मृच्छकटिक

विकिसूक्ति से

मृच्छकटिक, शूद्रक द्वारा रचित प्रसिद्ध संस्कृत नाट्यकृति है।

उद्धरण[सम्पादन]

  • राजाज्ञा से रक्षित, मालियों से रक्षित फल और फूलों से सुशोभित, वायु के न होने से शान्त, लताओं से आलिंगित ये वृक्ष कई पत्नियों वाले पुरुषों की भाँति सुखभोग कर रहे हैं। -- मृच्छकटिक
  • एक अयोग्य व्यक्ति के प्रवेश से ही ऐसा लगता है जैसे इस विशाल भवन का हृदय विदीर्ण हो गया हो! -- मृच्छकटिक
  • दीन दरिद्रता तो इस संसार में सभी की, आशंकाओं की जड़ है। -- मृच्छकटिक
  • पाप-पुण्य की साक्षी दसों दिशाएँ तो देखती हैं। वनदेवता, चन्द्रमा, तीव्र किरणोंवाला सूर्य, धर्म, वायु, आकाश, अन्तरात्मा और यह भूमि तो मुझे देख रही है। -- मृच्छकटिक
  • मैं उच्च विचार वाले, अच्छे कुल में जन्म लेकर भी केवल तुम्हारे कारण इस प्रेम-पाश में फँसकर नीच कर्म करता हूँ। कामदेव ने मेरे गुणों को नष्ट कर दिया है, किन्तु मैं फिर भी मान को बचाए रहता हूँ। -- मृच्छकटिक
  • न्याय के पराधीन होने के कारण वादी-प्रतिवादी के मन की बात जान लेना हम लोगों के लिए कितना कठिन है! वे लोग सचाई और न्याय से हीन, किन्तु तर्कपूर्ण, अभियोग पेश करते हैं। रागाभिभूत होकर अपने दोषों को नहीं देखते। फलत: दोनों पक्षों से परिवर्धित दोष ही राजा तक पहुँच पाता है। संक्षेप में, न्यायाधीश को निन्दा ही हाथ आती है, उसकी कीर्ति तो दूर ही बनी रहती है। सज्जन भी तो यहाँ अपने दोष नहीं बताते। वे भी तर्कसम्मत दोषों का1 उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे दोनों पक्षों के दोषों से लिप्त होकर पाप करते हैं। अत: वे भी नष्ट हो जाते हैं, पर संक्षेप में, न्यायाधीश को निन्दा ही हाथ लगती है–उसकी कीर्ति तो दूर ही बनी रहती है। न्यायाधीश को धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र जानना चाहिए। उसे वादी-प्रतिवादी के कपट व्यवहार को समझने में दक्ष होना चाहिए। उसे क्रोध-रहित होना ही ठीक है। वह खूब बोलने में समर्थ हो, मित्र, शत्रु, पुत्र और स्वजनों को एक दृष्टि से देखे। उचित रूप से सबके अभियोगों को सुन-समझकर निर्णय दे। निर्बलों को पालनेवाले, धूर्तों को दण्ड देनेवाले, धर्म में ही सारा लोभ लगाए रखनेवाले न्यायाधीश को असली बात जाँचने में और राजा का कोप दूर करने में लगा रहना चाहिए। -- मृच्छकटिक
  • सूर्योदय के समय यदि ग्रहण पड़े तो वह किसी बड़े आदमी की मौत की सूचना देता है, -- मृच्छकटिक
  • हेमन्त के कमल की तरह तुम्हारा मुँह झूठ बोलने से मलिन हो रहा है। -- मृच्छकटिक
  • आपत्ति के समय मनुष्य की एक भूल पर अनेक विपत्तियाँ आ एकत्र होती हैं। -- मृच्छकटिक
