् ।
सुक्षेत्रे च सुपात्रे च ह्युप्तं दत्तं न नश्यति ॥
अच्छे खेत में बीज बोना चाहिए, सुपात्र को धन देना चाहिए । अच्छे खेत में बोया हुआ और सुपात्र को दिया हुआ, कभी नष्ट नहीं होता।
  • न अन्नोदकसमं दानं न तिथि द्वादशीसमा।
न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम्॥
अन्न एवम् जल के दान के समान कोई दान नहीं है , द्वादशी के समान तिथि नहीं है , गायत्री मंत्र के समान कोई मंत्र नही है, और माता के समान कोई देवता नही है।
अल्पमपि क्षितौ क्षिप्तं वटबीजं प्रवर्धते ।
जलयोगात् यथा दानात् पुण्यवृक्षोऽपि वर्धते ॥
जमीन पर डाला हुआ छोटा सा वटवृक्ष का बीज, जैसे जल के योग से बढता है, वैसे पुण्यवृक्ष भी दान से बढता है।
  • मूर्खो न हि ददाति अर्थं नरो दारिद्रयशङ्कया ।
प्राज्ञाम्पस्तु वितरति अर्थं नरो दारिद्रयशङ्कया ॥ -- भोजप्रबन्धम्
मूर्ख मनुुुष्य इस डर से दान नहीं करता है कि कहीं दरिद्र न हो जांए। दूसरी ओर बुद्धिमान व्यक्ति यह सोचकर अभी ही देता रहता है कि भविष्य में दरिद्रता आने पर दान नहीं दे पाउँगा।
हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् ।
श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम् ॥
हाथ का भूषण दान है, कण्ठ का सत्य, और कान का भूषण शास्त्र है, तो फिर अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है ?
  • न्यायागतेन द्र्व्येण कर्तव्यं पारलौकिकम् ।
दानं हि विधिना देयं काले पात्रे गुणान्विते ॥
न्यायपूर्ण मिले हुए धन से, पारलौकिक कर्तव्य करना चाहिए । दान विधिपूर्वक, गुणवान मनुष्य को, सही समयपर देना चाहिए ।
  • न रणे विजयात् शूरोऽध्ययनात् न च पण्डितः
न वक्ता वाक्पटुत्वेन न दाता चार्थ दानतः ।
इन्द्रियाणां जये शूरो धर्मं चरति पण्डितः
हित प्रायोक्तिभिः वक्ता दाता सन्मान दानतः ॥
रणमैदान में विजय प्राप्त करने से नहीं, बल्कि इंद्रियविजय से इन्सान शूर कहलाता है; अध्ययन से नहीं बल्कि धर्माचरण से इन्सान पण्डित कहलाता है; वाक्चातुर्य से नहीं पर हितकारक वाणी से व्यक्ति वक्ता कहलाता है; और (केवल) धन देने से नहीं, बल्कि सम्मान देने से (सम्मानपूर्वक देने से) इन्साना दाता बनता है ।
  • गोदुग्धं वाटिकापुष्पं विद्या कूपोदकं धनम् ।
दानाद्विवर्धते नित्यमदानाच्च विनश्यति ॥
दान करने से (हर प्रकार की समृद्धि जैसे..) गाय का दूध, बाग के फूल, विद्या, कूए का पानी और धन (इत्यादि) नित्य बढते रहते हैं, पर अदान (न देने) से ये सब नष्ट होते हैं।
  • अभिगम्योत्तमं दानमाहूतं चैव मध्यमम् ।
अधमं याच्यमानं स्यात् सेवादानं तु निष्फलम् ॥
  • खुद उठकर दिया हुआ दान उत्तम है; बुलाकर दिया हुआ दान मध्यम है; याचना के पश्चात् दिया हुआ दान अधम है; और सेवा के बदले में दिया हुआ दान निष्फल है (अर्थात् वह दान नहीं, व्यवहार है) ।
  • अपात्रेभ्यः तु दत्तानि दानानि सुबहून्यपि ।
वृथा भवन्ति राजेन्द्र भस्मन्याज्याहुति र्यथा ॥
हे राजेन्द्र ! जैसे (यज्ञकुंड में बची) भस्म पर घी की आहुति देना निरर्थक है, वैसे ही अपात्र को दिया हुआ बहुत सारा दान व्यर्थ है ।
  • यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनो धनम् ।
अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि ॥
धनिक का सच्चा धन तो वही है जो वह (दान) देता है और जो (स्वयं) भोगता है । अन्यथा मरने के बाद तो उसकी स्त्री और धन का उपभोग बाकी के लोग ही करते हैं ।
