सेवक
सेवक अर्थात जो पैसे के बदले दूसरों के लिये काम करे। भृत्य, नौकर, चाकर आदि इसके समानार्थी हैं।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- राजा तुष्टोऽपि भृत्यानाम् अर्थमात्रं प्रयच्छति ।
- ते तु सम्मानितास् तस्य प्राणैर्प्युपकुर्वते ॥ -- पञ्चतन्त्र
- राजा तुष्ट होकर भी अपने भृत्यों को केवल अर्थ (धन) देता है। (लेकिन) यदि वे सम्मानित होते हैं तो उसका (राजा का) अपने प्राण देकर भी उपकार करते हैं।
- कृतकृत्यस्य भृत्यस्य कृतं नैव प्रणाशयेत् ।
- फलेन मनसा वाचा दृष्ट्या चैनं प्रहर्षयेत् ॥ -- हितोपदेश
- भृत्य (सेवक) द्वारा किये गये कार्य को मारना नहीं चाहिये (उसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिये)। बल्कि उनको वाणी, मन और दृष्टि से उसका फल (पुरस्कार) देकर उनको हर्षित करना चाहिये (उत्साहित करना चाहिये)।
- यः पृथ्वीमपि दर्पान्धो न पश्यति पुरःस्थिताम् ।
- स दैन्यलघुतां यातं कथं सेवकमीक्षते ॥ -- क्षेमेन्द्र, सेव्यसेवकोपदेशः
- दर्प से अन्धा हुआ (सेव्य) जो अपने सामने स्थित (इतनी बड़ी) पृथ्वी को भी नहीं देखता, वह दीनता से लघु हो गये सेवक को कैसे देख लेता है?
- अगतिं वाहयत्येको बधिरं स्तौति चापरः ।
- अहो जगति हास्याय निर्लज्जौ सेव्यसेवकौ ॥ -- क्षेमेन्द्र, सेव्यसेवकोपदेशः
- एक अगति (न चलने वाली वस्तु) को चलता है, दूसरा बधिर (बहरा) की स्तुति करता है। अहो संसार में सेवय और सेवक ये दोनों ही हँसी के पात्र हैं।
- सेवकः स्वामिनं द्वेष्टि कॄपणं परुषाक्षरम्
- आत्मानं किं स न द्वेष्टि सेव्यासेव्यं न वेत्ति यः ॥ -- पञ्चतन्त्र
- यदि मालिक कंजूस हो, और कठोर वचन बोलने वाला हो, तो सेवक उससे द्वेष करता है। वह अपने आप से द्वेष क्यों नहीं करता जो यह नहीं जानता कि किसकी सेवा करनी चाहिये और किसकी नहीं।
- यो न वेत्ति गुणान् यस्य न तं सेवेत पण्डितः ।
- न हि तस्मात् फलं किञ्चित् सुकृष्टाद् ऊषराद् इव ॥ -- पञ्चतन्त्र
- An intelligent man should not serve a person who does not recognise his good qualities. This will not be fruitful, much like working hard to cultivate a barren land.
- अपि मृद्व्या गिरा लभ्यः सदा जागर्त्यतन्द्रितः ।
- नास्ति धर्मसमो भृत्यः किंचिदुक्तस्तु धावति ॥ -- महासुभाषित संग्रह
- धर्म के समान कोई भी सेवक नहीं है, जो धीरे से पुकारने पर आ जाता है, आलस्य के बिना सदैव जाग्रत रहता है, और छोटे से भाषण से अपने कार्य (संदेश) को बढ़ाता है।
भृत्य पर सुभाषित (पञ्चतन्त्र से )
[सम्पादन]भृत्यैर्विना स्वयं राजा लोकानुग्रहकारिभिः ।
मयूखैरिव दीप्तांशुस्तेजस्व्यपि न शोभते ॥ ८८॥88
The king does not shine without servants who pleasantly handle the people , like the lustrous sun shines not without his rays.
न विना पार्थिवो भृत्यैर्न भृत्याः पार्थिवं विना ।
तेषां च व्यवहारोऽयं परस्परनिबन्धनः ॥ ८७॥87
The servant cannot be there without the king; the king cannot be there without the servant.They are both bound to each other in all enterprises.
कोपप्रसादवस्तूनि ये विचिन्वन्ति सेवकाः ।
आरोहन्ति शनैः पश्चाद्धुन्वन्तमपि पार्थिवम् ॥ ३७॥37
Servants who know what objects please or irritate the king, will slowly get the king to favour them, though he might be insulting at present.
विद्यावतां महेच्छानां शिल्पविक्रमशालिनाम् ।
सेवावृत्तिविदां चैव नाश्रयः पार्थिवं विना ॥ ३८॥38
For learned persons, for men with great ambitions, for those talented in the arts or valour, for those who are adept in services, there is no other shelter than the king.
काचे मणिर्मणौ काचो येषां बुद्धिर्विकल्पते ।
न तेषां सन्निधौ भृत्यो नाममात्रोऽपि तिष्ठति ॥ ८३॥83
A servant will not stay even for namesake in the presence of a master who misconceives gem as glass and glass as gem.
अनभिज्ञो गुणानां यो न भृत्यैरनुगम्यते ।
धनाढ्योऽपि कुलीनोऽपि क्रमायातोऽपि भूपतिः ॥ ७९॥79
A king be he rich, or of a renowned family, or of a great dynasty, if he does not recognise the good qualities of servant ,he will lose the services of the servant.
स्थानेष्वेव नियोक्तव्या भृत्या आभरणानि च ।
न हि चूडामणिः पादे प्रभवामीति बध्यते ॥ ७८॥78
Servants and ornaments should be placed at proper positions. " Choodaaamani" which should be worn on the head cannot be tied to the feet by vain headed master.
राजा तुष्टो हि भृत्यानामर्थमात्रं प्रयच्छति ।
ते तु संमानमात्रेण प्राणैरप्युपकुर्वते ॥ ९१॥91
When the king is pleased, he offers only money to the servants.But the servants when treated with respect show their gratitude even by offering their own lives.
यस्मिन्कृत्यं समावेश्य निर्विशङ्केन चेतसा ।
आस्यते सेवकः स स्यात्कलत्रमिव चापरम् ॥ ९४॥94
If the king can remain with completely relaxed mind after entrusting the work to the servant, then the servant is worth his name and is like another wife to him.
सेवकः स्वामिनं द्वेष्टि कृपणं परुषाक्षरम् ।
आत्मानं किं स न द्वेष्टि सेव्यासेव्यं न वेत्ति यः ॥ ५१॥51
If the servant hates his master because he is rude and miserly in character, why not he blame himself for not knowing whom one should serve and not serve?