सीताराम गोयल
सीताराम गोयल (16 अक्टूबर 1921 – 3 दिसम्बर 2003) भारत के एक प्रमुख विचारक, इतिहासकार, लेखक एवं प्रकाशक थे। वे अपनी प्रमुख पुस्तकों जैसे "हाऊ आई बीकेम हिंदू", "द कलकत्ता कुरान पेटिशन" और "द ऋषि ऑफ ए रिसर्जेंट इंडिया" के लिए प्रसिद्ध हैं। सीता राम गोयल को उनकी लेखन शैली के लिए भी जाना जाता है। उनकी अधिकांश पुस्तकों में विषय हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच संघर्ष शामिल था।
सीताराम गोयल "धर्मनिरपेक्षता" की धारणा पर सीधे प्रहार करते हैं, जैसे उनकी हिंदी पुस्तिका "धर्मनिरपेक्षता : देशद्रोह का वैकल्पिक नाम" के शीर्षक से ही स्पष्त है। वे भारत के एकमात्र स्वघोषित साम्प्रदायिक हैं। उनका दीर्घकालिक बौद्धिक महत्व यह है कि उन्होंने सभी प्रकार के ईसाईयों के जादू को तोड़ने में बहुत योगदान दिया है। उन्होंने मुस्लिम और मार्क्सवादी पूर्वाग्रह तथा हिंदू धर्म और हिंदू पुनरुत्थानवादी आन्दोलन की गलत व्याख्या को भी बड़ी स्पष्टता से उजागर किया है।
प्रमुख विचार
[सम्पादन]- केवल एक वर्ष और कुछ महीने बाद ही मैंने मार्क्सवाद को उसके अधूरे दर्शन के कारण त्याग दिया, और महसूस किया कि भारत की साम्यवादी पार्टी, भारत में रूसी साम्राज्यवाद के अभ्युदय के लिए पांचवा स्तम्भ थी और स्टालिन के तहत सोवियत संघ की एक विशाल दास साम्राज्य की कल्पना करती थी। -- मैं हिन्दू कैसे बना?, अध्याय-३
- मेरे बौद्धिक विकास पर स्थाई छाप छोड़ने वाले महाविद्यालय के पहले शिक्षक हमारे संस्कृत के प्राध्यापक थे। संस्कृत भाषा और साहित्य, कला स्नातक में मेरा मुख्य विषय नहीं था। मैं केवल एक पूरक परीक्षा में इसे उत्तीर्ण करता था और फिर इसके बारे में भूल जाता था। निर्धारित पाठ्यक्रम में दंडी के दसकुमारचरित के पहले चार अध्याय और भारवि के किरातार्जुनीयम् के कुछ सर्ग थे, जिसमें कुछ व्याकरण और अनुवाद कार्य सहायता के रूप में दिए गए थे। समान्यतः, मेरे जैसे अनियत/अनौपचारिक छात्र को हमारे संस्कृत प्राध्यापक का ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहिए था, ना ही उनकी तरफ मेरा ध्यान आकर्षित होना था, लेकिन मानो हम दोनों का एक दूसरे की ओर आकर्षित होना लिखा था। इस मुलाकात का परिणाम, न केवल संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रति मेरे स्थायी प्रेम का विकसित होना था, बल्कि हिंदू दर्शन और इतिहास को देखने के मेरे नज़रिये में एक निर्णायक प्रयाण भी था। -- मैं हिन्दू कैसे बना?, अध्याय-३
