अग्नि
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- ऋणशेषः अग्निशेषः च शत्रुशेषः तथैव च ।
- पुनः पुनः प्रवर्धन्ते तस्मात् शेषं न रक्षयेत् ॥
- उधार कर्जा, ज्वलित अग्नि और सुरक्षित शत्रु , हमेशा बढ़ते रहते हैं। इसलिये तो कहते हैं कि ये तीनों का – कर्जा, अग्नि और शत्रु का – पूरी तरहसे नाश होना जरूरी है।
- काष्टाद्यथाग्निरुत्पन्नः स्वाश्रयं दहति क्षणात् ।
- क्रोधाग्निर्देहजस्तद्वत्तमेव दहति ध्रुवं ॥ -- नगसुभषित संग्रह (९९६० )
- जिस प्रकार लकडी के टुकडों को आपस में जोर से रगडने से उनमें स्वतः ही अग्नि उत्पन्न हो जाती है और वे तत्क्षण जल उठते हैं, वैसे ही मनुष्य के शरीर में भी क्रोध रूपी अग्नि छुपी होती है और विवाद या झगडे की स्थिति में निश्चय ही सुलग कर उसे जला देती (हानि पहुंचाती) है।
- क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा ॥ -- गोस्वामी तुलसीदास