हिन्दी साहित्य
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- किसी भी अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते है। -- श्यामसुन्दर दास (रूपक रहस्य)
- हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (चिन्तामणि भाग-2)
- जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है। -- आचार्य शुक्ल (रस मीमांसा)
- सर्वभूत को आत्मभूत करके अनुभव करना ही काव्य का चरम लक्ष्य है। -- आचार्य शुक्ल (काव्य में प्राकृतिक दर्शन)
- जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- ये (घनानन्द) साक्षात् रस-मूर्ति और ब्रज भाषा के प्रधान स्तंभों में है। प्रेम की गूढ़ अन्तर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है वैसा हिन्दी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- इनका-सा (देव कवि सा) अर्थ सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियों में से बङे ही प्रगल्भ और प्रतिभासंपन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- कामायनी में उन्होंने (प्रसाद ने) नर-जीवन के विकास में भिन्न-भिन्न भावात्मिका वृत्तियों का योग और संघर्ष बङी प्रगल्भ और रमणीय कल्पना द्वारा चित्रित करके मानवता का रसात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- संगीत को काव्य और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- कविता का संबंध ब्रह्म की व्यक्त सत्ता से है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- अनूठी से अनूठी उक्ति तभी काव्य हो सकती है, जबकि उसका संबंध कुछ दूर का ही सही हृदय के किसी भाव या वृत्ति से होगा। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- यथार्थवाद की विशेषता में प्रधान है – लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात -- जयशंकर प्रसाद
- यथार्थवाद में स्वभावतः दुःख ही प्रधानता और वेदना की अनुभूति आवश्यक है। -- जयशंकर प्रसाद
- चीटीं से लेकर हाथी पर्यन्त पशु, भिक्षुक से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त जल, अनन्त आकाश, अनन्त पृथ्वी, अनन्त पर्वत सभी पर कविता हो सकती है। -- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (रसज्ञ रंजन ; 1920)
- कविता की भाषा से मनोरंजन तो होता है, परन्तु वह जीवन-संग्राम के काम नहीं आता। -- सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’
- सत्य अपनी एकता में असीम रहता है, तो सौन्दर्य अपनी अनेकता में अनंत। -- महादेवी वर्मा
- राजनीति और साहित्य मात्र अभिव्यक्ति में भिन्न है, उनका मूल है आज का यथार्थ, उसके लक्ष्य, उसके अभिप्रेत, उसके संघर्ष। -- मुक्तिबोध
- चरम व्यक्तिवाद ही ’प्रयोगवाद’ का केन्द्र बिन्दु है। -- डाॅ. नामवर सिंह
- मैंने कला-पक्ष की अवहेलना न करते हुए भी भाव-पक्ष को अधिक मुख्यता दी है। -- बाबू गुलाब राय (अध्ययन और आस्वाद)
- काव्य संसार के प्रति कवि की भाव-प्रधान मानसिक प्रतिक्रियाओं की कल्पना के ढांचे में ढली हुई, श्रेय की प्रेयरूपा प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है। -- बाबू गुलाबराय (सिद्धान्त और अध्ययन)
- दमित प्रवृत्तियों के उदात्तीकरण द्वारा ही मनुष्य स्थूल पशुचेतना से ऊपर उठा और मानव में काव्यात्मक सौन्दर्य-चेतना तभी जगी, किसी दूसरे कारण से नहीं। -- देखा-परखा, इलाचन्द्र जोशी
- छायावाद और ग्रामीण बोलियों के नये गीत एक ही रस-परिवार के है, सहोदर है। इन गीतों से प्रगतिवाद और प्रयोगवाद फीका लगने लगा है। दोनों बासी हो गये है। ताजगी की दृष्टि से नये गीत ही नयी कविता है। -- वृत्त और विकास, पं. शांतिप्रिय द्विवेदी
- साहित्य मानव-जीवन से सीधा उत्पन्न होकर सीधे मानव-जीवन को प्रभावित करता है। साहित्य में उन सारी बातों का जीवन्त विवरण होता है, जिसे मनुष्य ने देखा है, अनुभव किया है, सोचा है और समझा है। -- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (साहित्य सहचर)
- मैं कविता को जीवन तक पहुँचने की सबसे सीधी और सबसे छोटी राह मानता हूँ। यह मस्तिष्क नहीं हृदय की राह है। -- रामधारी सिंह दिनकर (अर्द्धनारीश्वर)
- कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है। -- अज्ञेय (त्रिशंकु)
- कला और विषय वस्तु दोनों ही समान रूप से साहित्य-रचना के लिए निर्णायक महत्त्व की नहीं है। निर्णायक भूमिका हमेशा विषय-वस्तु की ही होती है। -- रामविलास शर्मा (प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ)
