प्रेमचन्द
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धनपत राय (३१ जुलाई १८८० - ८ अक्टूबर १९३६) एक भारतीय लेखक थे जिन्होंने हिन्दी और उर्दू साहित्य में अपना योगदान दिया था। उन्हें उनके उपनाम मुन्शी प्रेमचन्द या प्रेमचन्द के नाम से ही अधिक जाना जाता है।
उद्धरण
[सम्पादन]- 'प्रगतिशील लेखक संघ' यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्यकार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। -- प्रेमचन्द, १९३६ में लखनऊ में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में अपने भाषण में अपने भाषण में
- हिंदू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि अब न कहीं हिंदू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं, हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। -- प्रेमचन्द, अपने एक लेख में
- संसार में हिंदू ही एक जाति है, जो गोमांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है तो क्या इसलिए हिंदुओं को समस्त विश्व से धर्मसंग्राम छेड़ देना चाहिए? हिंदू गाय की पूजा स्वयं कर सकते हैं, पर उन्हें दूसरों को भी ऐसे ही करने को बाध्य करने का तो कोई अधिकार नहीं है। -- प्रेमचन्द
- अधिकार में स्वयं एक आनन्द है, जो उपयोगिता की परवाह नहीं करता।
- अगर मूर्ख, लोभ और मोह के पंजे में फंस जाएं तो वे क्षम्य हैं, परन्तु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थांधता अत्यंत लज्जाजनक है।
- अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है, पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं।
- अज्ञान की भांति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और सुनहले स्वप्न देखने वाला होता है। मानवता में उनका विश्वास इतना दृढ़,इतना सजीव होता है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषीय समझने लगता है। यह वह भूल जाता है की भेड़ियों ने भेडो को निरीहता का जवाब सदैव पंजों और दांतो से दिया है। वह अपना एक आदर्श संसार बनाकर आदर्श मानवता से अवसाद करता है और उसी में मग्न रहता है।
- अज्ञान में सफाई है और हिम्मत है, उसके दिल और जुबान में पर्दा नहीं होता, ना कथनी और करनी में। क्या यह अफसोस की बात नहीं, ज्ञान अज्ञान के आगे सिर झुकाए?
- अतीत चाहे जैसे भी हो उनकी स्मृतियां प्राय: सुखद होती हैं।
- अनाथ बच्चों का हृदय उस चित्र की भांति होता है जिस पर एक बहुत ही साधारण परदा पड़ा हुआ हो। पवन का साधारण झकोरा भी उसे हटा देता है।
- अनाथों का क्रोध पटाखे की आवाज है, जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता।
- अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है।
- अन्याय को बढ़ाने वाले कम अन्यायी नहीं।
- अन्याय में सहयोग देना, अन्याय करने के ही समान है।
- अपनी भूल अपने ही हाथों से सुधर जाए, तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारे।
- अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है।
- अपमान का भय क़ानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता।
- आकाश में उड़ने वाले पंछी को भी अपने घर की याद आती है।
- आत्म सम्मान की रक्षा, हमारा सबसे पहला धर्म है।
- आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गुरूर है।
- आलस्य वह राजयोग है जिसका रोगी कभी संभल नहीं पाता।
- आलोचना और दूसरों की बुराइयां करने में बहुत फर्क है। आलोचना क़रीब लाती है और बुराई दूर करती है।
- आशा उत्साह की जननी है। आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है।
- इंसान का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है।
- इंसान सब हैं पर इंसानियत विरलों में मिलती है।
- इतना पुराना मित्रता रुपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर खड़ा था।
- उपहास और विरोध तो किसी भी सुधारक के लिए पुरस्कार जैसे हैं।
- ऐश की भूख रोटियों से कभी नहीं मिटती। उसके लिए दुनिया के एक से एक उम्दा पदार्थ चाहिए।
- कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमान वश अज्ञानी समझते हैं।
- कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता, कर्तव्य पालन में ही चित्त की शांति है।
- कर्तव्य-पालन में ही चित्त की शांति है।
- कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है।
- कार्यकुशलता की व्यक्ति को हर जगह जरूरत पड़ती है।
- किसी किश्ती पर अगर फर्ज का मल्लाह न हो तो फिर उसके लिए दरिया में डूब जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं।
- कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सद्व्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुआब दिखाने से नहीं।
- केवल बुद्धि के द्वारा ही मानव का मनुष्यत्व प्रकट होता है।
- कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है।
- क्रांति बैठे-ठालों का खेल नहीं है। वह नई सभ्यता को जन्म देती है।
- क्रोध और ग्लानि से सद्भावनाएं विकृत हो जाती हैं। जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल वस्तु को दूषित कर देती है।
- क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।
- ख़तरा हमारी छिपी हुई हिम्मतों की कुंजी है। खतरे में पड़कर हम भय की सीमाओं से आगे बढ़ जाते हैं।
- खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है, जीवन नाम है, आगे बढ़ते रहने की लगन का।
- ख्याति-प्रेम वह प्यास है जो कभी नहीं बुझती। वह अगस्त ऋषि की भांति सागर को पीकर भी शांत नहीं होती।
- गरज वाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ है लेकिन बेगरज वाले को दाव पर पाना जरा कठिन है।
- गलती करना उतना ग़लत नहीं जितना उन्हें दोहराना है।
- घर सेवा की सीढ़ी का पहला डंडा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते।
- चापलूसी का ज़हरीला प्याला आपको तब तक नुकसान नहीं पहुंचा सकता, जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझकर पी न जाएं।
- चिंता एक काली दीवार की भांति चारों ओर से घेर लेती है, जिसमें से निकलने की फिर कोई गली नहीं सूझती।
- चिन्ता रोग का मूल है।
- चोर केवल दंड से नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है। वह दंड से उतना नहीं डरता है, जितना कि अपमान से।
- जब दूसरों के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई हो, तो उन पांवों को सहलाने में ही कुशल है।
- जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैं, तो यथार्थ बात अपने आप ही मुंह से निकल पड़ती है।
- जवानी जोश है, बल है, साहस है, दया है, आत्मविश्वास है, गौरव है और वह सब कुछ है जो जीवन को पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण बना देता है।
- जिस तरह सुखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह भूख से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है।
- जिस प्रकार नेत्रहीन के लिए दर्पण बेकार है उसी प्रकार बुद्धिहीन के लिए विद्या बेकार है।
- जिस बंदे को पेट भर रोटी नहीं मिलती, उसके लिए मर्यादा और इज्जत ढोंग है।
- जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करें, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
- जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बड़ा हुआ है मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता के लक्षण हैं।
- जीवन एक दीर्घ पश्चाताप के सिवा और क्या है?
- जीवन का वास्तविक सुख, दूसरों को सुख देने में है, उनका सुख लूटने में नहीं।
- जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं।
- जीवन की दुर्घटनाओं में अक्सर बड़े महत्व के नैतिक पहलू छिपे हुए होते हैं।
- जीवन में सफल होने के लिए आपको शिक्षा की ज़रूरत है न की साक्षरता और डिग्री की।
- जो प्रेम असहिष्णु हो, जो दूसरों के मनोभावों का तनिक भी विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने में संकोच न करे, वह उन्माद है, प्रेम नहीं।
- जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का ग़ुलाम बनाए, जो हमें भोग-विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का ख़ून पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं भ्रष्टता है।
- डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है।
- दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है।।
- दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारे नहीं होते।
- दुनिया में विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई भी विद्यालय आज तक नहीं खुला है।
- देश का उद्धार विलासियों द्वारा नहीं हो सकता। उसके लिए सच्चा त्यागी होना आवश्यक है।
- दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता।
- दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है।
- द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फसाता है। छोटी मछलियां या तो उसमें फंसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीडा की वस्तु है, भय का नहीं।
- धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं।
- धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं।
- नमस्कार करने वाला व्यक्ति विनम्रता को ग्रहण करता है और समाज में सभी के प्रेम का पात्र बन जाता है।
- नाटक उस वक्त पसंद होता है, जब रसिक समाज उसे पसंद कर लेता है। बारात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पसंद कर लेते हैं।
- नारी और सब कुछ बर्दाश्त कर लेगी, पर अपने मायके की बुराई कभी नहीं।
- निराशा सम्भव को असम्भव बना देती है।
- नीति चतुर प्राणी अवसर के अनुकूल काम करता है, जहाँ दबना चाहिए वहां दब जाता है, जहाँ गरम होना चाहिए वहां गरम होता है, उसे मान अपमान का, हर्ष या दुःख नहीं होता उसकी दृष्टि निरंतर अपने लक्ष्य पर रहती है।
- नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है। आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। गौरव सम्पन्न प्राणियों के लिए चरित्र बल ही सर्वप्रधान है।
- नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत दो, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए।
- न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं, वह जैसे चाहती है नचाती है।
- पंच के दिल में खुदा बसता है।
- पहाड़ों की कंदराओं में बैठकर तप कर लेना सहज है, किन्तु परिवार में रहकर धीरज बनाये रखना सबके वश की बात नहीं।
- प्रेम एक बीज है, जो एक बार जमकर फिर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है।
- बल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद कोई नहीं सुनता।
- बालकों पर प्रेम की भांति द्वेष का असर भी अधिक होता है।
- बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएं एक ही केंद्र पर आ लगती हैं।
- बूढो के लिए अतीत में सूखो और वर्तमान के दु:खो और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता।
- भरोसा प्यार करने के लिए पहला कदम है।
- भाग्य पर वह भरोसा करता है जिसमें पौरुष नहीं होता।
- मन एक भीरु शत्रु है जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है।
- मनुष्य का उद्धार पुत्र से नहीं, अपने कर्मों से होता है। यश और कीर्ति भी कर्मों से प्राप्त होती है। संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए दी है। बड़ी~बड़ी आत्माएं, जो सभी परीक्षाओं में सफल हो जाती हैं, यहाँ ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं।
- मनुष्य का मन और मस्तिष्क पर भय का जितना प्रभाव होता है, उतना और किसी शक्ति का नहीं। प्रेम, चिंता, हानि यह सब मन को अवश्य दुखित करते हैं, पर यह हवा के हल्के झोंके हैं और भय प्रचंड आधी है।
- मनुष्य कितना ही हृदयहीन हो, उसके ह्रदय के किसी न किसी कोने में पराग की भांति रस छिपा रहता है। जिस तरह पत्थर में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी चाहे वह कितना ही क्रूर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं।
- मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो तथा अवसर को देखो उसके उपरांत जो उचित समझा, करो।
- मनुष्य बराबर वालों की हंसी नहीं सह सकता, क्योंकि उनकी हंसी में ईर्ष्या, व्यंग्य और जलन होती है।
- मनुष्य बिगड़ता है या तो परिस्थितियों से अथवा पूर्व संस्कारों से। परिस्थितियों से गिरने वाला मनुष्य उन परिस्थितियों का त्याग करने से ही बच सकता है।
- महान व्यक्ति महत्वाकांक्षा के प्रेम से बहुत अधिक आकर्षित होते हैं।
- महिला सहानुभूति से हार को भी जीत बना सकती है।
- माँ के बलिदानों का ऋण कोई बेटा नहीं चुका सकता, चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो।
- मासिक वेतन पूरन मासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है।
- मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह ज़िंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक बरकत है।
- मेरी ज़िन्दगी सादी व कठोर है।
- मैं एक मज़दूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं।
- यदि झूठ बोलने से किसी की जान बचती हो तो, झूठ पाप नहीं पुण्य है।
- यश त्याग से मिलता है, धोखाधड़ी से नहीं।
- युवावस्था आवेश मय होती है, वह क्रोध से आग हो जाती है तो करुणा से पानी भी।
- लगन को कांटों कि परवाह नहीं होती।
- लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वो क्या लिखेंगे?
- लोकनिंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है।
- वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है और भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है।
