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वायु

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वायु पुल्लिंग, वातीति। वागतिगन्धनयोः धातु में कृवा-पाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण् से उण् तथा आतो युक्चिण्कृतोः से युक् होने पर वायु शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है - गति, गमन और गन्धग्रहण करना। ऋग्वेद में वायु की देवता के रूप में स्तुति की गई है। ऋग्वेद में वायु के लिए 'मातरिश्वा' कहा गया है-

  • तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा
अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति॥
यक्ष के द्वारा प्रश्न पुच्छने पर आप कौन है? वायु कहते है मैं वायुदेव हूँ। मुझे मातरिश्वा भी कहा जाता है।
  • वानाद्गमनाद्गन्धग्रहणाद् वायुः।
वायु को वान् (गति करने), गमन और गन्धग्रहण के कारण वायु कहा गया है।
  • मातर्यन्तरिक्षे श्वयतीति मातरिश्वा।
अन्तरिक्ष में विचरण करने के कारण वायु को मातरिश्वा कहा जाता है।
  • वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुर्वायुश्च कीर्तितः।
वायु ही सम्पूर्ण विश्व है और वायु को ही इस संसार का स्वामी या ईश्वर माना जाता है।
  • वात विश्वकर्मा विश्वात्मा विश्वरूपः प्रजापतिः।
स्रष्टा धाता विभुर्विष्णुः संहर्ता मृत्युरन्तकः॥
तद्दुष्टौ प्रयत्नेन यतितव्यमतः सदा॥ -- अष्टांगहृदय निघण्टु १५.२,३
यह वायु विश्वकर्मा है, विश्व आत्मा है, विश्व रुप है, प्रजा का स्वामी है, सृष्टिकर्ता है, धारण करने वाला है, सर्व व्यापक है, कल्याण करने वाला है तथा संहार करने वाला है। अतः वायु कभी प्रदूषित न हो हमें ऐसा प्रयत्न सर्वदा करना चाहिए।
  • प्राणिनां सर्वतो वायुश्चेष्टां वर्तयते पृथक्।
प्राणनाच्चैव भूतानां प्राणः इत्यभिधीयते॥ -- महाभारत शान्तिपर्व ३२८-३५
वायु सभी भूतप्राणियों की अलग-अलग सभी चेष्टाओं का सम्पादन करता है। तथा सम्पूर्ण जीव-प्राणियों को जीवित रखता है, जिस कारण वायु को 'प्राण' भी कहा जाता है।
  • वायुर्वाव संवर्गो यदा वा अग्निरुद्वायति
वायुमेवाप्येति यदा सूर्योऽस्तमेति
वायुमेवाप्येति यदा चन्द्रोऽस्तमेति वायुमेवाप्येति॥ -- छान्दोग्योपनिषद ४-३-१
वायु ही संवर्ग है। जब अग्नि शान्त होती है, सूर्य और अस्त होता है, तो वह वायु में ही समाहित हो जातें हैं।

( छान्दोग्योपनिषद में वायु के दो संवर्ग माने गये हैं। देवताओं में वायु देव और इन्द्रियों में प्राण वायु।)

  • यच्च किंचिदिह प्राणी चेष्टते शाल्मले भुवि।
सर्वत्र भगवान् वायुश्चेष्टाप्राणकरः प्रभुः॥
हे सेमल ! प्राणी इस भूतल पर जो भी चेष्टा करता है, उस चेष्टा की सम्पूर्ण शक्ति तथा जीवन देने का सारा सामर्थ्य के कारक भगवान वायु ही हैं।
  • वायुरायुर्बल वायुर्कयुर्धारता शरीरिणाम्।
वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुर्वायुश्च कीर्तितः॥
वायु ही आयु है। वायु ही शरीर की शक्ति है। वायु ही आत्मा को धारण करने वाली है। वायु ही संसार है। वायु ही इस जगत के प्रभु हैं।
  • उत स्म ते वनस्पते वातो वि वात्यग्रमित्।
अथ इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखल॥ -- ऋग्वेद १.२८.६
वायु देव विशेष गति से बहकर औषधियों और वनस्पतियों को स्पर्श करते हुए उलूखल में प्रेवश करता है। जो सोम, इन्द्रदेव के सेवनार्थ होता है। अर्थात् औषधिसमवायः वायु भूत-प्राणियों के लिए हितकर होता है।

महाभारत के अनुसार वायु के प्रकार सात (७) हैं। महाभारत के शान्तिपर्व के अध्याय 328 में सात प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है। वायु के प्रकार - (१) प्रवह (२) आवह (३) उद्वह (४) संवह (५) विवह (६) परिवह (७) परावह।