- मानव जाति की जिस चरम नियति के बारे में श्री अरबिन्द घोष ने दावा और वादा किया था, वह मार्क्स की तुलना में कहीं अधिक विलक्षण था। मार्क्स द्वारा अनुमानित और पक्षपोषित अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति एक ऐसी अवस्था की ओर ले जाने के लिए की गई थी जिस पर मानव जाति खुद को तर्कसंगत, नैतिक और सौंदर्यविषयक प्रयासों में संलग्न कर सकती है, और जो वर्गीय हितों से जुड़ी विकृतियों से मुक्त हो। लेकिन श्री ऑरबिंदो द्वारा परिकल्पित और अनुशंसित मनुष्य की मानसिक, जीवनिक, और शारीरिक प्रकृति की सर्वोच्चता मानव जाति को एक मानव जीवन के आध्यात्मिक आत्म अस्तित्व और मानव जीवन के लौकिक उथल-पुथल के बीच की खाई को पाटने में सक्षम बनाएगी। -- मैं हिन्दू कैसे बना?, अध्याय-३
- अंततः मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि मार्क्स एक सामंजस्यपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के प्रतीक थे तो श्री औरबिन्दो एक सामंजस्यपूर्ण मानव व्यक्तित्व की कुंजी थे। -- मैं हिन्दू कैसे बना?, अध्याय-३
- भारत का विभाजन इस्लामी साम्राज्यवाद ने किया था, किन्तु नेहरूवादियों ने बेशर्मी से इसका दोष उन पर डाल दिया जिसे वे ‘हिन्दू सांप्रदायिकता’ कह कर बदनाम करते थे। नए भारतीय गणतंत्र पर यहाँ कम्युनिस्टों द्वारा सोवियत साम्राज्यवाद के हित में एक खुला युद्ध छेड़ा गया, लेकिन नेहरूवादी लोग उन गद्दार कम्युनिस्टों की सफाई देने में लगे हुए थे, जबकि उसी समय पूरी शक्ति और उत्साह से आर. एस. एस. के पीछे पड़े हुए थे। ब्रिटिश राज और नेहरूवादी शासन में कई अन्य समानताएं भी हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जाउँगा, क्योंकि मुझे विश्वास है कि वे समानताएं किसी को भी स्वतः दिख जाएंगी जो इस विषय पर अपनी बुद्धि लगाएगा। नेहरूवादी फार्मूला यह है कि हर हालत में हिन्दुओं पर आरोप लगाओ, चाहे असली अपराधी कोई भी हो। -- (स्व. सीताराम गोयल , "मैं हिन्दू कैसे बना" में)
- सत्य हमारा एकमात्र शस्त्र है। -- सन २०१५ में Koenraad Elst द्वारा 'मोदी टाइम' पर
- मुझे थोड़ा भी सन्देह नहीं है कि इस्लाम के सन्दर्भ में जिसे 'हिन्दू सहनशीलता' कहा जाता है वह अज्ञानता और कायरता के मिश्रण के अलावा और कुछ नहीं है। -- Islam vis-a-vis Hindu temples में (1993)
- पाणिनि की अष्टाध्यायी जैसा एक छोटा ग्रन्थ भी भारत के सभी जनपदों की लगभग पूरी गणना प्रदान करता है। -- सीता राम गोयल ने एस. तलागेरी, द आर्यन आक्रमण सिद्धांत और भारतीय राष्ट्रवाद (1993) में।
- किसी संगठन के जीवनपथ में एक बिन्दु आता है जब अपनी ही चिन्ता करने में उसके मूल लक्ष्य ओझल हो जाते हैं।
- आज का विषय है ‘उदीयमान राष्ट्रदृष्टि’। मेरे लिए यह धृष्टता ही कही जाएगी कि मैं बंगाल के श्रोतागण के सामने, विशेषतया कलकत्ता महानगर के श्रोतागण के सामने, राष्ट्रदृष्टि पर व्याख्यान दूँ। राष्ट्रदृष्टि का जो सर्वांग-सम्पूर्ण दर्शन हमारे सामने है वह हमको इस शती के प्रथम दशक में बंगाल से ही प्राप्त हुआ था, कलकत्ता महानगर में ही मिला था। बंकिमचन्द्र, स्वामी विवेकानन्द तथा श्री अरविन्द की रचनाएँ पढ़ कर और रवीन्द्रनाथ के गान सुनकर ही हम समझ सकते हैं कि राष्ट्रदृष्टि का रूप क्या था और फिर से अनुप्राणित तथा अनुमोदित