मिथ्या

विकिसूक्ति से
  • ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ -- आदि शंकराचार्य
ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्माण्ड मिथ्या है । जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदान्त द्वारा घोषित किया गया है।
  • मिथ्या माहुर सज्जनहि खलहि गरल सम साँच ।
तुलसी छुवत पराइ ज्यों पारद पावक आँच ॥ -- तुलसीदास
सज्जन पुरूष के लिए असत्य विष है और दुष्ट के लिए सत्य विष समान है। सज्जन असत्य को और दुष्ट सत्य को छूते ही वैसे ही भाग जाते हैं जैसे अग्नि की आंच लगते ही पारा उड़ जाता है।
  • बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
  • सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताय।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय॥ -- रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड
वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट पीटकर पछताता है और अपना दोष न समझकर (वह उल्टे) काल पर, कर्म पर या ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।

इन्हें भी देखें[सम्पादन]