  • यद्दददाति पुरुषः तत्तप्राप्नोति केवलम्।
नानुप्तं रोहते सस्यं तद्वद्दानफल़ं विदु॥
रूपं द्रव्यं बलं चायु: भोगैश्वर्य कुलं श्रुतम्।
इत्येततत्सर्वसादुण्यं दानादभ्वति नान्यथा॥ (महाभारत, आदिपर्व १२६-६३)
  • अभिगभ्य दत्तं सन्तुष्टया यत्तदाहुरभिष्टुतम्।
याचितेन तु यद्दत्तं तदाहुर्मध्यमं फलम्॥
अवज्ञया दीयते यत् तथैवाश्रयद्धयाअपि च।
तदाहुरधमं दानं मुनयस्सत्यवादिन:॥ ( महाभारत, शन्तिपर्व २७७)
  • न तद्दानं प्रशंसन्ति येन वृत्तिर्विपद्दते।
दानं यज्ञस्तप: कर्म लोके वृतिमत्तो यत:॥
धर्माय यशसेअर्थाय कामाय स्वजनाय च।
पंचधा विभजान्तित्तमिहामुत्र च मोदते॥।
  • सबसे बड़ा दान तो अभयदान है जो सत्य, अहिंसा का पालन करने से दिया जा सकता हैं। -- वेदव्यास
  • तुलसी पंछिन के पिये, घटै न सरिता-नीर।
दान दिये धन ना घटै, जो सहाय रघुबीर॥ -- तुलसीदास
  • अहंकार से तप नष्ट हो जाता है और इधर-उधर कहने से दान फलहीन हो जाता है। -- मनु
  • दानी कभी दु:ख नहीं पाता, उसे कभी पाप नहीं घेरता। -- ऋग्वेद
  • देना उचित है ऐसा समझकर, बदला मिलने की आशा के बिना देश, काल और पात्र को देखकर जो दान होता हैं, उसे सात्विक दान कहा जाता हैं। -- गीता
  • जो दान अपनी कीर्ति-गाथा गाने की उतावला हो उठता है, वह दान नहीं रह जाता; अपितु अहंकार एवं आडम्बरमात्र रह जाता है। -- हुट्टन
  • प्रार्थना ईश्वर की तरफ आधे रास्ते तक ले जाती है, उपवास हमको उसके महल के द्वार तक पहुँचा देता है और दान से हम उसके अंदर प्रवेश करते हैं। -- कुरान
  • प्रसन्न चित्त से दिया गया थोड़ा दान भी थोड़ा नहीं होता है। -- विमानवत्थु
  • ज्यों-ज्यों धन की थैली दान में खाली होती है, दिल भरता जाता है। -- विक्टर ह्युगो
  • जैसे बादल पृथ्वी से जल लेकर फिर पृथ्वी पर बरसा देते हैं, वैसे ही सज्जन भी जिस वस्तु को ग्रहण करते हैं उसका दान भी करते हैं। -- कालिदास
  • अल्प में से भी जो दान दिया जाता है, वह सहस्रों-लाखों के दान की बराबरी करता है। -- महात्मा बुद्ध
  • जो जल बाहै नाव में, घर में बाहै दाम । दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम । -- कबीर
  • कोई भी व्यक्ति दान देकर कभी गरीब नहीं बना है। -- ओपरा विनफ्रे
  • जीवन की माप उसके अवधि से नहीं बल्कि उसके दान से है। -- पीटर मार्शल
  • हम आपनी जीविका जो हमें मिलता है उससे चलाते हैं लेकिन हम दान देकर किसी की जिंदगी बनाते हैं। -- माया एंजेलो
  • इस सनातन नियम को याद रखो यदि तुम प्राप्त करना चाहते हो तो अर्पित करना सीखो। -- सुभाषचन्द्र बोस
  • दान को कर्त्तव्य के रूप में नहीं बल्कि एक विशेषाधिकार के रूप में देखें। -- बारबरा बुश
  • जीवन की माप उसके अवधि से नहीं बल्कि उसके दान से है। -- पीटर मार्शल
  • दान देना ही आमदनी का एकमात्र द्वार है। -- स्वामी रामतीर्थ
  • दान पुण्य के भाव बेहद श्रेष्ठ है मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि समाज में दान पात्रों का कोई जत्था खड़ा कर लिया जाए। -- डॉ. सम्पूर्णानन्द
  • दान ही धर्म का पूर्णत्व और उसका आभूषण है। -- एडिसन
  • तगड़े और स्वस्थ व्यक्ति को भिक्षा देना, दान का अन्याय है। कर्महीन मनुष्य भिक्षा के दान का अधिकारी नही है। -- विनोबा भावे

इन्हें भी देखें[सम्पादन]