  • विसर्जन के लिए ले जाया जाता इन्द्रध्वज, गौ का प्रसव, नक्षत्र का गिरना और सज्जन की आपत्ति–इन चारों दृश्यों को नहीं देखना चाहिए। -- मृच्छकटिक
  • आकाश में रहनेवाले चन्द्रमा और सूर्य पर भी विपत्ति आती है। फिर पैदा होनेवाले पशु-पक्षी और मृत्यु से डरनेवाले मनुष्यों की तो बात क्या है। संसार में कोई उठकर गिरता है, कोई गिरकर उठता है। और फिर पताका के उठने-गिरने की तरह लाश भी शूल पर उठती-गिरती दिखाई देती है। इसे समझकर आत्मा को धैर्य दो। -- मृच्छकटिक
  • कमल के पत्ते पर गिरे हुए जलबिन्दु की भाँति चंचल दरिद्र के भाग्य से खेल करते हो? -- मृच्छकटिक
  • क्या ब्राह्मणी मुझपर दया करती है? कितना दुःख है! मैं कितना दरिद्र हो गया हूँ! भाग्य के दोष से धन का अभाव हो जाने से मुझे स्त्रीधन देकर पत्नी ने दया की है! कार्य से पुरुष स्त्री जैसा हो जाता है और कार्य से ही स्त्री पुरुष बन जाती है। किन्तु मैं दरिद्र कहाँ हूँ? जैसा जो कुछ पति के पास हो, उसीके अनुसार घर चलानेवाली पत्नी, सुख-दुःख में एक-से ही भाव रखनेवाला आप जैसा मित्र और सत्य का न छोड़ना यह सब तो दरिद्रता में दुर्लभ वस्तुएँ हैं। -- मृच्छकटिक
  • दुःख का अनुभव कर लेने पर ही सुख का आगमन आनन्द देता है। लेकिन जो व्यक्ति सुख भोग लेने के बाद दरिद्र हो जाता है, वह शरीर धारण करते हुए भी मुर्दे की तरह ही होता है। -- मृच्छकटिक
  • इस लोक में अच्छा कुल एक महावृक्ष है जो धनरूप फल देता है, किन्तु वेश्यारूपी पक्षियों के खा लेने के कारण यह वृक्ष भी निष्फल हो जाता है। प्रेम जिसका ईंधन है, सम्भोग जिसकी ज्वाला है वह काम की ही अग्नि है जिसमें पुरुष अपना धन-यौवन सभी होम देते हैं। -- मृच्छकटिक
  • ग्रीष्म से व्याकुल होकर मैं जिस शाखा के नीचे छाया के लिए आया, अनजाने में मैंने उसीके पत्तों को काट गिराया! -- मृच्छकटिक
  • बातों में स्वभाव से ही स्त्रियाँ चतुर होती हैं। पुरुषों की चतुरता तो शास्त्र के उपदेश से प्राप्त होती है। -- मृच्छकटिक
  • गाड़ी के बारे में क्या पूछना! काम रूपी सागर के प्रेम-निर्मल जल में आप लोगों के कुच, नितम्ब, और जँघा ही मनोहर गाड़ियाँ हैं। तरह-तरह के मानवों और पशु-पक्षियों से युक्त वसंतसेना के आठों प्रकोष्ठ देख कर मुझे सचमुच विश्वास हो गया है कि मैंने एक ही जगह स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक देख लिया है। मेरे -- मृच्छकटिक
  • अन्धे की दृष्टि, पीड़ित की सामर्थ्य, मूर्ख की बुद्धि, आलसी की सिद्धि, मन्दस्मृति कामुक की उकृष्ट विद्या एवं शत्रु का अनुराग–ये लुप्त हो जाते हैं। -- मृच्छकटिक
  • गुणी दरिद्र निर्गुण धनिकों के ही समान नहीं, बल्कि उनसे कहीं बढ़कर होता है। -- मृच्छकटिक
