सामग्री पर जाएँ

गिरिधर

विकिसूक्ति से

गिरिधर एक नीति-निपुण हिन्दी कवि थे। शिव सिंह ने उनका जन्म-संवत 1770 दिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के अनुसार- नाम से गिरिधर कविराय भाट जान पड़ते हैं । गिरिधर कवि ने नीति, वैराग्य और अध्यात्म को ही अपनी कविता का विषय बनाया है। जीवन के व्यावहारिक पक्ष का इनके काव्य में प्रभावशाली वर्णन मिलता है।

ऐसा अनुमान है कि गिरिधर पंजाब के रहने वाले थे, किन्तु बाद में इलाहाबाद के आसपास आकर रहने लगे। इन्होंने कुंडलियों में ही समस्त काव्य रचा। गिरधर कविराय की कुंडलियां अवधी और पंजाबी भाषा में हैं। ये अधिकतर नीति विषयक हैं।

कुंडलियाँ

[सम्पादन]

लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिये संग।
गहरि, नदी, नारी जहाँ, तहाँ बचावै अंग॥
जहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहँ मारै।
दुश्मन दावागीर, होयँ तिनहूँ को झारै॥
कह गिरिधर कविराय सुनो हो धूर के बाठी॥
सब हथियार न छाँड़ि, हाथ महँ लीजै लाठी॥

कवि गिरिधर कविराय ने उपर्युक्त कुंडली में लाठी के महत्त्व की ओर संकेत किया है। हमें हमेशा अपने पास लाठी रखनी चाहिए क्योंकि संकट के समय वह हमारी सहायता करती है। गहरी नदी और नाले को पार करते समय मददगार साबित होती है। यदि कोई कुत्ता हमारे ऊपर झपटे तो लाठी से हम अपना बचाव कर सकते हैं। जब दुश्मन अपना अधिकार दिखाकर हमें धमकाने की कोशिश करे तब लाठी के द्‌वारा हम अपना बचाव कर सकते हैं। अत: कवि पथिक को संकेत करते हुए कहते हैं कि हमें सभी हथियारों को त्यागकर सदैव अपने हाथ में लाठी रखनी चाहिए क्योंकि वह हर संकट से उबरने में हमारी मदद कर सकता है।


कमरी थोरे दाम की,बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

उपर्युक्त कुंडली में गिरिधर कविराय ने कंबल के महत्त्व को प्रतिपादित करने का प्रयास किया है। कंबल बहुत ही सस्ते दामों में मिलता है परन्तु वह हमारे ओढने, बिछाने आदि सभी कामों में आता है। वहीं दूसरी तरफ मलमल की रज़ाई देखने में सुंदर और मुलायम होती है किन्तु यात्रा करते समय उसे साथ रखने में बड़ी परेशानी होती है। कंबल को किसी भी तरह बाँधकर उसकी छोटी-सी गठरी बनाकर अपने पास रख सकते हैं और ज़रूरत पड़ने पर रात में उसे बिछाकर सो सकते हैं। अत: कवि कहते हैं कि भले ही कंबल की कीमत कम है परन्तु उसे साथ रखने पर हम सुविधानुसार समय-समय पर उसका प्रयोग कर सकते हैं।

गुन के गाहक सहस, नर बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ के एक रंग, काग सब भये अपावन॥
कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के।
बिनु गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के॥

प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने मनुष्य के आंतरिक गुणों की चर्चा की है। मनुष्य की पहचान उसके गुणों से ही होती है, गुणी व्यक्ति को हजारों लोग स्वीकार करने को तैयार रहते हैं लेकिन बिना गुणों के समाज में उसकी कोई मह्त्ता नहीं। जिस प्रकार कौवा और कोयल रूप-रंग में समान होते हैं किन्तु दोनों की वाणी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। कोयल की वाणी मधुर होने के कारण वह जनमानस में प्रिय है। वहीं दूसरी ओर कौवा अपनी कर्कश वाणी के कारण सभी को अप्रिय है। अत: कवि कहते हैं कि हमें अपने मन में इस बात की गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि इस संसार में गुणहीन व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं होता है।

साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार।
जब लग पैसा गाँठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संग ही संग डोले।
पैसा रहे न पास, यार मुख से नहिं बोले॥
कह गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई साँई॥

प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने समाज की रीति पर व्यंग्य किया है तथा स्वार्थी मित्र के संबंध में बताया है। कवि कहते हैं कि इस संसार में सभी मतलबी हैं। बिना स्वार्थ के कोई किसी से मित्रता नहीं करता है। जब तक मित्र के पास धन-दौलत है तब तक सारे मित्र उसके आस-पास घूमते हैं। मित्र के पास जैसे ही धन समाप्त हो जाता है सब उससे मुँह मोड़ लेते हैं। संकट के समय भी उसका साथ नहीं देते हैं। अत: कवि कहते हैं कि संसार का यही नियम है कि बिना स्वार्थ के कोई किसी का सगा-संबंधी नहीं होता।

रहिए लटपट काटि दिन, बरु घामे माँ सोय।
छाँह न बाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा देहैं।
जा दिन बहै बयारि, टूटि तब जर से जैहैं॥
कह गिरिधर कविराय छाँह मोटे की गहिए।
पाती सब झरि जायँ, तऊ छाया में रहिए॥

उपर्युक्त कुंडली में गिरिधर कविराय ने अनुभवी व्यक्ति की विशेषता बताई है। कवि के अनुसार हमें पतले पेड़ की छाया में कभी नहीं बैठना चाहिए क्योंकि वह आँधी-तूफ़ान के आने पर टूट कर हमारे प्राण संकट में भी डाल सकता है। इसलिए हमें सदैव मोटे और पुराने पेड़ों की छाया में आराम करना चाहिए क्योंकि उसके पत्ते झड़ जाने के बावज़ूद भी वह हमें पूर्ववत्‌ शीतल छाया प्रदान करते हैं। अत: हमें अनुभवी व्यक्तियों की संगति में रहना चाहिए क्योंकि अनुभवहीन व्यक्ति हमें पतन की ओर ले जा सकता है।

पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
कह गिरिधर कविराय, बड़ेन की याही बानी।
चलिए चाल सुचाल, राखिए अपना पानी॥

प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने परोपकार का महत्त्व बताया है। कवि कहते हैं कि जिस प्रकार नाव में पानी बढ़ जाने पर दोनों हाथों से पानी बाहर निकालने का प्रयास करते हैं अन्यथा नाव के डूब जाने का भय रहता है। उसी प्रकार घर में ज्यादा धन-दौलत आ जाने पर हमें उसे परोपकार में लगाना चाहिए। कवि के अनुसार अच्छे और परोपकारी व्यक्तियों की यही विशेषता है कि वे धन का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करते हैं और समाज में अपना मान- सम्मान बनाए रखते हैं।

राजा के दरबार में, जैये समया पाय।
साँई तहाँ न बैठिये, जहँ कोउ देय उठाय॥
जहँ कोउ देय उठाय, बोल अनबोले रहिए।
हँसिये नहीं हहाय, बात पूछे ते कहिए॥
कह गिरिधर कविराय समय सों कीजै काजा।
अति आतुर नहिं होय, बहुरि अनखैहैं राजा॥

हमें अपने सामर्थ्य अनुसार ही आचरण करना चाहिए। कवि कहते हैं कि जिस प्रकार राजा के दरबार में हमें समय पर ही जाना चाहिए और ऐसी जगह नहीं बैठना चाहिए जहाँ से कोई हमें उठा दे।
बिना पूछे किसी प्रश्न का जवाब नहीं देना चाहिए और बिना मतलब के हँसना भी नहीं चाहिए। हमें अपना हर कार्य समयानुसार ही करना चाहिए। जल्दीबाज़ी में ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे राजा नाराज़ हो जाएँ।


