राहुल सांकृत्यायन

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राहुल सांकृत्यायन (1893 - 1962) हिन्दी साहित्यकार, लेखक, विचारक और भारत के स्वतन्त्रता सेनानी थे। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने दर्शन, साहित्य और इतिहास तीनों क्षेत्रों में काम किया। राहुल सांकृत्यायन ने एक ही जीवन में पहले सनातनी, फिर आर्यसमाजी (जिस दौर में वे बड़े हो रहे थे सनातनी और आर्य आपस में बुरी तरह से लड़ रहे थे), फिर बौद्ध, फिर मार्क्सवादी और अन्त में स्वाधीन चेता के रूप में जीवन दिया। अपने जीवन में उन्होंने अनेक राहें बदलीं, पर उनकी मंजिल हमेशा या तो हिन्दी रही या हिंदुस्तान की गरिमा। वे हिन्दी और भारतीय बौद्धिक परम्परा के प्रति बहुत सजग रहे।

उद्धरण[सम्पादन]

  • जो घूमता नहीं है वो तार्किक नहीं हो सकता, वो उर्ध्वगामी नहीं हो सकता, वो मानवीय नहीं हो सकता। इसलिए हे भावी घुमक्कड़ो! सारी दुनिया तुम्हारा बाहें फैलाये तुम्हारा इंतजार कर रही है।
  • मैं चाहता हूं तरुणों की भांति तरुणियां भी हजारों की संख्या में विशाल पृथ्वी पर निकल पड़ें और दर्जनों की तादाद में प्रथम श्रेणी की घुमक्कड़ बनें। बड़ा निश्चय करने के पहले वह इस बात को समझ लें कि स्त्री का काम केवल बच्चा पैदा करना नहीं है।
  • बौद्ध धर्म को दूसरे धर्मों से जो चीज भिन्न बनाती है वो है ईश्वर के अस्तित्व से पूरी तरह इंकार। ईश्वर के आगे-पीछे तो बड़े-बड़े दर्शन खडे़ किए गए, बड़े-बड़े पोथे लिखे गए। दुनिया के सारे धर्म दूसरी बातों में आपस में कट मरें पर ईश्वर, महोवा या अल्लाह के नाम पर सभी सिर नवाए और अक्ल बेच खाने को तैयार हैं। सिर्फ बौद्ध ही ऐसा धर्म है जिसमें ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है। ईश्वर से मुक्ति पाए बगैर बुद्धि पूरी तरह मुक्त नहीं होती।
  • बुद्ध और ईश्वर साथ-साथ नहीं रह सकते। प्रत्यक्ष से इतर किसी अदृश्य ताकत को मैं नहीं मानता।
  • चौरासी सिद्धों का काल हिन्दी साहित्य का आरम्भ काल है जो कि तिब्बती ग्रन्थों के आधार पर निश्चित है। ...सिद्धों की कविता का प्रचार ही पीछे कबीर, नानक, दादू आदि संतों के वचन-प्रचार के रूप में परिणित हो गया। ... और परम्परा बढ़ चली। -- 1933 में बड़ौदा में इंडियन औरियंटल कान्फ्रेंस में[१]
  • जो लोग आज हिन्दुस्तानी जबान की पैरोकारी राजनीतिक कारणों से कर रहे हैं, वे हिंदी-मुसलमान की एकता चाहते हैं जबकि हिन्दी सबसे पुरानी जबान है। हिन्दी 850 ईस्वी से बोली जाती है।
  • यदि हिन्दी का आगे विकास बढ़ना है तो हिंदी की प्रमुख बोली ‘कौरवी’ को समझना होगा। हिंदी के कथाकारों में जो अधूरा चरित्र-चित्रण मिलता है उसका मुख्य कारण है कौरवी भाषा न समझ पाना। इसलिए हमें वैसे साहित्यकार चाहिए जो लोटा-डोरी लेकर ‘कौरवी’ की तरफ जाएं, ताकि जो हिंदी की लोकोक्तियां हैं, मुहावरें हैं उसको समझ सकें।
  • मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्त्तन नहीं किया।