होने पर वह रूप क्या होगा। इन महापुरूषों ने जो कुछ लिखा है, जो कुछ व्याख्या की है, और अपने जीवन में जो कुछ चरितार्थ किया है, उसमें मुझे कुछ नहीं जोड़ना। मैं तो एक अकिंचन टीकाकार के नाते केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि आज की वस्तुस्थिति में इन महापुरुषों की दृष्टि का विस्तार किस प्रकार किया जाना चाहिए, उस दृष्टि का पुनरुत्थान कैसा होना चाहिए।
जिस राष्ट्रदृष्टि की व्याख्या इन महापुरुषों ने की थी उसकी पराकाष्ठा, उसका पूर्ण विस्तार और उसका पूर्ण परिचय हमें स्वदेशी आंदोलन के समय प्राप्त हुआ था। जिन साम्राज्यवादी शक्तियों ने बाद में बंगाल का विभाजन किया, उन्हीं ने उस समय भी बंगाल के विभाजन का प्रयास किया था। इस्लामी साम्राज्यवाद अथवा उस साम्राज्यवाद के अवशेषों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ मिलकर उस बंगभूमि को विभाजित करने का प्रयास किया था जिसे भगवान ने अविभाज्य बनाया है। उस समय उन शक्तियों का वह षड्यंत्र विफल हुआ था। उन शक्तियों का वह खेल उस दिन इसीलिए बिगड़ गया था कि उस समय हमारी राष्ट्रदृष्टि सचेत थी, सर्वथा सुदृढ़ थी। स्वदेशी आन्दोलन ने ही वस्तुतः हमारे स्वाधीनता संग्राम का सूत्रपात किया था। उस आंदोलन के पूर्व कुछ गिने-चुने महानुभाव एक साथ बैठकर कई-एक प्रस्ताव पास कर लेते थे। इससे अधिक वे लोग कुछ नहीं कर पाते थे। स्वदेशी आंदोलन ने ही हमारे स्वाधीनता-संग्राम के इतिहास में सर्वप्रथम हमारे जनगण को जगाया था। उस जागरण की गूंज सारे भारतवर्ष में दूर-दूर तक सुनी गई थी। महाराष्ट्र तथा पंजाब में वह गूंज विशेषतया सुनी गई थी। स्वदेशी आंदोलन द्वारा दिए गए मन्त्र भी सारे देश ने सुने थे – स्वदेशी का मन्त्र, स्वराज्य का मन्त्र और वन्देमातरम् का वह मन्त्र जिसमें एक जागृत राष्ट्र की सारी आकांक्षाएँ निहित थीं। राष्ट्रदृष्टि की यह छवि सर्वांग-सम्पूर्ण थी। यह छवि कुछ और हो भी नहीं सकती थी।
किन्तु दुर्भाग्यवश देश के परवर्ती नेताओं ने स्वाधीनता-संग्राम के परवर्ती काल में इस दृष्टि को धुंधला कर डाला। कई एक अन्य दृष्टियों की आड़ में यह दृष्टि ओझल हो गई। इस दृष्टि की प्रखरता लुप्त हो गई। परिणामस्वरूप देश को विभाजन की विभीषिका झेलनी पड़ी। हम सब भली-भांति जानते हैं कि घटनाचक्र कैसे चला और देश को कैसा दुर्दिन देखना पड़ा। उस विभीषिका का दुःख बंगाल ने सबसे अधिक भोगा है। बंगाल के शरीर में जो घाव उस समय लगे थे वे अब नासूर बन चुके हैं। इस प्रसंग में मैं अधिक नहीं कहना चाहता। आप लोगों से कुछ भी छुपा नहीं है। मैं तो केवल इतना ही कहना चाहता हूँ, और बड़े दुःख के साथ कह रहा हूँ, कि जिस बंगाल ने राष्ट्रदृष्टि के विलोप के कारण इतना सब सहा है वही बंगाल आज राष्ट्रदृष्टि की सबसे अधिक अवहेलना कर रहा है। राष्ट्रदृष्टि की ऐसी अवहेलना इस देश में अन्यत्र कहीं नहीं हुई। अतएव बंगाल के लिए यही उपादेय है कि वह राष्ट्रदृष्टि को फिर से अनुप्राणित करे, फिर से अनुमोदित करे, फिर से प्रतिष्ठित करे। यही एक मार्ग है जिस पर चलकर बंगाल एक बार फिर भारतवर्ष का नेतृत्व कर सकता है – वह नेतृत्व जो एक दिन उसका था और जो उसने आगे चलकर खो दिया।