दौलत पाय न कीजिए, सपनेहु अभिमान।
चंचल जल दिन चारिको, ठाउं न रहत निदान॥
ठाउं न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै।
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै॥
कह 'गिरिधर कविराय अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सबही के दौलत॥
(पाहुन=अतिथि,मेहमान)


गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय ।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय ।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबे सुहावन ।
दोऊ को इक रंग, काग सब भये अपावन ॥
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के ।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुनके ॥
3. बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय

बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
जग में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै॥
कह 'गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे॥

चिंता ज्वाल सरीर की, दाह लगे न बुझाय।
प्रकट धुआं नहिं देखिए, उर अंतर धुंधुवाय॥
उर अंतर धुंधुवाय, जरै जस कांच की भट्ठी।
रक्त मांस जरि जाय, रहै पांजरि की ठट्ठी॥
कह 'गिरिधर कविराय, सुनो रे मेरे मिंता।
ते नर कैसे जियै, जाहि व्यापी है चिंता॥

बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥
कह 'गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती॥

पानी बाढो नाव में, घर में बाढो दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
परमारथ के काज, सीस आगै धरि दीजै॥
कह 'गिरिधर कविराय, बडेन की याही बानी।
चलिये चाल सुचाल, राखिये अपनो पानी॥

रहिये लटपट काटि दिन, बरु घामें मां सोय।
छांह न वाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा दैहै।
जा दिन बहै बयारि, टूटि तब जर से जैहै॥
कह 'गिरिधर कविराय छांह मोटे की गहिये।
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिये॥

लाठी में हैं गुण बहुत, सदा रखिये संग ।
गहरि नदी, नाली जहाँ, तहाँ बचावै अंग ।।
तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहँ मारे ।
दुश्मन दावागीर होय, तिनहूँ को झारै ।।
कह गिरिधर कविराय, सुनो हे दूर के बाठी ।
सब हथियार छाँडि, हाथ महँ लीजै लाठी ।।

जानो नहीं जिस गाँव में, कहा बूझनो नाम ।
तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कुछ काम ॥
जिनसो नहिं कुछ काम, करे जो उनकी चरचा ।
राग द्वेष पुनि क्रोध बोध में तिनका परचा ॥
कह गिरिधर कविराय होइ जिन संग मिलि खानो।
ताकी पूछो जात बरन कुल क्या है जानो ॥

जाको धन, धरती हरी, ताहि न लीजै संग।
ओ संग राखै ही बनै, तो करि राखु अपंग ॥
तो करि राखु अपंग, भीलि परतीति न कीजै ।
सौ सौगन्दें खाय, चित्त में एक न दीजै ॥
कह गिरिधर कविराय, कबहुँ विश्वास न वाको ।
रिपु समान परिहरिय, हरी धन, धरती जाको ॥

झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय ।
लेत परम सुख उपजै, लैके दियो न जाय ॥
लैके दियो न जाय, ऊँच अरु नीच बतावै ।
ॠण उधार की रीति, मांगते मारन धावै ॥
कह गिरिधर कविराय, जानी रह मन में रूठा।
बहुत दिना हो जाय, कहै तेरो कागज झूठा ॥

सोना लादन पिय गए, सूना करि गए देस।
सोना मिले न पिय मिले, रूपा ह्वै गए केस॥
रूपा ह्वै गए केस, रोर रंग रूप गंवावा।
सेजन को बिसराम, पिया बिन कबहुं न पावा॥
कह 'गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना।
बहुरि पिया घर आव, कहा करिहौ लै सोना॥

साईं अवसर के परे, को न सहै दु:ख द्वंद।
जाय बिकाने डोम घर, वै राजा हरिचंद॥
वै राजा हरिचंद, करैं मरघट रखवारी।
धरे तपस्वी वेष, फिरै अर्जुन बलधारी॥
कह 'गिरिधर कविराय, तपै वह भीम रसोई।
को न करै घटि काम, परे अवसर के साई॥

