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गुरु

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गुरु किसी "शिक्षक" के लिए, विशेष रूप से भारतीय धर्मों में, संस्कृत का एक शब्द है। हिन्दू संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा एक शिक्षक द्वारा छात्र को मौखिक तौर पर बताए गए धार्मिक सिद्धांत एवम् अनुभवात्मक ज्ञान का नाम है। संयुक्त राज्य अमेरिका में गुरु का अभिप्राय ऐसे व्यक्ति के लिए होता है जिसने कई लोगों को, संभवतः उनके भोलेपन का दोहन करते हुए, अपना अनुयायी बना लिया हो। आमूमन यह धार्मिक नेता स्वयं को गुरु कहलाना पसंद करते हैं।

उक्तियाँ

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  • को गुरुः अधिगततत्त्वः शिष्यहितायोद्यतं सततम्। -- आद्य शंकराचार्य कृत 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका'
(प्रश्न :) गुरु कौन है?
(उत्तर :) जिसने सत्य को पा लिया है और जो सदा अपने शिष्य के हित के लिये काम करता है।
  • धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
अर्थ : धर्म को जाननेवाले, धर्म के अनुसार आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।
  • निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरुर्निगद्यते ॥
अर्थ :जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध कराते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
अर्थ : प्रेरक (प्रेरणा देनेवाले), सूचक (सूचना देनेवाले), वाचक (सच बतानेवाले), दर्शक (मार्ग दिखानेवाले), शिक्षक (शिक्षा देनेवाले), और बोधक (बोध करानेवाले) – ये छः गुरु समझे जाते हैं।
  • सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः ।
अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥
अर्थ : अभिलाषा रखनेवाले, सब भोग करनेवाले, संग्रह करनेवाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवाले, और मिथ्या उपदेश करनेवाले, गुरु नहीं है।
  • अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
जिसने ज्ञान-अंजन-शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार।
  • गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
(अर्थ : गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शिव है; गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम है।
  • आत्मनो गुरुः आत्मैव पुरुषस्य विशेषतः ।
यत प्रत्यक्षानुमानाभ्याम श्रेयसवनुबिन्दते ॥
(अर्थ : आप ही स्वयं अपने गुरू हैं क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा पुरुष जान लेता है कि अधिक उपयुक्त क्या है।
  • शत्रोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि।
सर्वदा सर्वयत्नेन पुत्रे शिष्यवदाचरेत्॥
शत्रु यदि गुणवान है तो उसके गुण को स्वीकार करना चाहिए , और गुरु में यदि दोष हो तो उसको प्रकट करने में संकोच नही करना चाहिए। हमेशा सभी प्रयत्न से पुत्र को भी शिष्य के समान गिनना चाहिए।
  • विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् ।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥
अर्थ : विद्वता, दक्षता, शील, संकान्ति, अनुशीलन, सचेतत्त्व, और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक के गुण हैं।
  • विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् ।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥
अर्थ : विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध है।
  • दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम् ।
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि ॥
अर्थ : तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती। गुरु को पारसमणि के जैसा मानते हैं, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहीं बनाता। सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इसलिए गुरु के लिए कोई उपमा नहीं है, गुरु तो अलौकिक है।
  • ग्यान सरीखा गिरु ना मिलिया, चित्त सरीखा चेला।
मन सरीखा मेलु ना मिलिया, ताथै गोरख फिरै अकेला -- गुरु गोरखनाथ
ज्ञान जैसा कोई गुरु नहीं है और चित्त अपने कहने में चले तो उसके जैसा कोई चेला नहीं है। मन विकारों से बचे तो उसके जैसा कोई मित्र नहीं है। इसलिये गोरख अकेला फिरता है।
  • तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ॥ -- कबीरदास
कबीरदास विचार करके कहते हैं कि तीर्थयात्रा से एक फल मिलता है, कोई सन्त मिल जाय तो चार फल मिलते हैं। लेकिन कोई सच्चा गुरु मिल जाय तो अनेक फल मिल जाते हैं।
  • रचनात्मक अभिव्यक्ति और ज्ञान में आनन्द जगाना ही गुरु की सर्वोच्च कला है। -- अल्बर्ट आइंस्टीन
  • गुरु दो तरह के होते हैं- एक वो जो आपको इतना डरा देते हैं कि आप हिल ना सकें, और एक वो जो जिनके आपकी पीठ पर थोडा सा थपथपा देने से आप आसमान छू लेते हैं। -- रॉबर्ट फ्रोस्ट
  • चीजों की रोशनी में आगे आओ, प्रकृति को अपना गुरु बनने दो। -- विलियम वर्ड्सवर्थ
  • अनुभव एक कठोर गुरु है क्योंकि वह पहले परीक्षा लेता है, बाद में पाठ पढ़ाता हैं। -- Vernon Law
  • मुझे एक गुरु पसन्द है जो आपको होमवर्क के अलावा घर ले जाने के लिए कुछ सोचने के लिए भी कुछ देता है। -- Lily Tomlin
  • गुरु वह मोमबत्ती है जो खुद जलाकर सबको उजाला देता है
  • गुरु केवल वह नहीं जो हमें कक्षा में पढ़ाते हैं बल्कि हर वो व्यक्ति जिससे हम सीखते हैं वह हमारा गुरु है।
  • एक अच्छा शिक्षक आशा को जगाता है, कल्पना को प्रज्वलित करता है, और सीखने का प्यार बढ़ाता है।
  • माँ बच्चो की सबसे पहली शिक्षक होती है
  • हमारा अनुभव भी एक अच्छा शिक्षक है, जो की कठिन परिस्थतियो से गुजरने के बाद प्राप्त होता है।
  • पढ़ाने का पेशा एक ऐसा पेशा है जो बाकी सब व्यवसायों को जन्म देता है।
  • में एक शिक्षक नहीं हूँ, में तो लोगो को जगाने वाला हूँ। -- रोबर्ट फ्रॉस्ट
  • शिक्षा देने की कला वास्तव में खोज में सहायता करने की कला है। -- मार्क वेन डोरेन्
  • गुरु गोविंद दोनों खड़े, किसके लागों पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दिया बताय॥
  • कबीर हरि के रूठते, गुरु के शरने जाय।
कह कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय॥ -- कबीर

