यशपाल
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यशपाल (3 दिसम्बर 1903 - 26 दिसम्बर 1976 ) हिन्दी कथाकार थे जिन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य को यथार्थवादी दृष्टि और बदली हुई आधुनिक संवेदना से समृद्ध किया। वे आर्यसमाजी वातावरण में रहे। वे लाहौर षड्यंत्र मामले के अभियुक्तों में से एक थे और इस सिलसिले में वे जेलयात्रा भी की की थी। जेल से मुक्त होने के पश्चात् वह लखनऊ में ही बस गए और लेखन कार्य में पूर्ण रूप से लग गये। इन्होने 'विप्लव' नामक क्रांतिकारी पत्रिका भी निकाली। बाद में 'विप्लव' नाम का एक प्रकाशन भी खोला। इनका सम्पूर्ण लेखन यथार्थ से परिपूर्ण है। चक्कर क्लब, बात बात में बात आदि उनके व्यंग्य संग्रह हैं ; 'तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूँ' , 'पिंजरे की उड़ान', आदि उनके कहानी संग्रह हैं । झूठा सच, दिव्या, दादा कामरेड, देशद्रोही आदि उपन्यास उन्होंने रचे।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- अनुराग आदर का क्रियात्मक रूप है।
- अनेक विरोधी तत्वों का समुच्चय ही जीवन है।
- अपमान की आशंका से स्त्री कितनी असहाय हो जाती है। पुरुष दूसरे पुरुषों से सेवा चाहते हैं, उनके श्रम से लाभ उठाना चाहते हैं, उनका धन छीनना चाहते हैं, रिश्वत चाहते हैं परन्तु स्त्री का केवल निरादर करना चाहते हैं। (झूठा सच से)
- अमरता का अर्थ है परिवर्तन।
- आपकी प्रतिज्ञा बदल जाने से प्रतिज्ञा का आधार नहीं रखता।
- आपदकाल में भित्तियों के भी कान होते हैं।
- आवेग एक वस्तु है, और जीवन दूसरी।
- आसक्ति और साधना का योग असंभव है।
- इन्हें ही राज कर लेने दो। ये पाँच बरस से खा रहे हैं, इनका पेट कुछ भरा होगा; इनका पेट थोड़े में पूरा हो जाएगा। दूसरा कोई आएगा तो जितना ये खा चुके हैं, उतना खाकर फिर और खाएगा। (झूठा सच से)
- इस शरीर के सूक्ष्म गुण है: मनुष्य के विचार और अनुभव की शक्ति।
- इस संसार में बल ही प्रधान है, जैसे की धन-बल, जन-बल।
- कंचन की खान से लौह उत्पन्न नहीं हो सकता।
- कर्म और जीवन दुःख की शृंखला है।
- कर्मफल का अर्थ है कष्ट और विवशता के कारण अज्ञान।
- कला केवल उपकरण मात्र है।
- कला व्यवस्थित चित्त की वस्तु है।
- कायरता और निरुत्साह वीर पुरूष को शोभा नहीं देते।
- कुत्ता उसका जिसके हाथ से टुकड़ा पाए! (झूठा सच से)
- कुल नारी के लिए स्वतन्त्रता कहाँ ? केवल वेश्या स्वतंत्र होती है।
- जल का विशेष उपयोग तृषा अनुभव होने पर होता है।
- जागती हुई चींटी की शक्ति सोते हुए हाथी से अधिक होती है।
- जिस बात के लिए आलोचना की आशंका हो, वही पाप है। (झूठा सच से)
- जिसे कर्म के भोग से सेवा ही करना है, वह सभी की सेवा करता है।
- जीवन का कोई अनुभव स्थायी और चिरन्तन नहीं।
- जीवन की सार्थकता अधिकार और सामर्थ्य में ही है।
- जीवन के आनन्द से जीवन की रक्षा की चिंता अधिक प्रबल हो जाती है।
- जीवन में एक समय प्रयत्न की असफलता मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन नहीं है।
- जीवित होते हुए भी मृतवत व्यवहार करने का क्या लाभ?