  • भाषा और साहित्य, धारा के रूप में चलता है। फर्क इतना ही है कि नदी को हम देश की पृष्ठभूमि में देखते हैं जबकि भाषा, देश और भूमि दोनों की पृष्ठभूमि को लिए आगे बढती है।….. कालक्रम के अनुसार देखने पर ही हमें उसका विकास अधिक सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। ऋग्वेद से लेकर १९वीं सदी के अंत तक की गद्य धारा और काव्य धारा के संग्रहों की आवश्यकता है।
  • जल्दी ही मुझे मालूम हो गया कि ऐतिहासिक उपन्यासों का लिखना मुझे हाथ में लेना चाहिए….. कारण यह कि अतीत के प्रगतिशील प्रयत्नों को सामने लाकर पाठकों के हृदय में आदर्शों के प्रति प्रेरणा पैदा की जा सकती है।
  • चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।
  • यदि कोई "गंगा मइया" की जय बोलने के स्थान पर ’वोल्गा‘ की जय बोलने के लिए कहे, तो मैं इसे पागल का प्रलाप ही कहूँगा।
  • धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है? ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना है? अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल (बर्बाद) क्यों है?
  • असल बात तो यह है कि मजहब तो सिखाता है आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना। हिन्दुस्तानियों की एकता मजहब के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर। कौव्वे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं। ('तुम्हारी क्षय', में)
  • कहने के लिए तो हिन्दुओं पर ताना कसते हुए इस्लाम कहता है कि हमने जात-पांत के बंधनों को तोड़ दिया। इस्लाम में आते ही सब भाई-भाई हो जाते हैं। लेकिन क्या यह बात सच है? यदि ऐसा होता तो आज मोमिन (जुलाहा), अप्सार (धुनिया), राइन (कुंजड़ा) आदि का सवाल न उठता। अर्जल और अशरफ़ का शब्द किसी के मुंह पर न आता। सैयद-शेख़, मलिक-पठान, उसी तरह का ख़्याल अपने से छोटी जातियों से रखते हैं, जैसा कि हिंदुओं के बड़ी जात वाले। खाने के बारे में छूतछात कम है और वह तो अब हिंदुओं में भी कम होता जा रहा है। लेकिन सवाल तो है – सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में इस्लाम की बड़ी जातों ने छोटी जातों को क्या आगे बढ़ने का कभी मौक़ा दिया?
  • जो मजहब अपने नाम पर भाई का खून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मजहब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिंदू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ है कि यह भेद सिर्फ बाहरी और बनावटी है।
  • हमें यह मानने में कोई उज्र हो ही नहीं सकता कि हमारे देश के मुसलमान अपनी जातीयता में मजहब को बहुत स्थान देते हैं।<re>राहुल सांकृत्यायन, आज की समस्याएँ , किताब महल , इलाहाबाद, 1945, पृ 1</ref>
  • इस्लाम की समानता और बौद्धों की समानता में बहुत अन्तर है। इस्लाम में मजहबी समानता है। हरेक मुसलमान धर्म-क्षेत्र में समान समझा जाता है, लेकिन बौद्ध धर्म में मानवमात्र समान है – यही क्यों, जीवमात्र समान है। इस मौलिक भेद के कारण एक धर्म युक्तियों, अनुरोध, स्नेह, बन्धुत्व, त्याग, सहिष्णुता से फैला और दूसरा तलवारों की धार पर। वैसे अनेक मुसलमान संतों ने सहिष्णुता और मानव समानता का प्रचार भी किया, पर बहुत कम।[२]