आचार्य

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  • हर किसी को महापुरुष, आचार्य वा ऋषि नहीं कहा जा सकता, वा माना जा सकता है। अज्ञ जनता में इन शब्दों का दुरुपयोग वा मिथ्या प्रयोग होते प्रायः देखा जाता है। शास्त्र तो ‘साक्षात्कृतधर्मा’ जिसे धर्म का साक्षात्कार हो, उसे ही ‘ऋषि’ कहता है। जिसको जिस विषय का साक्षात् ज्ञान है, वह उस विषय का ऋषि कहाता है। वैदिक साहित्य में तो ’ऋषिर्दर्शनात् स्तोमान् ददर्श’ (निरुक्त २।११) मन्त्रार्थद्रष्टा को ऋषि है। संसार को मार्ग दर्शानेवाले को ऋषि कहते हैं। महामुनि पतञ्जलि महाभाष्य में ’ऋषिर्वेदे पठति शृणोत ग्रावाणः’ में ‘ऋषिर्वेदः’ वेद को ही ऋषि बतलाते हैं। -- पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
  • आचार्य’ शब्द यद्यपि ऋग्वेद, यजुः, साम तीनों में नहीं पाया। वेद ११।५ ब्रह्मचर्यसूक्त में ’आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्त’ (अथर्व० ११।५।३) ‘आचार्य’ का जो निरूपण किया गया है, उसके आधार पर ही सभी धर्मशास्त्रों ने आचार्य का लक्षण प्रायः समान ही किया है। -- पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
  • उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः।
सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते॥ -- मानवधर्मशास्त्र २।१४०
भावार्थ : जो ८ वर्ष से लेकर कम से कम २५ वर्ष की आयु तक बालक के आचार-व्यवहार तथा उसके समस्त ज्ञान-विज्ञान का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले, सङ्कल्प और सरहस्य वेद का अध्ययन करावे, वही ‘आचार्य’ कहाता है।
  • आचार्यः कस्मात्? आचारं ग्राहयति, आचिनोत्यर्थान्। आचिनोति बुद्धिमिति वा॥ -- निरुक्त अ० १।४
  • आचार्य उसको कहते हैं, जो साङ्गोपाङ्ग वेदों के शब्द, अर्थ, संबंध और क्रिया का जाननेहारा, छल-कपट रहित, अतिप्रेम से सबको विद्या का दाता, परोपकारी, तन-मन और धन से सबको सुख बढ़ाने में जो तत्पर, महाशय, पक्षपात किसी का न करे और सत्योपदेष्टा, सबका हितैषी, धर्मात्मा, जितेन्द्रिय हो। -- ऋषि दयानन्द, संस्कारविधि, उपनयन संस्कार

इन्हें भी देखें

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बाह्य सूत्र

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