- जो गतिमान है वह सजीव है और जो स्थिर है वह निर्जीव हैं।
- दुखियों के लिए वैराग्य ही सुख है।
- देवता जीवों को प्राणदान देते हैं, सिर्फ वही इसे ग्रहण भी कर सकते हैं।
- निरंतर प्रयत्न ही जीवन का लक्षण है।
- न्याय कभी लोगों की इच्छा का अनुसरण नहीं करता।
- परलोक में अधिक भोग का अवसर पाने की कामना से किया गया त्याग, त्याग नहीं रहता।
- पराजित होने वाला कभी पूज्य नहीं हो सकता।
- परिवर्तन ही अमरता का अर्थ हैं।
- पाये बिना किसी वस्तु का त्याग नहीं किया जा सकता।
- पुरुष अपनी उच्छृंखलता के प्रचार से उतनी लज्जा अनुभव नहीं करता जितनी अपनी माँ, बहिन अथवा पत्नी की उच्छृंखलता के प्रचार से। (झूठा सच से)
- पुरुष की तुलना में स्त्री की हीनता स्वाभाविक तो नहीं, परन्तु आवश्यक बना दी गयी है। (झूठा सच से)
- पुरुष स्त्री को चाहने लगे, यह भी स्त्री के लिए कितनी बड़ी विपदा है। (झूठा सच से)
- प्रतिज्ञा बदल जाने से प्रतिज्ञा का आधार नहीं रहता।
- प्रयत्न और चेष्टा जीवन का स्वभाव एवं गुण है। जब तक जीवन है,प्रयत्न और चेष्टा रहना स्वाभाविक है।
- प्रयोजन से हीन कला, मोहक रूप रंग लिए मिट्टी के फल के समान है।
- प्रेम और चुनाव में सब जायज़ है। (झूठा सच से)
- प्रेम जीवन का यथार्थ व्यवहार है। वह केवल कल्पना और स्मृति में ही सफल नहीं हो सकता। (झूठा सच से)
- प्रेम भी तो चाह और भूख ही है या चाह और भूख के उपाय की चिंता है। (झूठा सच से)
- बदलने का, चुनने का अर्थ उस बात को महत्त्व देना है। महत्त्व नहीं है तो उपेक्षा ही उचित है। (झूठा सच से)
- बिना सहारे के खड़े होना कितना कठिन है, सचमुच नास्तिक हो सकने के लिए कितना आत्मबल चाहिए। (झूठा सच से)
- भय है जीवित रहकर पीड़ा और पराभव सहने में।
- भाग्य का अर्थ है, मनुष्य की विवशता।
- मनुष्य के विचार और अनुभव की शक्ति इस स्थूल शरीर के ही सूक्ष्म गुण हैं।
- मनुष्य के शत्रु कौन है? कितने हैं? आजतक कोई नहीं जान सका।
- मनुष्यों के देश धर्मों के देश बन गए। (झूठा सच से)
- मरना-जीना मनुष्य के जीवन में लगा ही रहता है।
- माणिक पर धूल रहने से क्या वह माणिक नहीं रहता?