  • दीनों के लिए कल्पतरु, अपने ही गुणों से विनम्र, सज्जनों के पोषक, विनीतों के लिए आदर्श, सच्चरित्रता की कसौटी, शील की मर्यादा के समुद्र, लोक से उपकारी, कभी किसी का भी वे अपमान न करनेवाले, पुरुष के गुणों के निधान, सरल और उदार चित्तवाले–अनेक गुणों से युक्त -- मृच्छकटिक
  • हाथी खम्भे में बाँधकर और घोड़ा लगाम के ज़ोर से वश में किया जाता है और नारी हृदय से अनुरक्त होने पर ही वशीभूत होती -- मृच्छकटिक
  • संसार में मनुष्यों को स्त्री और मित्र दोनों बड़े प्रिय हैं। पर इस समय मित्र बन्दी है, अत: वह सैकड़ों स्त्रियों से भी ऊँचा है। अब मैं उतरता हूँ। -- मृच्छकटिक
  • युवकों के महोत्सव में कौन-सा सौभाग्यशाली आपसे अनुगृहीत हुआ है? बताइए तो! राजा है कोई, या राजवल्लभ है जो सेवित हुआ है? वसंतसेना : नहीं सखि! मैं तो रमण करना चाहती हूँ, सेवा करना नहीं। -- मृच्छकटिक
  • गरीब आदमी से प्रेम करनेवाली गणिका की दुनिया में निंदा नहीं होती। -- मृच्छकटिक
  • हम लोग पराए घर में रहते हैं, दूसरे के अन्न पर पलते हैं, परस्त्री और परपुरुष के संयोग से जन्म लेते हैं। दूसरों के धन पर आश्रित रहते हैं। हममें कोई गुण नहीं है। हम बन्धुल तो हाथी के बच्चे की भाँति मस्त स्वच्छन्द मौज़ करते हैं। -- मृच्छकटिक
  • आठवीं राशि पर सूर्य है? किसकी चौथी राशि पर चन्द्रमा है? किसकी छठी राशि पर शुक्र है? किसकी पाँचवी राशि पर मंगल है? बताओ! किसकी जन्मराशि से छठी राशि पर बृहस्पति है, और किसकी नवीं राशि पर शनि है कि चंदनक के जीते-जी, वह गोपपुत्र आर्यक -- मृच्छकटिक
  • कभी-कभी कोई भला आदमी धन देकर वध्य को छुड़ा लेता है। कभी राजा के पुत्र पैदा हो जाता है, जिसकी प्रसन्नता में उत्सव होता है और सभी मारे जानेवाले छोड़ दिए जाते हैं। कभी हाथी छूट जाता है तो भगदड़ में वध्य पुरुष भी भाग निकलता है। कभी-कभी राज्य-परिवर्तन हो जाता है, जिससे सब बन्दी छूट जाते हैं। -- मृच्छकटिक
  • भरतवाक्य हो– हों प्रचुर दुग्धशालिनी गाय, हो वसुंधरा यह शस्य-श्यामला धान्यपूर्ण, बरसें घन अपने समयों पर, ओ’ बहे निरन्तर सुखद वायु, दुख करे चूर्ण! इस सकल लोक के प्राणी सुख का अनुभव करें प्रसाद भूरि, अपने अभिमत जो अनुष्ठान हैं ब्राह्मण उनको निरत करें, दुख रहें दूर। हों लक्ष्मीवान समस्त साधु सज्जनगण करते पुण्य कर्म! कर शत्रु नाश रक्षा पृथ्वी की करें नृपति ले ध्येय धर्म! -- मृच्छकटिक
  • इनकी भुजाएँ हाथी की सूण्ड-सी है, कन्धा सिंह का सा विशाल और स्थूल है, वक्षस्थल अत्यन्त प्रशस्त और लाल ताँबे-सी बड़ी-बड़ी आँखें। कैसी सुन्दर आकृति है! कोई महान् आत्मा है! -- मृच्छकटिक

इन्हें भी देखें[सम्पादन]