आज बंगाल में यह भावना व्याप्त है कि शेष भारत उसकी अवहेलना कर रहा है। किन्तु इस में शेष भारत का कोई दोष नहीं। दोष बंगाल का ही है। बंगाल ने ही अपनी थाती की अवहेलना की है। बंगाल ने ही उस राष्ट्रदृष्टि को भुलाया है जो उसने एक समय सारे भारत को दी थी और जिसके बल पर बंगाल सारे देश का नेता बना था। इस विषय में मैं विस्तार से बोलना नहीं चाहता। आप सब लोग अच्छी तरह जानते हैं कि आज बंगाल में क्या हो रहा है। आज बंगाल में उसी के महापुरुषों द्वारा प्रदत्त दृष्टि की ही नहीं, उन महापुरुषों के चरित्र की भी छीछालेदर की जा रही है। मैं बंगाल में प्रकाशित समाचार-पत्रों में चलने वाली चर्चा पढ़ता रहता हूँ, बंगला भाषा में छपे उपन्यास पढ़ता रहता हूँ तथा अन्य साहित्य भी देखता रहता हूँ। मुझे यह सब पढ़कर पीड़ा का अनुभव होता है। मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि क्या यह वही बंगाल है जिसने एक समय सारे भारत को इतना ऊंचा उठाया था। इस भूमि में इस प्रकार की कुत्सित चेष्टाएँ किस प्रकार सम्भव हुईं?
वह राष्ट्रदृष्टि क्या थी जिसे हमने बंगाल के महापुरुषों से पाया था और जिससे प्रेरणा पाकर भारतवर्ष में एक महान स्वाधीनता-संग्राम का सूत्रपात हुआ था? उन क्रान्तिकारियों का स्मरण कीजिए जिनको उस समय भारतवर्ष ने जन्म दिया था। वे महाप्राण मानव थे जो हाथ में श्रीमद्भगवद्गीता लेकर और कण्ठ से वन्देमातरम् का निनाद करते हुए फांसी के तख़्तों पर झूल गए थे। आजकल भी कुछ लोग क्रान्तिकारी होने का दम भरते हैं। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं होता कि आजकल के बहुत से क्रान्तिकारी क्रूर अपराधियों से अधिक कुछ नहीं। पूर्वकाल के क्रान्तिकारी एक अन्य कोटि के क्रान्तिकारी थे। वे अन्य कोटि के इसीलिए थे कि उनकी दृष्टि अन्य प्रकार की थी।
वह दृष्टि क्या थी? एक प्रकार से देखा जाए तो वह दृष्टि कोई नई दृष्टि नहीं थी। जिस सनातन वैदिक दृष्टि का विस्तार उपनिषद्, जैनागम, त्रिपिटक, रामायण, महाभारत, पुराण, धर्मशास्त्र और परवर्ती सिद्धों और सन्तों की वाणी में मिलता है, उसी का पुनरोच्चारण आधुनिक भाषा में तथा आधुनिक प्रसंग के अनुकूल किया गया था। उस दृष्टि का प्रचार करने वाले महापुरुष हमारे इतिहास में अनेकानेक हुए हैं।