साईं, बैर न कीजिए, गुरु, पंडित, कवि, यार ।
बेटा, बनिता, पँवरिया, यज्ञ–करावनहार ॥
यज्ञ–करावनहार, राजमंत्री जो होई ।
विप्र, पड़ोसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई ॥
कह गिरिधर कविराय, जुगन ते यह चलि आई
इअन तेरह सों तरह दिये बनि आवे साईं ॥

साईं अपने चित्त की, भूलि न कहिये कोइ।
तब लगि मन में राखिये, जब लगि कारज होइ॥
जब लगि कारज होइ, भूलि कबं नहिं कहिये।
दुरजन हंसै न कोय, आप सियरे ह्वै रहिये।
कह 'गिरिधर कविराय बात चतुरन के र्ताईं।
करतूती कहि देत, आप कहिये नहिं साईं॥

साईं सब संसार में, मतलब को व्यवहार।
जब लग पैसा गांठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संगही संग डोलैं।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलैं॥
कह 'गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति यार बिरला कोई साईं॥

साईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज
गयो दुहुन को राज बाप बेटा के बिगरे
दुसमन दावागीर भए महिमंडल सिगरे
कह गिरिधर कविराय जुगन याही चलि आई
पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई

साईं घोड़े आछतहि गदहन आयो राज।
कौआ लीजै हाथ में दूरि कीजिये बाज॥
दुरी कीजिये बाज राज पुनि ऐसो आयो ।
सिंह कीजिये कैद स्यार गजराज चढायो॥
कह गिरिधर कविराय जहाँ यह बूझि बधाई।
तहां न कीजै भोर साँझ उठि चलिए साईं ॥

साईं तहां न जाइये जहां न आपु सुहाय
वर्ण विषै जाने नहीं, गदहा दाखै खाय
गदहा दाखै खाय गऊ पर दृशटि लगावै
सभा बैठि मुसकयाय यही सब नृप को भावै
कह गिरिधर कविराय सुनो रे मेरे भाई
जहां न करिये बास तुरत उठि अईये साईं

साईं सुआ प्रवीन गति वाणी वदन विचित्त
रूपवंत गुण आगरो राम नाम सों चित्त
राम नाम सों चित्त और देवन अनुरागयो
जहां जहां तुव गयो तहां तहां नीको लागयो
कह गिरिधर कविराय सुआ चूकयो चतुराई
वृथा कियो विश्वास सेय सेमर को साईं

साईं अपने भ्रात को, कबहुं न दीजै त्रास
पलक दूर नहिं कीजिये, सदा राखिये पास
सदा राखिये पास, त्रास कबहूं नहिं दीजै
त्रास दियो लंकेश, ताहि की गति सुन लीजै
कह गिरिधर कविराय, राम सों मिलियो जाई
पाय विभीशण राज, लंकपति बाजयो साईं

कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह 'गिरिधर कविराय', मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

(कमरी=कमली,छोटा कंबल, कमर या बीचवाले भाग में
बाँधी जानेवाली रस्सी या और कोई चीज, छोटी कुरती,
दाम=मूल्य, खासा=पतला सूती कपड़ा, मलमल= एक
प्रकार का पतला कपड़ा जो बहुत बारीक सूत से बुना
जाता है, वाफ्ता=बहुत सुन्दर रंगीन सूती कपड़ा, बकुचा=
छोटी गठरी, मोट=गठरी, दमरी=दाम,मूल्य)


हुक्का बांध्यौ फैंट में नै गहि लीनी हाथ
चले राह में जात है बंधी तमाकू साथ
बंधी तमाकू साथ गैल को धंधा भूल्यौ
गई सब चिंता दूर आग देखत मन फूल्यौ
कह गिरधर कविराय जु जम कौ आयो रुक्का
जीव लै गया काल हाथ में रह गयौ हुक्का