  • रयत्यभ्रसंघातान् धूमजांश्चोष्मजांश्च यः।
प्रथमः प्रथमे मार्गे प्रवहो नाम योऽनिलः॥
जो वायु धुएं और उष्णता से बादलों को इधर-उधर ले जाता है, वह प्रथम मार्ग पर प्रवाहित होने के कारण प्रथम वायु प्रवह नाम की है।
  • अम्बरे स्नेहमभ्येत्य विद्युद्भ्यश्च महाद्युतिः।
आवहो नाम संवाति द्वितीयः श्वसनो नदन्॥
जो वायु आकाश में जलादि रस मात्राओं और विद्युत आदि को उत्पन्न करने के लिए प्रकट होती है। वह तेजयुक्त वायु आवह नामक द्वितीय वायु है। यह वायु अत्यधिक तेजयुक्त आवाज (शोर) करती हुई बहती है।
  • योऽद्भिः संयोज्य जीमूतान् पर्जन्याय प्रयच्छति।
उद्वह नाम बंहिष्ठस्तृतीयः स सदागतिः॥
जल (समुद्र के) को (वाष्प रुप में) ऊपर उठाकर जीमूत मेघों के रुप में स्थापित करता है तथा जीमूत नामक बादलों को जल से संयुक्त कर पर्जन्य को समर्पित करता है, वह वायु उद्वह कहा जाता है। जो तृतीय मार्ग का अनुसरण करने पर तीसरा वायु कहा गया है।
  • योऽसौ वहति भूतानां विमानानि विहायसा।
चतुर्थः संवहो नाम वायुः स गिरिमर्दनः॥
जो वायु आकाश मार्ग से विचरण करने वाले देवताओं के विमानों का वहन स्वयं करता है तथा पर्वतों का मान मर्दन करता है, वह चतुर्थ वायु संवह कहलाता है।
  • दारुणोत्पातसंचारो नभसः स्तनयित्नुमान्।
पञ्चमः स महावेगो विवहो नाम मारुतः॥
जिस वायु का संचरण बहुत ही भंयकर उत्पात करने वाला होता है तथा जो आकाश में मेघ घटाओं को अपने साथ लेकर चलता है, वह तीव्र वेगशाली वायु पंचम वायु विवह नाम का है।
  • यस्मादाप्यायते सोमो निधिर्दिव्योऽमृतस्य च।
पष्ठः परिवाह नाम स वायुर्जयतां वरः॥
जिस वायु से अमृत की दिव्य निधि चन्द्रमा का भी पोषण होता है, वह षष्ठ श्रेष्ठ विजयशील वायु परिवह नाम से विख्यात है।
  • येन स्पृष्टः पराभूतो यात्येव न निवर्तते।
परावहो नाम परो वायुः स दुरतिक्रमः॥
जिस वायु का स्पर्श होकर प्राणी इस जगत से विलीन होता हुआ चला जाता है और वापस नहीं आता है (सर्वप्राणभूतां प्राणान् योऽन्तकाले निरस्यति)। उस सर्वश्रेष्ठ वायु का नाम परावह है।
  • तौ वा एतौ द्वौ संवर्गौ वायुरेव देवेषु प्राणः प्राणेषु॥
वायु के मात्र दो संवर्ग हैं, देवताओं में वायु देव और इन्द्रियों में प्राणवायु संवर्ग है।

अष्टांगहृदय में स्पष्ट कहा गया है कि वायु संसार की उत्पत्ति का प्रधान कारक है, और यदि यह वायु प्रदूषित हो जाता है तो वायु ही संसार के विनाश का प्रमुख कारण बन जाता है-

  • सर्वार्थानर्थकरणे विश्वस्यास्यैककारणम्।
अदुष्टदुष्टः पवनः शरीरस्य विशेषतः॥ -- अष्टांगहृदय नि. १५.१
  • बाह्यः सिराः प्राप्य यदा कफासृक्- पित्तानि सन्दूषयतीह वायुः।
तैर्वद्धमार्गः स तदा विसर्पन्नुत्सेधलिंग श्वययथुं करोति ॥
जब प्रदूषित वायु बाह्य सिराओं में प्रवेश करके कफ, रक्त और पित्त को दूषित करता है, तो रूकी हुई वायु गमन नहीं कर सकती है,जिसके कारण उत्सधे लक्षण वाला शोध उत्पन्न होता है।
  • प्रकुपितस्य खल्वस्य लोकेषु चरतः कर्माणीमानि भवन्ति, तद्यथा- उत्पीड़नं सागराणां, उद्वर्तनं सरसां, प्रतिसरणमापगानाम्, आकम्पनं च भूमेः, आघमनमम्बुदानां, शिखरिशिखरावमथनं, उन्मथनमनोकहानां, नीरहारनिर्ह्रादपांसुसिकता-मत्स्यमेकोरगक्षाररुधिराश्माशनिविसर्गः, व्यापादनं च षण्णासृतूनां, शस्यानामसंघातः, भूतानां चोपसर्गः भावानां, चाभावकरणं, चतुर्युगान्तकराणां मेघसूर्यानलानिलानां विसर्गः। -- चरकसंहिता-सू० १३.१०
आयुर्वेद शास्त्र चरकसंहिता के जयदेव विद्यालंकार द्वारा प्रणीत तन्त्रार्थदीपिका और हिन्दी व्याख्या सहित ग्रन्थ में वायु प्रदूषण के विषय में कहा गया है कि वायु जब कुपित संचरण करती है तो वह पर्वतों की चोटियों तोड़ती है, वृक्षों को उखाड़ फेंकती है, सागर में तरंगों को उत्पन्न करती है, पृथ्वी पर कम्पन करती है अर्थात् भूकम्प लाती है, ऋतुओं अर्थात् मौसम में परिवर्तन करती है, खाद्यपदार्थों के उत्पन्न होने में असंतुलन पैदा करती है तथा भूतप्राणियों के शरीर में असंख्य रोग उत्पन्न करती है। अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का अन्त कर देती है।

इन्हें भी देखें

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