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भोग

विकिसूक्ति से
  • ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥ -- ईशावाश्योपनिषद्
इस वैश्व गति में, इस अत्यन्त गतिशील समष्टि-जगत् में जो भी यह दृश्यमान गतिशील, वैयक्तिक जगत् है-यह सबका सब ईश्वर के आवास के लिए है। इस सबके त्याग द्वारा तुझे इसका उपभोग करना चाहिये; किसी भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर ललचाई दृष्टि मत डाल।
  • भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भभयं
सर्वं वस्तु भयावहं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ -- वैराग्यशतक ३१
भोग में रोग का भय रहता है; पारिवारिक प्रतिष्ठा गिरने का भय रहता है; धन में राजाओं का भय रहता है; प्रतिष्ठा में अपमान का भय रहता है; सत्ता में शत्रु या विरोधी का भय रहता है; सुन्दरता में बुढ़ापे का डर होता है; शास्त्र-विद्या में विद्वान् विरोधियों का भय रहता है; सदाचार में दुष्ट निंदा करने वाले व्यक्ति का भय रहता है; शरीर में मृत्यु का भय रहता है। मनुष्य के लिए, इस दुनिया में हर चीज़ भय से जुड़ी है। वैराग्य ही अभय प्रदान करता है।
  • भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥ -- भर्तृहरि, वैराग्यशतक में
भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए।
  • ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ -- गीता
(कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि) हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।
  • भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥ -- गीता
उससे जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और एश्वर्य‌ मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि नही होती अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य‌ नही होते।
  • गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्।
सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्॥
गुण रूप की शोभा बढ़ाते हैं। शील कुल की शोभा बढ़ाता है। सिद्धि विद्या की शोभा बढ़ाती है और उचित भोग/उपयोग धन की शोभा बढ़ाता है।

इन्हें भी देखें

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