राम स्वरूप
दिखावट
राम स्वरूप (1920-26 दिसंबर, 1998) वैदिक परम्परा के प्रमुख बुद्धिजीवी थे। उनकारा जन्म हरियाणा में सोनीपत में एक धनी परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा दिल्ली में हुई जहां उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। शिक्षा के पश्चात कई वर्ष वह वामपंथ विचारधारा के प्रभाव में थे। जब उन्हें रूस और चीन में साम्यवाद (कम्यूनिज्म) के नाम पर अत्याचार के बारे में पता चला तो वे साम्यवाद के विरोधी हो गये और उन्होंने इसके विरुद्ध कई ग्रन्थ लिखे जिनका प्रभाव अमेरिकी बुद्धिजीवियों पर भी पड़ा। वह अविवाहित रहे और जीवन के दूसरे भाग को उन्होंने धर्म, ज्ञान और समाज के चिन्तन पर व्यतीत किया।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- नए स्वयंभू सामाजिक न्याय का नाम लेने वाले बुद्धिजीवियों और दलों को जातिविहीन भारत नहीं चाहिए, वे बिना धर्म के जाति चाहते हैं। -- राम स्वरूप: "जाति के विकृति के पीछे तर्क" में, इंडियन एक्सप्रेस, 13-9-1996
- धार्मिक सद्भाव एक वांछनीय वस्तु है। लेकिन इस खेल को खेलने में दो पक्ष लगते हैं। दुर्भाग्य से ऐसी भावना (धार्मिक सद्भाव) इस्लामी धर्मशास्त्र में निम्न स्थान रखती है। -- के.एस. लाल (1999) द्वारा रचित "भारत में मुस्लिम राज्य का सिद्धांत और व्यवहार" (Theory and practice of Muslim state in India) नई दिल्ली: आदित्य प्रकाशन, अध्याय 7 से उद्धरित।
- मंगोलिया में एक सामूहिक कब्र मिली है जिसमें पूर्व साम्यवादी शासन द्वारा नष्ट कर दिए गए हजारों बौद्ध भिक्षुओं के अवशेष हैं। एक 83 वर्षीय व्यक्ति, जो कभी विनाशक दल का प्रमुख था, ने स्वीकार किया कि उसने स्वयं 15,724 लोगों को जान से मारा है। सन 1197 में नालन्दा में जो काम आक्रमणकारी मुस्लिम सेनाओं ने किया था वैसा ही यह काम स्थानीय कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों और सामाजिक परिवर्तकों द्वारा दोहराया गया था। -- एस.टी.एस. गुरबचन और राम स्वरूप द्वारा लिखित "1947 में पंजाब में सिखों और हिंदुओं पर मुस्लिम लीग का हमला" (1991) में राम स्वरूप द्वारा लिखी भूमिका से उद्धृत।
- "सरकारी धन के साथ सरकारी नियंत्रण आता है" यह सभी देशों का सिद्धान्त है। लेकिन अल्पसंख्यक धर्मों के संबंध में भारत की स्थिति अनोखी है। संविधान के अनुच्छेद ३० के अनुसार, "अल्पसंख्यक" धर्मों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त रहते हुए शैक्षणिक संस्थान चलाने की अनुमति है, फिर भी वे सरकारी धन के लिए उतने ही पात्र हैं जितने कि "बहुसंख्यक" धर्म के सदस्यों द्वारा संचालित संस्थान। संविधान में जैन, बौद्ध और सिखों को "हिंदू" माना जाता है और इसलिए वे बहुसंख्यक धर्म के भाग हैं। प्रभावी रूप से यह प्रावधान केवल मुसलमानों, ईसाइयों और ऐसे किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है जो खुद को अल्पसंख्यक धर्म घोषित करवा सकता है। इसका एक अजीब परिणाम यह है कि दक्षिण भारत के वीर शैवों ने इस सदी की शुरुआत में अल्पसंख्यक दर्जे के लिए सफलतापूर्वक तर्क दिया... --- रामकृष्ण मिशन (१९८६)