- वही तलवार, जो केले को नहीं काट सकती। शान पर चढ़कर लोहे को काट देती है। मानव जीवन में आग बड़े महत्व की चीज है। जिसमें आग है वह बूढ़ा भी तो जवान है। जिसमे आग नहीं है, गैरत नहीं, वह भी मृतक है।
- विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है।
- विजयी व्यक्ति स्वभाव से, बहिर्मुखी होता है। पराजय व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाती है।
- विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला।
- विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है।
- विषय-भोग से धन का ही सर्वनाश नहीं होता, इससे कहीं अधिक बुद्धि और बल का भी नाश होता है।
- वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं।
- व्यंग्य शाब्दिक कलह की चरम सीमा है उसका प्रतिकार मुंह से नहीं हाथ से होता है।
- शत्रु का अंत शत्रु के जीवन के साथ ही हो जाता है।
- संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए गढ़ी है।
- संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं, जहां स्नेह नहीं वहां कुछ नहीं है।
- संसार में गऊ बनने से काम नहीं चलता, जितना दबो, उतना ही दबाते हैं।
- सफलता दोषों को मिटाने की विलक्षण शक्ति है।
- सफलता में अनंत सजीवता होती है, विफलता में असह्य अशक्ति।
- समानता की बात तो बहुत से लोग करते हैं, लेकिन जब उसका अवसर आता है तो खामोश रह जाते हैं।
- साक्षरता अच्छी चीज है और उससे जीवन की कुछ समस्याएं हल हो जाती है, लेकिन यह समझना कि किसान निरा मूर्ख है, उसके साथ अन्याय करना है।
- हम जिनके लिए त्याग करते हैं, उनसे किसी बदले की आशा ना रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं। चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो। त्याग की मात्रा जितनी ज्यादा होती है, यह शासन भावना उतनी ही प्रबल होती है।
- हिम्मत और हौसला मुश्किल को आसान कर सकते हैं, आंधी और तूफ़ान से बचा सकते हैं, मगर चेहरे को खिला सकना उनके सामर्थ्य से बाहर है।
- सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए भूलें एक प्रकार की दैविक यंत्रणाएं जो हमें सदा के लिए सतर्क कर देती हैं।
- सौंदर्य को गहने की जरूरत नहीं है। मृदुता गहनों का वजन सहन नहीं कर सकता।
- सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है जो अपने कर्तव्य पथ पर अविचल रहते हैं।
- स्त्री गालियां सह लेती है, मार भी सह लेती है, पर मायके की निंदा उससे नहीं सही जाती।
- स्वार्थ में मनुष्य बावला हो जाता है।
- जो वह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है इस पर तो मुझे हँसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किए डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है और जीवन को सुखी बनाना ही मोक्ष है और उपासना है। ज्ञानी कहता है, होंठों पर मुस्कुराहट न आए, आँखों में आँसू न आए। मैं कहता हूँ, गर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते तो तुम मनुष्य नहीं पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं कोल्हू है। -- प्रेमचन्द, 'गोदान' नामक अपने अंतिम उपन्यास में अपने एक पात्र के मुँह से
कर्मभूमि से उद्धरण
[सम्पादन]- कायरों को इसके सिवा और सूझ ही क्या सकता है? धन कमाना आसान नहीं है। व्यवसायियों को जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह अगर संन्यासियों को झेलनी पड़े, तो सारा संन्यास भूल जाएं। किसी भले आदमी के द्वार पर जाकर पड़े रहने के लिए बल, बुद्धि, विद्या, साहस किसी की भी जरूरत नहीं। धनोपार्जन के लिए खून जलाना पड़ता है। सहज काम नहीं है। धन कहीं पड़ा नहीं है कि जो चाहे बटोर लाए। -- प्रेमचन्द, 'कर्मभूमि' में सुखदा के मुंह से
- जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की जरूरत नहीं होती।
- रोने के लिए हम एकांत ढूंढते हैं, हसंने के लिए अनेकांत।
- पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम से वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुंचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया, इन्हीं आधारों पर यह सृष्टि थमी हुई है और यह स्त्रियों के गुण हैं।
- हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता।
- हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता। वहां स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरी में पैसे का राज है, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय। देर में आइए तो जुर्माना न आइए तो जुर्माना सबक न याद हो तो जुर्माना किताबें न खरीद सकिए तो जुर्माना कोई अपराध हो जाए तो जुर्माना शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफों के पुल बांधे जाते हैं।