- मृत्यु क्या है? अस्तित्व का अंत।
- मृत्यु तो एक दिन आएगी ही।
- रक्त-मांस का उन्मेष ही सही पर हृदय और क्या है, मस्तिष्क और क्या है? शरीर को काट हृदय की परीक्षा करने से तो हृदय में प्यार या मस्तिष्क में विचार रखे हुए नहीं मिलते। प्यार और विचार शरीर के व्यवहार मात्र हैं। (झूठा सच से)
- लड़े हमारी जूती! हमें कोई मारेगा तो क्या हम नहीं लड़ेंगे, लहू पी लेंगे..? मासी, तुम लहू पियोगी? तुम तो उनके घर का पानी भी नहीं पी सकोगी। (झूठा सच से)
- वर्षा फसल के लिए अच्छी है तो भगवान से कहिये खेतों में बरसाए। यहाँ शहर में बेघरबार, बेसाया लोगों को भिगो कर बीमार करने के लिए, कीचड़ करने के लिए अपना पानी क्यों बरबाद कर रहा है? उसे नहीं दिखता कि कणक का खेत हमारे सिर पर नहीं है। मॉडल टाउन में माली बग़ीचे में पानी देता था तो क्या हमें भी भिगो देता था? भगवान से तो माली ही समझदार था। (झूठा सच से)
- विद्या चाहे जितनी उत्तम वस्तु हो और पैसा केवल हाथ का मैल, परन्तु विद्या पैसे के बिना अप्राप्य रहती है। (झूठा सच से)
- व्यक्ति समाज के चक्कर में कैसे विवश रहता है? समाज कभी डुबा देता है, कभी बचा लेता है परन्तु सदा निर्मम रहता है। (झूठा सच से)
- शत्रु के दैव्य स्वीकार कर लेने पर युद्ध का अंत हो जाता है।
- शत्रु तो मन की भावना से होता है।
- शांति ना तो वैभव में है, न ही प्रभुता में और ना ही तृप्ति में, शांति तो केवल अनासक्ति में है।
- शोकातुरों को शोक के वशीभूत न होने देकर शोक को अनिवार्य सम्पादन और कर्त्तव्य बना देना, शोक को वश करने का और उसे बहा देने का मनोवैज्ञानिक उपाय भी था। (झूठा सच से)
- संघर्ष से विरक्त होकर व्यक्तिगत आत्मरक्षा में संतोष खो जाना आत्महत्या है।
- सच को कल्पना से रंग कर उसी जन समुदाय को सौंप रहा हूँ जो सदा झूठ से ठगा जाकर भी सच के लिए अपनी निष्ठा और उसकी ओर बढ़ने का सहस नहीं छोड़ता। (झूठा सच से)
- सजीव गतिमान है, निर्जीव गतिहीन।
- सफ़ेदपोश निम्न-मध्यवर्ग के लिए अपनी ग़रीबी से अधिक संकोच और रहस्य की दूसरी बात क्या हो सकती है। (झूठा सच से)
- सभी प्रसंगों के लिए काल का अवसर होता है।
- संसार केवल शक्तिशाली व्यक्तियों के लिए है।
- संसार में केवल एक ही सत्य है, शक्ति केवल एक वस्तु काम्य है, शक्ति सामर्थ्य।
- संसार में बल ही प्रधान है, जैसे धन-बल और जन-बल।
- साधारण स्वतंत्रता के अभाव में चतुरता की मजबूरी ही नारी का "चलित्तर" कहलाती है। (झूठा सच से)
- सामर्थ्य से ही मनुष्य भोग और कामना का अधिकारी होता है।
- सुख केवल अस्थायी अनुभूति है।
- सेवा ग्रहण करना स्वामी का अधिकार है, प्राण को ग्रहण करना नहीं।
- स्त्रियों के जीवन में लज्जा का उतार-चढ़ाव दिन के पहरों में ताप की भाँति होता है। बचपन में लाज की अनुभूति नहीं रहती। जीवन के दूसरे पहर में जब वे अपने शरीर में नारीत्व को पहचानने लगती हैं और जान जाती हैं कि उनके जीवन की परिणति उनकी आकर्षण-शक्ति में है तो वे आकर्षण के प्रबल माध्यम लाज को बढ़ाने लगती हैं। यौवन में विवाह से पूर्ण लाज और संकोच की यह अनुभूति और उसका प्रदर्शन भी नवयुवती में अत्यंत उत्कट होता है। विवाह के रूप में आकर्षण-शक्ति के चरितार्थ हो जाने पर और विवाह की परिणति संतान के रूप में हो जाने पर अपने शरीर के सम्बन्ध में स्त्रियों की लाज घटने लगती है। जर्जर बुढ़ापे की संध्या आ जाने पर, आकर्षण का अवसर नहीं रहता तो स्त्रियों में शरीर के प्रति शैशव का सा निस्संकोच फिर लौट आता है। (झूठा सच से)
- स्त्री अपनी शोभा अपने से बढ़कर पुरुष को पाने में ही समझ लेती है, स्त्री स्वयं अपने योग्य पुरुष से हीन क्यों रहना चाहती है? स्त्री जिसे अपने से बढ़कर नहीं समझ सकती उसे अपने योग्य कैसे समझे, उसके प्रति श्रद्धा और प्यार क्या? (झूठा सच से)