  • ये जानते नहीं कि जिहाद का समय बीत चुका है और विज्ञान का युग आ गया है। ये समझते हैं कि इस्लामी छूरेबाजी के बल पर इन्होने पाकिस्तान कायम किया है। उनको यह नहीं मालूम कि अंग्रेजों ने अशगुन पैदा करने के लिए पाकिस्तान को बनाया।[३]
  • इस्लाम की सफलता किसी उच्च दार्शनिक विचार, महान सदाचार या भव्य आदर्शवाद के कारण नहीं हुई है। आप कुरान को उठा कर किसी धर्म के प्रमुख ग्रंथ से मिला के देख लीजिए, वह हर तरह से बहुत निम्न कोटि का जँचेगा। ...(इस्लाम की) दूसरी सफलता की कुंजी थी : जैसे भी हो स्त्रियों को रख के उससे औलाद को पैदा कर के बढ़ाना। धर्म प्रचार का इस अनूठे ढंग को आप किसी धर्म के लिए शोभा की बात तो नहीं कह सकते।... एक सांप्रदायिकता दूसरी सांप्रदायिकता को पैदा करती है। मुसलमान इस्लाम को मानें, इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, किन्तु यदि वह वेश-भूषा, भाषा, संस्कृति में अपने को विदेशी रखना चाहते हैं, तो समझ लें, यह उनके लिए आफत की चीज है। -- 'युधिष्ठिर' नामक पात्र के माध्यम से [४]
  • मुसलमानों को वही बोली–बानी, वही पर-पोसाक, वही खान-पान अपनाना होगा, जो कि हिंदुओं का है। बिलाइत में ईसाई रहते हैं, यहूदी भी रहते हैं, लेकिन उनको देख के कोई नहीं कह सकता, कि वह दो तीन धर्म को मानते हैं। -- 'भैया' नामक पात्र के माध्यम से[५]
  • एक ईश्वर मानने वाले धर्मों की अपेक्षा अनेक देवता मानने वाले धर्म हज़ार गुना उदार रहे हैं। उनके ईश्वरों की संख्या अपरिमित होने से औरों का भी समावेश आसानी से हो सकता था किंतु एक ईश्वरवादी वैसे करके अपने अकेले ईश्वर की हस्ती को ख़तरे में नहीं डाल सकते थे। आप दुनिया के एक ईश्वरवादी धर्मों के पिछले दो हज़ार वर्ष के इतिहास को देख डालिए, मालूम होगा कि वह सभ्यता, कला, विद्या, विचार-स्वातन्त्र्य और स्वयं मनुष्यों के प्राणों के सबसे बड़े दुश्मन रहे हैं।
  • जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। हमारे पराभव का सारा इतिहास बतलाता है कि हम इसी जाति-भेद के कारण इस अवस्था तक पहुँचे। ये सारी गन्दगियाँ उन्हीं लोगों की तरफ से फैलाई गयी हैं जो धनी हैं या धनी होना चाहते हैं। सबके पीछे ख्याल है धन बटोरकर रख देने या उसकी रक्षा का। गरीबों और अपनी मेहनत की कमाई खाने वालों को ही सबसे ज्यादा नुकसान है, लेकिन सहस्राब्दियों से जात-पाँत के प्रति जनता के अन्दर जो ख्याल पैदा किये गये हैं, वे उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की ओर नजर दौड़ाने नहीं देते। स्वार्थी नेता खुद इसमें सबसे बड़े बाधक हैं।
  • क्या शक्ल देखकर किसी के बारे में आप बतला सकते हैं कि यह ब्राह्मण है और यह शूद्र? कोयले से भी काले ब्राह्मण आपको लाखों की तादाद में मिलेंगे और शूद्रों में भी गेहुएं रंग वालों का अभाव नहीं है।
  • कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी रही कि वे लोग लोकभाषाओं में अपने साहित्य को नहीं ले गए।
  • कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बने बगैर मेरी मृत्यु हो जाती तो मेरा दुभार्ग्य होता।
  • जिस दिन भूमि को स्वर्ग में परिणत कर दिया जायगा, उसी दिन आकाश का स्वर्ग ढ़ह पड़ेगा। आकाश-पाताल के स्वर्ग-नर्क को कायम रखने के लिए, उसके नाम पर बाजार चलाने के लिए, जरूरत है, भूमि पर स्वर्ग-नर्क की, राजा-रंक की, दास-स्वामी की। -- अपनी प्रसिद्ध कृति, ‘वोल्गा से गंगा तक' में
  • हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार रहना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा जरूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।
  • रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं।
  • बहुतों ने पवित्र, निराकार, अभौतिक, प्लेटोनिक प्रेम की बड़ी-बड़ी महिमा गाई है और समझाने की कोशिश की है कि स्त्री-पुरुष का प्रेम सात्विक तल पर ही सीमित रह सकता है। लेकिन यह व्याख्या आत्म-सम्मोहन और परवंचना से अधिक महत्व नहीं रखती। यदि कोई यह कहे कि ऋण और धन विद्युत-तरंग मिलकर प्रज्वलित नहीं होंगे, तो यह मानने की बात है।
  • यदि जनबल पर विश्‍वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।
  • ज़्यादातर पुरानी पोथियों में ७५ प्रतिशत तो बेवकूफियां ही बेवकूफियां भरी पड़ी हैं। हाँ, कहीं कहीं अकल की बातें भी हैं। -- इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में 1937 में
  • इसमें संदेह है कि ऐतिहासिक काल अथवा पिछली सात शताब्दियों में काशी ने कभी देश और राष्ट्र की तत्कालीन या भावी महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर माथापच्ची की हो। काशी ने देश को हमेशा पीछे की तरफ खींचने की कोशिश की। एक से एक प्रतिगामी पंडित और परिब्राजकों को उसने प्रदान किया। -- पंडितों की नगरी काशी के बारे में[६]
  • भारतीय दर्शन सांयस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म की गुलामी से बदतर गुलामी और क्या हो सकती है? -- डा० सर्वेपल्ली राधाकृष्णन के कथन-‘प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी सायंस या कला का लग्गू-भग्गू न होकर, सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता है‘-पर राहुलजी की टिप्पणी
  • हमारे सामने जो मार्ग है उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और बहुत अधिक आनेवाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्म विश्वास प्राप्त करते हैं लेकिन बीते की ओर लौटना प्रगति नहीं, प्रतिगति - पीछे लौटना होगा। हम लौट तो सकते नहीं, क्योंकि अतीत को वर्त्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है। -- अपनी पुस्तक ‘आज की समस्याएँ‘ में
  • मैं नहीं चाहता कि आप मेरी मान्यता को ग्रहण करें, किन्तु मैं इतना अवश्य चाहता हूँ कि आप इतिहास के पृष्ठ पलटें। अंग्रेजों द्वारा लिखा गया इतिहास हमारे देश का दूषित, त्रुटित और पक्षपात रंजित इतिहास है। मैं इस इतिहास पर सिद्ध साहित्य को नहीं परखता। क्या आप बता सकते हैं कि सिद्धों की विशाल परंपरा से कौन सा अंग्रेज़ इतिहासकार परिचित है? किसने पूर्व–मध्य युग पर प्रामाणिक दृष्टि से लिखा है। आप इन इतिहास ग्रन्थों को पढ़ कर कण्णपा या किसी सिद्ध या नाथपंथी योगी का परिचय नहीं पा सकते क्योंकि इनकी दृष्टि सन-सम्वतों में सिमटी रह जाती है। मैं देखता हूँ कि गौतम बुद्ध के बाद देश में तीन-चार बार क्रांतियाँ हुई हैं। किन्तु किसी क्रांति को जनमानस की व्यापक क्रांति के रूप