- शुक्ल जी का आदिकाल वास्तविक मध्यकाल है, हिन्दी जनपदों के इतिहास का ’सामंतकाल’ है। वीरगाथा काल ’रीतिकाल’ का प्रथम उत्थान है। पूर्व मध्यकाल (रीतिकाल) ’रीतिवाद’ का द्वितीय उत्थान है। -- रामविलास शर्मा (हिन्दी जाति की समस्या)
- सौन्दर्य कोई निरपेक्ष वस्तु नहीं है। उसका निर्माण भी तो कलाकार की अपनी भावनाओं और धारणाओं के आधार पर हीे होता है। -- डाॅ. नगेन्द्र (आलोचक की आस्था)
- ’रस’ एक व्यापक शब्द है, ’वह’ विभावानुभाव व्याभिचारी संयुक्त स्थायी’-अर्थात् परिपाक अवस्था का ही वाचक नहीं है, वरन् उसमें काव्यगत संपूर्ण भाव-सम्पदा का अन्तर्भाव है। -- डाॅ. नगेन्द्र (रस सिद्धान्त)
- सच्चा कलाकार सौन्दर्य की सृष्टि करने के लिए ही कला की साधना करता है – अपनी भावनाओं, मान्यताओं अथवा विचारों का प्रसार सच्चे कलाकार का उद्देश्य नहीं होता। -- डाॅ. नगेन्द्र (आलोचक की आस्था)
- भक्ति-आन्दोलन एक जातीय और जनवादी आन्दोलन हैं। -- रामविलास शर्मा (भारत की भाषा समस्या)
- कला की विषय वस्तु न वेदान्तियों का ब्रह्म है, न हेगेल का निरपेक्ष विचार। मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसके भाव, उसके विचार, उसका सौन्दर्यबोध कला की विषय वस्तु है। -- रामविलास शर्मा (आस्था और सौन्दर्य)
- जीवन एक विस्मयकर विभूति है, और मानवीय संबंध और भी विस्मयकर। -- अज्ञेय (आत्मनेपद)
- कविता तो कवि की आत्मा का आलोक है, उसके हृदय का रस है, जो बाहर की वस्तु का अवलम्ब लेकर फूट पङती है। -- रामधारी सिंह दिनकर (मिट्टी की ओर)
- साहित्य वस्तुतः मनुष्य का वह उच्छलित आनन्द है जो उसके अंतर में अँटाये नहीं अट सका था। -- हजारी प्रसाद द्विवेदी (ज्ञान शिखा)
- मनुष्य की सीमित बुद्धि के बाहर, मानव के चेतन तत्त्व से संबद्ध, ज्ञान की सीमा से परे कोई भी शक्ति है जिससे समस्त सृष्टि शासित है। -- भगवतीचरण वर्मा (साहित्य के सिद्धान्त तथा रूप)
- सौन्दर्य को हम वस्तुगत गुणों वा रूपों का ऐसा सामंजस्य कह सकते है, जो हमारे भावों में साम्य उत्पन्न कर हमको प्रसन्नता प्रदान करे तथा हमको तन्मय कर ले। सौन्दर्य रस का वस्तुगत पक्ष है। -- बाबू गुलाबराय (सिद्धान्त और अध्ययन)
- कला कलाकार के आनन्द की श्रेय और प्रेय तथा आदर्श को समन्वित करने वाली प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है। -- बाबू गुलाब राय
- नयी कविता में मुक्तिबोध की स्थिति वही है, जो छायावाद में निराला की थी। -- डाॅ. नामवर सिंह
- मुक्तिबोध की कविता अदभुत संकेतों से भरी, जिज्ञासाओं से अस्थिर कमी दूर से ही शोर मचाती कभी कानों में चुपचाप राज की बातें कहते चलती है। -- शमशेर बहादुर सिंह
- भावना, ज्ञान और कर्म जब एक सम पर मिलते हैं तभी युग प्रवर्तक साहित्यकार प्राप्त होता है। -- महादेवी वर्मा
- साहित्य का उद्देश्य सार्वदेशिक और सार्वकालिक होना चाहिए। हमें अपने साहित्य का उद्देश्य सार्वभौमिक करना है, संकीर्ण एकदेशीय नहीं। -- सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
- कविता की भाषा चित्रात्मक होनी चाहिए। काव्य में शब्द और अर्थ का अभिन्न संबंध होता है तथा भावों की अभिव्यक्ति और भाषा सौष्ठव मुक्त छन्द में अधिक सुगमता से व्यक्त किया जा सकता है। -- सुमित्रानंदन पन्त
- आदर्शवाद जहाँ आकाश है, उच्चता है वहीं यथार्थवाद का विषय पथरीली धरती है लघुता है। -- जयशंकर प्रसाद
- यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, विषमताओं तथा क्रूरताओं का नग्न चित्रण होता है। -- प्रेमचन्द
- रस ऐसी वस्ती है, जो अनुभवसिद्ध है, इसके मानने में प्राचीनों की कोई आवश्यकता नहीं, कवि अनुभव में आवे मानिए न आवे मानिए। -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- स्थायी साहित्य जीवन की चिरन्तन समस्याओं का समाधान है। मनुष्य मात्र की मनोवृत्तियों, उनकी आशाओं, आकांक्षाओं और उनके भावों, विचारों का यह अक्षय भण्डार है। -- श्यामसुन्दर दास
- कवियों का यह काम है कि, वे जिस पात्र अथवा वस्तु का वर्णन करते है, उसका रस अपने अन्तःकरण में लेकर उसे ऐसा शब्द-स्वरूप देते हैं कि उन शब्दों को सुनने से वह रस सुनने वालों के हृदय में जागृत हो जाता है। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी (रसज्ञ-रंजन)