- दबा हुआ पुरुषार्थ ही स्त्रीत्व है।
- त्यागी दो प्रकार के होते हैं। एक वह जो त्याग में आनंद मानते हैं, जिनकी आत्मा को त्याग में संतोष और पूर्णता का अनुभव होता है, जिनके त्याग में उदारता और सौजन्य है। दूसरे वह, जो दिलजले त्यागी होते हैं, जिनका त्याग अपनी परिस्थितियों से विद्रोह-मात्र है, जो अपने न्यायपथ पर चलने का तावान संसार से लेते हैं, जो खुद जलते हैं इसलिए दूसरों को भी जलाते हैं। अमर इसी तरह का त्यागी था।
- कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। एक क्षण में उड़ते हुए पत्तों की तरह भागने वाले आदमियों की एक दीवार-सी खड़ी हो गई। अब डंडे पडें।, या गोलियों की वर्षा हो, उन्हें भय नहीं।
- मां में केवल वात्सल्य है। बहन में क्या है, नहीं कह सकती, पर वह वात्सल्य से कोमल अवश्य है। मां अपराध का दंड भी देती है। बहन क्षमा का रूप है। भाई न्याय करे, अन्याय करे, डांटे या प्यार करे, मान करे, अपमान करे, बहन के पास क्षमा के सिवा और कुछ नहीं है। वह केवल उसके स्नेह की भूखी है।
- आदमी को जीवन क्यों प्यारा होता है- इसलिए नहीं कि वह सुख भोगता है। जो सदा दुख भोगा करते हैं और रोटियों को तरसते हैं, उन्हें जीवन कुछ कम प्यारा नहीं होता। हमें जीवन इसलिए प्यारा होता है कि हमें अपनों का प्रेम और दूसरों का आदर मिलता है। जब इन दो में से एक के मिलने की भी आशा नहीं तो जीना वृथा है। अपने मुझसे अब भी प्रेम करें लेकिन वह दया होगी, प्रेम नहीं।
- दुःखी आशा से ईश्वर में भक्ति रखता है, सुखी भय से।
- दुःखी आशा से ईश्वर में भक्ति रखता है, सुखी भय से। दुःखी पर जितना ही अधिक दुःख पड़े, उसकी भक्ति बढ़ती जाती है। सुखी पर दुःख पड़ता है, तो वह विद्रोह करने लगता
- मनुष्य पर जब प्रेम का बंधन नहीं होता तभी वह व्यभिचार करने लगता है। भिक्षुक द्वार-द्वार इसीलिए जाता है कि एक द्वार से उसकी क्षुधा-तृप्ति नहीं होती। अगर इसे दोष भी मान लूं, तो ईश्वर ने क्यों निर्दोष संसार नहीं बनाया- जो कहो कि ईश्वर की इच्छा ऐसी नहीं है, तो मैं पूछूंगा, जब सब ईश्वर के अधीन है, तो वह मन को ऐसा क्यों बना देता है कि उसे किसी टूटी झोंपड़ी की भांति बहुत-सी थूनियों से संभलना पड़े। यहां तो ऐसा ही है जैसे किसी रोगी से कहा जाय कि तू अच्छा हो जा। अगर रोगी में सामथ्र्य होती, तो वह बीमार ही क्यों पड़ता-
- कृषि-प्रधान देश में खेती केवल जीविका का साधन नहीं है सम्मान की वस्तु भी है। गृहस्थ कहलाना गर्व की बात है। किसान गृहस्थी में अपना सर्वस्व खोकर विदेश जाता है, वहां से धन कमाकर लाता है और फिर गृहस्थी करता है। मान-प्रतिष्ठा का मोह औरों की भांति उसे घेरे रहता है। वह गृहस्थ रहकर जीना और गृहस्थ ही में मरना भी चाहता है। उसका बाल-बाल कर्ज से बांधा हो, लेकिन द्वार पर दो-चार बैल बंधकर वह अपने को धन्य समझता है। उसे साल में तीस सौ साठ दिन आधे पेट खाकर रहना पड़े, पुआल में घुसकर रातें काटनी पड़ें, बेबसी से जीना और बेबसी से मरना पड़े, कोई चिंता नहीं, वह गृहस्थ तो है। यह गर्व उसकी सारी दुर्गति की पुरौती कर देता है।
प्रेमचन्द के साहित्य सम्बन्धी विचार
[सम्पादन]- साहित्य की बहुत सी परिभाषाएँ की गयी हैं, पर मेरे विचार में सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ है। चाहे वह निबन्ध के रूप में हो, चाहे कहानियों के या काव्य के उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए। -- प्रेमचन्द, साहित्य की परिभाषा के सन्दर्भ में
- साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दरजा इतना न गिराइये। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। -- प्रेमचन्द
- प्रेमचंद द्वारा लखनऊ में दिया गया भाषण, वर्ष-१९३६, साहित्य का उद्देश्य, प्रकाशक-शिवरानी प्रेमचद, मुद्रक-भार्गव प्रेस इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष-१९५४, पृष्ठ संख्या-१५
- यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और हमारी क्रूरताओं का नग्न चित्र होता है। वास्तव में यथार्थवाद हमको निराशावादी बना देता है, मानव चरित्रों से हमारा विश्वास उठ जाता है। हमको चारों तरफ बुराई दिखाई देने लगती है।...आदर्शवाद हमें ऐेसे चरित्रों से परिचित कराता है जिनके हृदय पवित्र होते हैं, जो स्वार्थ और वासना से रहित होते हैं जो साधु-प्रकृति के होते हैं। यद्यपि ऐसे चरित्र व्यवहार कुशल नहीं होते, उनकी सरलता उन्हें व्यवहारिक विषयों में धोखा देती है।... हम वही साहित्य (उपन्यास) उच्चकोटि का समझते हैं जहाँ यथार्थवाद और आदर्शवाद का समन्वय हो। उसे आप आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कह सकते हैं। -- प्रेमचन्द, आदर्शवाद एवं यथार्थवाद की आलोचना करते हुए