में हमारे इतिहास लेखकों ने अंकित नहीं किया। महेशों और नरेशों का इतिहास लिखने वाले क्या जानें कि जनमानस को जागृत करने वाले विलासी नरेश नहीं होते, साधु, महात्मा और सिद्ध होते हैं। जो राज्य सत्ता से कहीं अधिक प्रभाव जनता पर डालते हैं। आप लोग पहले इतिहास की दृष्टि को स्वच्छ करें, इतिहास के पृष्ठों पर पड़ी धूल को साफ करें और तब इतिहास पढ़ने का उपक्रम करें। मैं सिद्धों और नाथों का समर्थक नहीं हूँ किन्तु इतिहास में उनके महत्त्व की कथाओं को पा कर यह कहने को बाध्य हुआ हूँ। -- दिल्ली विश्वविद्यालय में सिद्ध साहित्य पर अपने व्याख्यान में[७]
  • सेठों के सामने अब राजा झूठे हैं। उनके खर्च बहुत बढ़ गए हैं, लेकिन आमदनी उतनी की उतनी ही है, और सेठों के लिए आमदनी की कोई सीमा नहीं। -- 1943 में यात्रा के दौरान[८]
  • उपसम्पदा के लिये कांडी जाने से पहले विद्यालंकार विहार में नायकपाद के उपाध्यायत्व में मेरी प्रब्रज्या (22 जून) हुई। मैं लंका में रामोदार स्वामी के नाम से प्रसिद्ध था, और लंका छोड़ने से पूर्व ही अपने गोत्र को जोड़कर अपने को रामोदार सांकृत्यायन बना चुका था। मैं समझता था, यही नाम बना रहेगा, क्योंकि इस नाम से मैं साहित्यिक क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुका था, किन्तु प्रब्रज्या संस्कार शुरु होने के चन्द ही मिनट पहले नायकपाद की आज्ञा हुई नये नामकरण की। समय होता, तो मैं समझाने की कोशिश करता, किन्तु अब कुछ करना आज्ञा भंग होता। नाम शायद एकाध और पेश किये गये थे, किन्तु मैंने रामोदार के ‘रा’ की साम्यता के देखते हुए राहुल नाम का प्रस्ताव किया और वह स्वीकृत हुआ। इस प्रकार राहुल सांकृत्यायन के नाम से मैं प्रब्रजित (श्रामणेर) हुआ।[९]
  • त्रिपिटक में कुछ अधिक प्रवेश करते ही वेद, ईश्वर और आर्यसमाज ने साथ छोड़ दिया, मैं अनीश्वरवादी नास्तिक बन गया। बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के प्रति मेरा अनुराग हो गया। उसके बाद तो कोई धर्म मुझे आकृष्ट नहीं कर सका। बुद्ध से अगली मंजिल में मार्क्स मुझे मिले। भौतिकवाद मेरा दर्शन हो गया। पर, बुद्ध के मधुर व्यक्तित्व का आकर्षण मेरे मन से कभी नहीं गया।[१०]
  • कोई समय था कि जब मैं धर्मप्रचारक बनने का तीव्र अनुरागी था, लेकिन अब अवस्था बिल्कुल बदल गयी थी। बौद्धधर्म के साथ भी मेरा कच्चे धागे का ही सम्बन्ध था। हाँ बुद्ध के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। मैं उन्हें भारत का सबसे बड़ा विचारक मानता रहा हूँ और मैं समझता हूँ कि जिस वक्त दुनिया के धर्म का नामोनिशान न रह जायगा, उस वक्त भी लोग बड़े सम्मान के साथ बुद्ध का नाम लेंगे।[११]

बौद्ध धर्म के भारत में पतन पर[सम्पादन]

राहुल सांकृत्यायन के बारे में उद्धरण[सम्पादन]

  • हिन्दी में एक ऐसा आदमी है जो किसान सभा का सभापति बनता है, जिसे प्रगतिशील लेखकों ने अपना पथ प्रदर्शक चुना और हिंदी साहित्य सम्मेलन भी अपना सभापति उसे बनाता है। (बाबा नागार्जुन)
  • आप यही धरना देने, जेल जाने के लिए बने हैं? आपको स्कॉलरली और विद्वतापूर्ण काम करना चाहिए। ( काशीप्रसाद जायसवाल)