- मार्क्सवादियों ने बड़े पैमाने पर भारतीय इतिहास को फिर से लिखना शुरू कर दिया है, और इसका अर्थ है भारतीय इतिहास का व्यवस्थित मिथ्याकरण। मार्क्सवादियों की भारत के प्रति अवमानना गहरी और सैद्धांतिक रूप से दृढ़ है, विशेष रूप से भारतीय धर्म, भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की अवमानना। यह तिरस्कार अब तक के सबसे कट्टर साम्राज्यवादियों द्वारा दिखाए गए तिरस्कार से भी अधिक है।" -- राम स्वरूप, कोएनराड एल्स्ट द्वारा "Negationism in India: concealing the record of Islam" में उद्धृत
- एक हजार वर्ष के लंबे निर्वासन के बाद बौद्ध धर्म फिर से भारत लौट रहा है और इसका खुले हाथों से स्वागत किया जा रहा है। गर्मजोशी से किये गये इस स्वागत का एक करण हिन्दुओं की धार्मिक सहिष्णुता है। लेकिन इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि बुद्ध और बौद्ध धर्म, हिन्दू चेतना का एक अभिन्न भाग है। बुद्ध तो हिन्दू ही थे। बौद्ध धर्म का मूल हिन्दू धर्म है, और उसका विकास, कला और वास्तुकला, प्रतिमा विज्ञान, भाषा, विश्वास, मनोविज्ञान, नाम, नामकरण, धार्मिक प्रतिज्ञा और आध्यात्मिक अनुशासन में हिन्दू धर्म ही है। ...हिंदू धर्म, संपूर्ण बौद्ध धर्म नहीं है, लेकिन बौद्ध धर्म के लोकाचार अधिकांश भाग मूलतः हिंदू है। --हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म की तुलना (1958, संशोधित 1984)
- सांख्य हमें बताता है कि आंखें नहीं देखतीं बल्कि दर्शन से आँखों का विकास होता है।
- इस्लाम की कहानी भी अलग नहीं है। पैग़म्बर का इस्लाम रहस्यवादी विचारों का विरोधी है। शुरु-शुरू में, कुछ सूफियों ने शहादत दी, लेकिन अंततः उन्होंने पैगंबरी इस्लाम के सामने आत्मसमर्पण करके शांति और सुरक्षा प्रप्त की। कुछ उत्कृष्ट सूफी हुए हैं, लेकिन सूफी आंदोलन भी अधिकांशतः उसी तरह रहा है जैसा कि साम्राज्यवाद के समय ईसाई मिशनरियाँ एक बड़े आक्रामक तंत्र का हिस्सा थीं। इस्लाम ने "काफिरों" पर अत्याचार किया, उनके मंदिरों को नष्ट किया, उन्हें गुलाम बनाया और लूटा, लेकिन कोई सूफी हमें विरोध करते हुए नहीं मिला। अक्सर वे सूफी इस बर्बर कार्वाई के लाभार्थी थे। थॉमस अर्नोल्ड कहते हैं, "कई मामलों में इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुस्लिम संत का दरगाह उस स्थान पर बना है जहाँ किसी स्थानीय पंथ के सन्त का पूजास्थल था और जो इस्लाम के आने से बहुत पहले से ही प्रचलित था।" अजमेर में मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह एक पुराने हिंदू मंदिर के खंडहरों पर बनी एक ऐसी दरगाह है। मुइनुद्दीएन चिश्ती को एक हिंदू राजकुमारी का उपहार भी मिला था, जो कि मलिक खिताब नामक एक मुस्लिम जनरल द्वारा 'लूटी गई' लूट का हिस्सा था, जब उसने पड़ोसी बुतपरस्त भूमि पर हमला किया था। सूफी संत प्रायः इस्लामी जिहाद में पूर्ण भाग लेते थे। -- Hindu View of Christianity and Islam (1992)
- उनके (मुसलमानों के) कीर्तिमान रिकॉर्ड की बराबरी हाल ही में साम्यवादियों ने की है जिन्हें बर्ट्रेंड रसेल जैसे विचारकों ईसाई विधर्म मानते हैं। चीन में साम्यवादी शासन ने पाँच लाख बौद्ध तीर्थस्थलों को नष्ट कर दिया। (क्या वहां के बौद्धों को भी अपने मंदिरों में अपना सोना जमा करने की आदत थी, इस प्रकार वे 'साम्यवादी न्याय' को आकर्षित करते थे और इस प्रक्रिया में उन्हें नष्ट कर देते थे? या क्या यह पूरी तरह से एक विचारधारा से प्रेरित कृत्य का एक दुर्लभ उदाहरण है? संभवतः जे.एन.यू. के स्टालिनवादी इतिहासकार स्पष्ट कर सकें।)