- साहित्य का उद्देश्य जीवन के आदर्श को उपस्थित करना है, जिसे पढ़कर हम जीवन में कदम-कदम पर आने वाली कठिनाइयों का सामना कर सकें। अगर साहित्य से जीवन का रास्ता न मिले, तो ऐसे साहित्य से लाभ ही क्या? जीवन की आलोचना कीजिए, चाहे चित्र खीचिएँ, आर्ट के लिए लिखिए, चाहे ईश्वर के लिए, मनोरहस्य दिखाइए, चाहे विश्वव्यापी सत्य की तलाश कीजिए, अगर उसमें हमें जीवन का अच्छा मार्ग नहीं मिलता तो उस रचना से हमारा कोई फायदा नहीं। साहित्य न चित्रण का नाम है न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का। ऊँचे और पवित्र विचार ही साहित्य की जान हैं। -- प्रेमचन्द
- नीतिशास्त्र और साहित्यशास्त्र का एक ही लक्ष्य है- केवल उपदेश की विधि में अन्तर है। नीतिशास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, तो साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है। --प्रेमचन्द
- मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य है। जमाने के छल-प्रपंच या और परिस्थितियों के वशीभूत होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्ठा करता है, उपदेशों से नहीं, नसीहतों से नहीं। भावों को स्पन्दित करके, मन के कोमल तारों पर चोट लगाकर, प्रकृति से सामंजस्य उत्पन्न करके। -- प्रेमचन्द
- किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं। व्यास और वाल्मीकि ने जिन आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किए हुए हैं। राम अगर वाल्मीकि के साँचे में न ढलते, तो राम न रहते। सीता भी उसी साँचेे में ढलकर सीता हुई।
- जीवन का उद्देश्य ही आनन्द है। मनुष्य जीवन पर्यन्त आनन्द की खोज में पड़ा रहता है। किसी को वह (आनन्द) रत्न द्रव्य में मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लम्बे-चैड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में, लेकिन साहित्य का आनन्द इस आनन्द से ऊँचा है, इससे पवित्र है, उसका आधार सुन्दर और सत्य है। वास्तव में सच्चा आनन्द सुन्दर और सत्य से मिलता है, उसी आनन्द को दर्शाना, वही आनन्द उत्पन्न करना साहित्य का उद्देश्य है। -- प्रेमचन्द
- वह साहित्य चिरायु हो सकता है जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों पर अवलम्बित हो। ईर्ष्या और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जा सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ हैं। इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के कोई रचना हो ही नहीं सकती। -- प्रेमचन्द
- 'टाम काका की कुटिया’ गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है, पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें वह व्यापकता है कि हम लोग भी उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैं। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। वह सदा नया बना रहता है। दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते रहते हैं। पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय में तबदीलियाँ नहीं होती। हर्ष और विस्मय क्रोध और द्वेष, आशा और भय आज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत है। -- प्रेमचन्द
- साहित्यकार बहुधा अपने देश-काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके रूदन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है। -- प्रेमचन्द
- साहित्य का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाड़ो और मदारियों, विदूषक और मसकरों का काम है। -- प्रेमचन्द
- मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ। निस्संदेह कला का उद्देश्य सौंदर्य की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनन्द की कुंजी है, पर ऐसा कोई रूचिगत, मानसिक तथा आध्यात्मिक आनन्द नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो। -- प्रेमचन्द
- हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो जों हमें गीत, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलायें नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।
