समीक्ष्य दत्तं काले च भेषजं पाद उच्यते ॥ -- सुश्रुतसंहिता
उत्तम देश में उत्पन्न, प्रशस्त दिन में उखाड़ी गई, युक्तप्रमाण (युक्त मात्रा में), मन को प्रिय, गन्ध वर्ण रस से युक्त, दोषों को नष्त करने वाली, ग्लानि न उत्पन्न करने वाली, विपरीत पड़ने पर भी स्वल्प विकार उत्पन्न करने वाली या विकार न करने वाली, देशकाल आदि की विवेचना करके रोगी को समय पर दी गई औषध गुणकारी होती है।
अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणी तरणम् ।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥
व्याकरण छोड़कर किया हुआ अध्ययन, तूटी हुई नौका से नदी पार करना, और अयोग्य आहार के साथ लिया हुआ औषध – ये ऐसे करने के बजाय तो न करने हि बेहतर है।
मनीषिणः सन्ति न ते हितैषिणः
हितैषिणः सन्ति न ते मनीषिणः।
सुहृच्च विद्वानपि दुर्लभो नृणां
यथौषधं स्वादु हितं च दुर्लभम्॥ -- सुभाषितरत्नभाण्डागारम्
विश्व में जो ज्ञानी लोग तो हैं, वे हितैषी नहीं होते। जो हितैषी हैं, वे ज्ञानी नहीं हैं। अच्छे हृदय वाला और साथ में ज्ञानी मनुष्यों में उसी तरह दुर्लभ हैं जैसे स्वादिष्ट औ हितकर औषधि।
यद्यपि औषधि (जड़ी-बूटी) जंगल में उत्पन्न होने के कारण मनुष्य की श्रेणी में परिगणित नहीं होती किन्तु लाभप्रद होने पर अत्यन्त सावधानी से रखी जाती है। इसी प्रकार यदि अपने परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अनुकूल हो तो उसे पुत्र के समान संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। दूसरी ओर, यदि किसी के शरीर का कोई अंग रोग से विषाक्त हो जाये तो उसे काट कर अलग कर देना चाहिए जिससे शेष शरीर सुखपूर्वक जीवित रहे। इसी प्रकार भले ही अपना आत्मज पुत्र ही क्यों न हो, यदि वह प्रतिकूल है, तो उसका परित्याग कर देना चाहिए।
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।
सुचिन्तितं चौषधामातुराणाम् न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥
शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रह जाते हैं, लेकिन जो शास्त्रों को पढ़ कर अपने जीवन में उनका अनुकरण करते हैं वही विद्वान हैं । जैसे रोग दूर करने के लिए दवा की अच्छी जानकारी होना या दवा का नाम ले लेना पर्याप्त नही अपितु दवा का नियमित सेवन करना आवश्यक होता है।
प्रसन्नता परमात्मा की दी हुई औषधि है, इसे व्यर्थ ना जाने दें।
हित चाहने वाला पराया भी अपना है, और अहित करने वाला अपना भी पराया है। रोग अपनी देह में पैदा होकर भी हानि पहुंचाता है और औषधि वन में पैदा होकर भी हमें लाभ पहुँचाती है।