उस दृष्टि का प्रथम आयाम था कि भारतवर्ष सनातन धर्म की भूमि है। यही उस दृष्टि का आदिम तथा सर्वोत्तम स्वर था। उत्तरपाड़ा में दिए गए अपने भाषण में श्री अरविन्द ने कहा था कि सनातन धर्म के उत्थान के साथ ही भारतवर्ष का उत्थान होता है, सनातन धर्म के पतन के साथ ही भारतवर्ष का पतन होता है, और यदि यह सम्भव है कि सनातन धर्म का विलोप हो जाए तो भारतवर्ष भी विनष्ट हो जाएगा। सनातन धर्म के विषय में चर्चा करना इस समय समीचीन नहीं है। मै केवल इतना ही कहूँगा कि सनातन धर्म एक सहज धर्म है, मानवप्रकृति के विकासक्रम के अनुकूल है और मानवप्राणी की चरम साधना को चरितार्थ करने वाला है। वह इस्लाम और ईसाइयत की नाईं एक मनगढ़ंत ढकोसला नहीं है। न ही वह ऐसे कृत्रिम मान्यताओं का संग्रह (set of mechanical beliefs) है जिनको मनुष्य की बाह्य मानस द्वारा गढ़ कर उसके अनुयाइयों के ऊपर लाद दिया गया हो।
उस दृष्टि का दूसरा आयाम था एक विराट और वैविध्य-सम्पन्न संस्कृति का दिग्दर्शन। आधार तथा अधिकार के अनुरूप हमारे समाज के विविध समुदायों ने, हमारे देश के विविध अंचलों ने अपनी-अपनी संस्कृति का विकास किया है, अपनी-अपनी ललित-कलाओं को निखारा है, अपने-अपने साहित्य का सृजन किया है। हमारा साहित्य विराट है- अध्यात्म-विषयक साहित्य, इहलोक से सम्बंधित साहित्य, विज्ञान सम्मत साहित्य। इस साहित्य का सृजन देश के विविध अंचलों में हुआ है, विविध प्रकार के सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेशों में हुआ है। इसी प्रकार हमारी ललित-कलाएँ, हमारा स्थापत्य, हमारा मूर्तिशिल्प तथा हमारा संगीत भी विशालकाय है। कुल मिलाकर ये सारी ललित-कलाएँ, यह समस्त साहित्य एक विपुल सम्पदा है। किन्तु इस समस्त सृजन के पीछे जो प्रेरणा है वह सनातन धर्म की ही प्रेरणा है। राष्ट्रदृष्टि का यह दूसरा आयाम था।
उस दृष्टि का तीसरा आयाम था वह महामहिम समाज जो अधुना हिन्दू समाज कहलाता है। इस समाज का संगठन अध्यात्म के आधार पर हुआ है। सनातन धर्म के धरातल पर खड़ा है यह समाज। इस समाज में सनातन धर्म द्वारा सृष्ट संस्कृति का समावेश है। इस समाज को वर्णाश्रम के रूप में सँवारा गया है। आज हम वर्णाश्रम की वर्णना अंग्रेजी के एक भोंडे शब्द-समवाय द्वारा करते हैं। हम उसे कास्ट-सिस्टम कह कर पुकारते हैं। आज सब लोग कास्ट-सिस्टम को कोसने में व्यस्त हैं। किन्तु वर्णाश्रम ही ने हमारी उस बहुविध समाजव्यवस्था को एक ऐसे सांचे में ढाला है जो अनेक विडम्बनाएँ झेल कर और दीर्घकाल तक अनेक विदेशी आक्रमणों के आघात सहकर, आज तक प्राणवान् है, आज तक प्रगति-परायण है। आधुनिक युग के हमारे सारे महापुरुषों ने वर्णाश्रम की सराहना की है – महर्षि दयानन्द ने, बंकिमचन्द्र ने, स्वामी विवेकानन्द ने, लोकमान्य तिलक ने, महामना मदन मोहन मालवीय ने, महात्मा गांधी ने। इन सब महापुरुषों ने एक स्वर से यह कहा है कि वर्णाश्रम ने ही हिन्दू समाज को विनाश से बचा लिया। ईसायत, इस्लाम तथा कम्युनिज्म ने भारतवर्ष के बाहर अनेक समाज-व्यवस्थाओं का विनाश किया है। भारतवर्ष में ये दस्युदल वैसा नहीं कर पाए। यह वर्णाश्रम का ही प्रताप है। राष्ट्रदृष्टि का यह तीसरा आयाम था। -- योगक्षेम, कलकत्ता, की मासिक सभा में ४ दिसम्बर, १९८३ को सीताराम गोयल का भाषण