  • 'वोल्गा से गंगा' प्रागैतिहासिक और एतिहासिक ललित कथा संग्रह की अनोखी कृति है। हिंदी साहित्य में विशाल आयाम के साथ लिखी गई यह पहली कृति है। (प्रभाकर माचवे)
  • 'हिंदी के हित का अभिमान वह, दान वह।' (सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला')
  • आपने इस शती के तीसरे दशक में जब सरस्वती में लेख लिखना प्रारम्भ किया तब आचार्य द्विवेदी ने साश्चर्य जिज्ञासा की थी कि हिन्दी की यह नवीन उदीयमान प्रतिभा कौन है? तब से आप बराबर सरस्वती की सेवा करते आ रहे हैं। आप संस्कृत, हिन्दी और पालि के विद्वान् हैं। तिब्बती, रुसी और चीनी भाषाओं में निष्ठात हैं। राजनीति, इतिहास और दर्शनशास्त्र के पंडित हैं। आपने तिब्बती भाषा में सैकड़ो अज्ञात संस्कृत ग्रंथो का उद्धार किया। हिन्दी के प्रमुख बौद्ध ग्रंथो का अनुवाद कर हिन्दी का भण्डार भरा। (सरस्वती पत्रिका, अपने हीरक जयन्ती समारोह के अवसर पर मानपत्र देकर सम्मानित करते हुए)
  • वह स्वशिक्षित राहुल नियमित पाठशाला पाठ्यक्रम को तिलांजलि देकर संस्कृत से अरबी, फ़ारसी से अंग्रेजी, सिंहली से तिब्बती भाषाओं में भ्रमण करता है। (डा. भागवत शरण उपाध्याय)
  • राहुल जी इस्लाम का भारतीयकरण करना चाहते थे और हिन्दी-उर्दू के सम्बन्ध में वह हिन्दी के पक्षधर थे। (राहुल जी के जीवनीकार गुणाकर मुले)
  • राहुल जी ने अपना सारा काम चाहे वह पालि सम्बन्धी हो या प्राकृत, अपभ्रंश सम्बन्धी हो या संस्कृत अपने सारे ज्ञान को हिन्दी में निचोड़ दिया था। (नामवर सिंह)
  • उनके मस्तिष्क में वृहस्पति और पाँवों में शनीचर का निवास रहा है। उनकी रचनाधर्मिता मात्र कलात्मकता को प्रदर्शित न कर समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म एवं दर्शन इत्यादि के रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है और जीवन-सापेक्ष बन कर तमाम प्रगतिशील शक्तियों को संघर्ष और गतिशीलता की ओर प्रवृत करती है। -- डा० श्रीराम शर्मा, अपने निबन्ध “राहुलजी रोगशैया पर“ में
  • उनमें प्राचीन भारतीय ऋषि का उद्यात त्याग, महात्मा बुद्ध की तार्किकता, स्वामी दयानन्द की रूढ़ि-भंजकता, इस्लाम के समता-भाव आदि का समाहार मिलता है। साथ ही इनके अंर्तविरोधों का वैज्ञानिक समाधान भी। वे इतिहास को वर्त्तमान के धरातल पर खड़ा होकर देखते हैं और उसके अनुभवों को लेकर भविष्य से बात करते हैं, यही कारण है कि इतिहास उनपर हावी नहीं, वह इतिहास पर हावी रहे। -- डा० खगेन्द्र ठाकुर, अपने निबंध, ‘राहुलजी और नयी चेतना का प्रसार‘ में
  • मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों में वैसे बेधड़क बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वता के समक्ष में अपने को बौना महसूस करता हूँ। -- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राहुलजी की भाषण कला की प्रशंसा करते हुए
  • औघरदानी तो वे थे ही, इसलिए भी धन के प्रति उनकी आसक्ति नहीं थी। मनुष्य को अपने जीवन निर्वाह के लिए धन की भी आवश्यकता पड़ती है, इस सत्यता का बोध महापंडित को अपने जीवन के अंतिम वर्षों में ही हुआ। -- राहुल सांकृत्यायन की पत्नी कमला सांकृत्यायन[१२]