- यह प्रश्न निरर्थक सा मालूम होता है क्योंकि सौंदर्य के विषय में हमारे मन में कोई शंका-सन्देह नहीं। हमने सूरज का उगना और डूबना देखा है, उषा और संध्या की लालिमा देखी है, सुन्दर सुगन्धित फूल देखे हैं, मीठी बोलियाँ बोलने वाली चिड़ियाँ देखी है, कल-कल निनादिनी नदियाँ देखी है, नाचते हुए झरने देखे हैं- यही तो सब सौन्दर्य है।
- जो साहित्य जीवन के उच्च आदर्शों का विरोधी हो, सुरुचि को बिगाड़ता हो अथवा साम्प्रदायिक सद्भावना में बाधा डालता हो, ऐसे साहित्य को यह परिषद हरगिज प्रोत्साहित न करेगी।
- साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। वह हममें वफादारी, सच्चाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता और ममता के भावों की पुष्टि करता है। जहाँ ये भाव है, वहीं दृढ़ता है और जीवन है, जहाँ इनका अभाव है, वहीं फूट, विरोध, स्वार्थपरता है, द्वेष, शत्रुता और मृत्यु है।
- ऐसी भाषा, जिसे लिखने और समझने वाले लोग थोड़े ही हो, मसनुई, बेजान और बोझिल हो जाती है। जनता का मर्म-स्पर्श करने की, उन तक अपना पैगाम पहुँचाने की उनमें कोई शक्ति नहीं रहती।
- जिस दिन आप अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व तोड़ देंगे और अपनी एक कौमी भाषा बना लेंगे, उसी दिन आपको स्वराज के दर्शन हो जाएँगे।… राष्ट्र की बुनियाद राष्ट्र की भाषा पर टिकी है।… भाषा ही वह बन्धन है, जो चिरकाल तक राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधे रहती है और उसका शीजरा बिखरने नहीं देती।
- भाषा बोलचाल की भी होती है और लिखने की भी। बोलचाल की भाषा तो मीर अम्मन और लल्लूलाल के जमाने में भी मौजूद थी पर उन्हें जिस भाषा की दाग बेल डाली, वह लिखने की भाषा थी और वही साहित्य है। बोलचाल से हम अपने करीब के लोगों पर अपने विचार प्रकट करते हैं- अपने हर्ष-शोक के भावों का चित्र खींचते है। साहित्यकार वही काम लेखनी द्वारा करता है। हाँ उसके श्रोताओं की परिधि बहुत विस्तृत होती है और अगर उसके बयान में सच्चाई है, तो शताब्दियों और युगों तक उसकी रचनाएँ हृदयों को प्रभावित करती रहती है।
- भाषा साधन है, साध्य नहीं। अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है कि हम भाषा से आगे बढ़कर भाव की ओर ध्यान दें और इस पर विचार करें कि जिस उद्देश्य से यह निर्माण कार्य आरम्भ किया गया था, वह क्योंकर पूरा हो। वही भाषा, जिसमें आरम्भ में ‘बागोबहार’ और ‘बैताल-पचीसी’ की रचना ही सबसे बड़ी साहित्य सेवा थी अब इस योग्य हो गयी है कि उसमें शास्त्र और विज्ञान के प्रश्नों की भी विवेचना की जा सके और यह सम्मेलन इस सच्चाई की स्पष्ट स्वीकृति है।
प्रेमचन्द के बारे में उक्तियाँ
[सम्पादन]- वे (प्रेमचन्द) अपने काल में समस्त उत्तरी भारत के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार थे। -- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
- वास्तव में तुलसीदास और भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद प्रेमचंद के समान सरल और जोरदार हिंदी किसी ने नहीं लिखी । -- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
- दुनिया की सारी जटिलताओं को समझ सकने के कारण ही वे निरीह थे, सरल थे। धार्मिक ढकोसलों को वे ढोंग समझते थे, पर मनुष्य को वे सबसे बड़ी वस्तु समझते थे। उन्होंने ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं किया फिर भी इस युग के साहित्यकारों में मानव की सद्वृत्तियों में जैसा अडिग विश्वास प्रेमचंद का था वैसा शायद ही किसी और का हो। असल में यह नास्तिकता भी उनके दृढ़ विश्वास का कवच थी। वे बुद्धिवादी थे और मनुष्य की आनंदिनी वृत्ति पर पूरा विश्वास करते थे । -- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
- ऐसे थे प्रेमचंद - जिन्होंने ढोंग को कभी बर्दाश्त नहीं किया, जिन्होंने समाज को सुधारने की बड़ी-बड़ी बातें सुझाई ही नहीं, स्वयं उन्हें व्यवहार में लाए, जो मनसावाचा एक थे, जिनका विनय आत्माभिमान का, संकोच महत्व का, निर्धनता निर्भीकता का, एकांतप्रियता विश्वासानुभूति का और निरीह भाव कठोर कर्तव्य का कवच था, जो समाजकी जटिलताओं की तह में जाकर उसकी टीमटाम और भभ्भड़पन का पर्दाफाश करने में आनंद पाते थे और जो दरिद्र किसान के अंदर आत्मबल का उद्घाटन करने को अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझते थे; जिन्हें कठिनाइयों से जूझने में मजा आता था और जो तरस खानेवाले पर दया की मुस्कुराहट बखेर देते थे, जो ढोंग करनेवाले को कसके व्यंग्य बाण मारते थे और निष्कपट मनुष्यों के चेरे को जाया करते थे। -- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
- उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने ग्रामीण जीवन को अपनी कहानी का मुख्य आधार बनाया था। लेकिन वे सारी कहानियाँ एक जैसी नहीं है। कथा की दृष्टि से उनकी प्रत्येक कहानी एक दूसरे से भिन्न है। उनमें पर्याप्त विभिन्नता है। -- डॉ. रामविलास शर्मा
- प्रेमचन्द भारतीय समाज के लिए सदा प्रासंगिक रहे हैं पर पिछले दिनों उनकी प्रासंगिकता और बढ़ गई है। हमारा समाज आगे बढ़ने के बदले पीछे जा रहा है। जिस पिछड़ेपन के विरुद्ध प्रेमचन्द ने संघर्ष किया था, वह विशेष रूप से हिन्दी प्रदेश में सघन हो गया है। आर्थिक स्तर पर जनता की गरीबी अपनी जगह है, राजनीतिक स्तर पर देश के विघटन की समस्या और तीव्र हो गयी है। सांस्कृतिक स्तर पर द्विज और शूद्र का भेद, हिन्दू और मुसलमान का भेद, और बढ़ा है। -- डॉ. रामविलास शर्मा
- यदि उनके उपन्यास हटा दिए जाएँ, तो वे बहुत अच्छे कहानीकार रह जाएँगें लेकिन विश्व-साहित्य में उनका स्थान उतना ऊँचा न रहेगा जितना इन उपन्यासों के बल पर आज है। -- डॉ. रामविलास शर्मा, 'प्रेमचन्द और उनका युग' में
- उनकी काफी कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें ग्रामीण कथाओं का रस और उनकी शैली अपनाई गई है। आमतौर से उनकी कहानियों में जो एक ठेठपन है, पाठक के हृदय में अपनी बात को सीधे उतार देने की जो ताकत है, वह उन्होंने हिन्दुस्तान के अक्षय ग्रामीण कथा-भण्डार से सीखी थी। यही कारण है कि किसानों और स्त्रियों में उनकी कहानियाँ तुरंत लोकप्रिय हुई। उनकी कहानियों में एक तरह का लोकरस है। कथा में कसाव है और शैली में व्यंग्यात्मकता है। -- डॉ. रामविलास शर्मा
- समाज के विभिन्न स्तरों का व्यापक ज्ञान संसार के बहुत कम साहित्यिकों में मिलेगा। प्रेमचन्द के विचार बहुत स्पष्ट नहीं थे, परन्तु उनमें कलाकार की सचाई की कमी न थी ।... आज के साहित्यिक के विचार बहुत कुछ स्पष्ट हो गए हैं; परन्तु उसके पास प्रेमचन्द का अनुभव नहीं, उनकी-सी सचाई भी कम है। प्रेमचन्द की कृतियों का हमारे लिए यह संदेश है कि हम जनता में जाकर रहें और काम करें- रचनाओं में 'जनता-जनता' कम चिल्लाएँ। -- डॉ. रामविलास शर्मा
- प्रेमचन्द का मानवतावाद उन्नीसवीं सदी के अनेक साहित्यकारों के मानवतावाद से भिन्न था। वह टॉलस्टाय जैसे महान लेखकों के मानवतावाद से भी भिन्न थे। वह राजनीति और संस्कृति की समस्या को गरीब जनता के दृष्टिकोण से देखने- परखने और हल करने के आदी थे। -- डाॅ. रामविलास शर्मा
- यों तो एक हद तक प्रेमचन्द के साहित्य में यह भी दोष है कि उनके देहाती, निम्नवर्गीय पात्रों का चित्रण तो खरा और सर्वांगीण सच्चा है पर शिक्षित मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय पात्रों का चित्रण सतही और अविश्वास्य है। -- * सच्चिदानन्द वात्स्यायन
- प्रेमचन्द ने सन् 1930 के आसपास एलानिया तौर पर कहा था कि वे जो कुछ लिख रहे हैं वह स्वराज के लिए, उपनिवेशवादी शासन से भारत को मुक्त कराने के लिए लिख रहे हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि केवल जॉन की जगह गोविन्द को बैठा देना ही स्वराज्य नहीं है, बल्कि सामाजिक स्वाधीनता भी होना चाहिए। सामाजिक स्वाधीनता से उनका तात्पर्य सम्प्रदायवाद, जातिवाद, छूआछूत से मुक्ति और स्त्रियों की स्वाधीनता से भी था। -- नामवर सिंह, प्रेमचन्द और भारतीय समाज, पृष्ट 15
- उनका (प्रेमचन्द का) उद्देश्य सामयिकता व देश-काल की विशेषता से परे नहीं था, उनका साहित्य सामयिकता की सतह को छूने वाला साहित्य नहीं था, उसमें गहराई से डूबने वाला देश काल की विशेषताओं के परस्पर संबंध को चित्रित करने वाला साहित्य था। इसीलिए वह इतना सशक्त और प्रभावशाली है। -- डॉ रामविलास शर्मा
- यद्यपि लोग उन्हें गांधीवादी कहते हैं, लेकिन वे गांधी से दो कदम आगे बढ़कर आन्दोलन और क्रांति की बात करते हैं। प्रेमचन्द अपने जमाने के साहित्यकारों से ज्यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं। -- नामवर सिंह
- जब गांधीजी ने भारत की राजनीति में प्रवेश किया और उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में गाँवों की करोड़ों जनता का भाग लेने के लिए आह्वान किया। प्रेमचन्द पहले साहित्यकार हैं जिन्होंने भारत की इस नई राष्ट्रीय चेतना को अपने साहित्य में वाणी दी। -- नामवर सिंह, प्रेमचन्द और भारतीय समाज, पृष्ट 19 पर
- अपने उदारवादी नजरिए के बावजूद वह (प्रेमचन्द) हृदय से हिंदू रहे और वह अपनी वैचारगी में मुस्लिमों को नजरअंदाज करते रहे। -- गीतांजलि पांडे