  • जो जीव जीवन भर नहीं रोया, अनेक विपत्तियों का भी जिसने हँसते हँसते सामना किया, वही महापंडित अपने शेष जीवन के डेढ़ वर्ष प्रतिदिन रोते रहे, आँसू बहाते रहे। -- राहुल सांकृत्यायन की पत्नी कमला सांकृत्यायन[१३]
  • भावी कम्युनिस्ट क्रांति में ...उनका अखंड विश्वास था ... कहा करते थे “लाल भवानी की पूजा से ही देश के दु:ख दूर होंगे।" -- कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’[१४]
  • साहित्यिक गवेषणा के क्षेत्र में उनके अनुसन्धानों ने जो प्रकाश फैलाया है उससे युगों का घनीभूत अंधकार तिरोहित हुआ है। ... श्री राहुल जी की तरह ‘मिशनरी स्पिरिट’ से कम करने वाले यदि और भी दो चार व्यक्ति हिन्दी में होते, तो साहित्यिक शोध के क्षेत्र में आज अनेक विस्मयजनक कार्य हुए रहते। ... राहुल जी को सच्चे अनुयायी रूप से अभी तक निष्ठावान सहायक नहीं मिले हैं। -- [१५]
  • राहुल जी की जिज्ञासा उन्हें बहुत दूर तक ले जा चुकी थी... तभी मैंने जाना कि ज्ञान की भूख भी मनुष्य में उन्माद की सी स्थिति पैदा कर सकती है।[१६]

सन्दर्भ[सम्पादन]

  1. डा० ओमप्रकाश शर्मा शास्त्री, ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी और राहुल सांकृत्यायन’, पृ 84
  2. यह उद्धरण डा जयनाथ ‘नलिन’ के संस्मरण से लिया गया है। ‘नलिन’ जी ने राहुल जी से मसूरी में डेढ़ घंटा बातचीत की थी जिसमें यह प्रसंग आया था। देखें – डा जयनाथ ‘नलिन’, ‘राहुल जी का सहज व्यक्तित्व’, डा० ब्रह्मानन्द द्वारा सम्पादित 'राहुल सांकृत्यायन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' , हरियाणा प्रकाशन, दिल्ली, 1971, पृ 19-20
  3. मेरी जीवन यात्रा भाग 3
  4. राहुल सांकृत्यायन , भागो नहीं दुनिया को बदलो , किताब महल, इलाहाबाद, 2016 [प्रथम संस्करण 1945]
  5. राहुल सांकृत्यायन , 'भागो नहीं दुनिया को बदलो', किताब महल, इलाहाबाद, 2016 [प्रथम संस्करण 1945], पृ॰ 242-243
  6. राहुल सांकृत्यायन, आज की राजनीति , आधुनिक पुस्तक भवन, कलकत्ता , 1949, भूमिका ।
  7. डा० विजयेन्द्र स्नातक, ‘कड़वे-मीठे दो लघु संस्मरण’, उपरोक्त , पृ 183
  8. मेरी जीवन यात्रा भाग दो , किताब महल , इलाहाबाद ,1950, पृ 640
  9. मेरी जीवन यात्रा, प्रथम खण्ड, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1946, पृष्ठ १०६-१०७
  10. जिनका मैं कृतज्ञ- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-1957, पृष्ठ १२७
  11. मेरी जीवन यात्रा, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 155-56
  12. कमला सांकृत्यायन, महामानव , 1997, पृ 14
  13. कमला सांकृत्यायन, महामानव , 1997
  14. [26] कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’, ‘मंगलमूर्ति श्री राहुल जी”, डा० ब्रह्मानन्द द्वारा सम्पादित 'राहुल सांकृत्यायन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' , हरियाणा प्रकाशन, दिल्ली, 1971, पृ 42
  15. शिवपूजन सहाय, ’वक्तव्य’, दोहा-कोश बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना , 1957, पृ 1-2
  16. भीष्म साहनी , ‘राहुल जी : कुछ यादें’ नया ज्ञानोदय, सितम्बर , 2017, पृ 90 । (पुनर्प्रकाशित) यह प्रसंग 1935 के आसपास का है।