- प्राचीन और नवीन का सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- जगत् अव्यक्त की अभिव्यक्त है, काव्य उस अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- ’छायावाद’ के भीतर माने जाने वाले सब कवियों में प्रकृति के साथ सीधा प्रेम-संबंध पंत जी का ही दिखाई पङता है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- वे (भारतेन्दु) सिद्ध वाणी के अत्यंत-सरस हृदय कवि थे। प्राचीन और नवीन का यही सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास )
- अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधङक प्रयोग करने वाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- इनकी (पद्माकर) की मधुर कल्पना ऐसी स्वाभावित और हाव-भावपूर्ण मूर्ति-विधान करती है कि पाठक मानो अनुभूति में मग्न हो जाता है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- केशव को कवि-हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
- तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक भक्त राम और कृष्ण की सौन्दर्य-भावना में मग्न होकर ऐसी मंगलदशा का अनुभव कर गये है, जिसके सामने कैवल्य या मुक्ति की कामना का कहीं पता नहीं लगता। -- आचार्य शुक्ल (चिंतामणि-भाग-1)
- हृदय की अनुभूति ही साहित्य में ’रस’ और ’भाव’ कहलाती है। -- आचार्य शुक्ल, चिंतामणि भाग-2
- शब्द-शक्ति, रस और अलंकार, ये विषम-विभाग काव्य-समीक्षा के लिए इतने उपयोगी हैं कि इनको अन्तर्भूत करके संसार की नयी पुरानी सब प्रकार की कविताओं की बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है। -- आचार्य शुक्ल (काव्य में अभिव्यंजनावाद)
- पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ ।
- देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणअ ॥ -- सरहपा
- भावार्थ- पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले बुद्ध ( ब्रह्म ) को नहीं जानते ।
- जाहि मन पवन न संचरई ।
- रवि ससि नहीं पवेस । -- सरहपा
- भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कंतु ।
- लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु ॥
- भावार्थ- अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया ; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं ( सहेलियों ) के सम्मुख लज्जित होती । ) -- हेमचंद्र
- बालचंद विज्जवि भाषा ।
- दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा ॥
- भावार्थ- जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा ; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते ) -- विद्यापति
- षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया ।
- भावार्थ- मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है ) -- चंदबरदाई
- मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था ' ( संस्कृत साहित्य के संबंध में ) -- अमीर खुसरो
- बड़ी कठिन है डगर पनघट की ( कव्वाली ) -- अमीर खुसरो
- छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके ( पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली ) -- अमीर खुसरो
- एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धरा ।
- चारो ओर वह थाल फिरे , मोती उससे एक न गिरे ( पहेली ) -- अमीर खुसरो
- नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है ।
- फंसत अमावस गोरी के फंदा ।
- हे सखि साजन , ना सखि , चंदा ( मुकरी / कहमुकरनी ) -- अमीर खुसरो
- खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय ।
- आया कुत्ता खा गया तू बैठी ढोल बजाय ॥ -- अमीर खुसरो ( ढकोसला )
- जेहाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ ।
- के ताब-ए-हिज्रा न दारम-ए-जां न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।
- अर्थ-प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह , नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते ( फारसी-हिन्दी मिश्रित गजल) -- अमीर खुसरो
- गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस / चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस ( अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर ) -- अमीर खुसरो
- खुसरो दरिया प्रेम का , उल्टी वाकी धार ।
- मनमा का जो उबरा सो डूब गया , जो डूबा सो पार । -- अमीर खुसरो
- खुसरो पाती प्रेम की , बिरला बांचे कोय ।
- वेद करआन पोथी पढ़े , बिना प्रेम का होय । -- अमीर खुसरो
- खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग ।
- तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग । -- अमीर खुसरो
- तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब ( अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ , हिन्दवी में जवाब देता हूँ । ) -- अमीर खुसरो
- बारह बरस लौं कूकर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार / बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार । -- जगनिक
- जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे ।
- भावार्थ- जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है । -- गोरखनाथ
- गगन मंडल मैं ऊँधा कूबा , वहाँ अमृत का बासा।
- सगुरा होइ सु भरि-भरि पीवै , निगुरा जाइ पियासा ॥ -- गोरखनाथ
- काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे ( गीत ) -- अमीर खुसरो
- प्राइव मुणिहै वि भंतडी ते मणिअडा गणंति।
- अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति ॥
- भावार्थ- प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है , वे मनका गिनते हैं । अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते । -- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
- पिय-संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम ।
- मइँ विन्निवि विन्नासिया निद्द न एम्ब न तेम्ब ॥
- भावार्थ- प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में ( सामने न रहने पर ) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद न यों , न त्यों । -- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
- जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु ।
- तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु ॥
- भावार्थ- जो अपना गुण छिपाए , दूसरे का प्रकट करे , कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ । -- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
- माधव हम परिनाम निरासा । -- विद्यापति
- कनक कदलिं पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने । -- विद्यापति
- अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की छाया ।
- तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया ॥ -- गोरखनाथ
- पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृप काज । -- चंदबरदाई
- मनहु कला सभसान कला सोलह सौ बन्निय । -- चंदबरदाई
- राम सो बड़ो है कौन , मोसो कौन छोटो ?
- राम सो खरो है कौन , मोसो कौन खोटो । -- तुलसीदास
- प्रभुजी तुम चंदन हम पानी । -- रैदास
- सुखिया सब संसार है खावे अरु सोवे ,
- दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै । -- कबीरदास
- नारी नसावे तीन गुन , जो नर पासे होय ।
- भक्ति मुक्ति नित ध्यान में , पैठि सकै नहीं कोय ॥ -- कबीरदास
- ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब है तारन के आधिकारी ॥ -- तुलसीदास
- पांणी ही तैं हिम भया , हिम हवै गया बिलाई ।
- जो कुछ था सोई भया , अब कछू कह्या न जाइ ॥ -- कबीरदास
- एक जोति थें सब उपजा , कौन ब्राह्मण कौन सूदा । -- कबीरदास
- एक कहै तो है नहीं , दोइ कहै तो गारी ।
- है जैसा तैसा रहे कहे कबीर उचारि ॥ -- कबीरदास
- सतगुरु है रंगरेज मन की चुनरी रंग डारी । -- कबीरदास
- संसकिरत ( संस्कृत ) है कूप जल भाषा बहता नीर । -- कबीरदास
- अवधु मेरा मन मतवारा ।
- गुड़ करि ज्ञान , ध्यान करि महुआ , पीवै पीवनहारा ॥ -- कबीरदास
- पंडित मुल्ला जो कह दिया । झाड़ि चले हम कुछ नहीं लिया ॥ -- कबीरदास
- पंडित वाद वदन्ते झूठा । -- कबीरदास
- पठत-पठत किते दिन बीते गति एको नहीं जानि । -- कबीरदास
- मैं कहता हूँ आँखिन देखी
- तू कहता है कागद लेखी ॥ -- कबीरदास
- गंगा में नहाये कहो को नर तरिए ।
- मछिरी न तरि जाको पानी में घर है ॥ ---कबीरदास
- कंकड़ पाथड़ जोड़ि के मस्जिद लिये बनाय ।
- ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ॥ -- कबीरदास
- जो तू बाभन बाभनि जाया तो आन बाट काहे न आया ।
- जो तू तुरक तुरकनि जाया तो भीतर खतना क्यों न कराया ॥ -- कबीरदास
- हिन्दु तुरक का कर्ता एके , ता गति लखि न जाय । -- कबीरदास
- हिन्दुअन की हिन्दुआइ देखी , तुरकन की तुरकाइ अरे इन दोऊ कहीं राह न पाई । -- कबीरदास
- जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान ।
- मोल करो तलवार का , पड़ा रहने दो म्यान ॥ -- कबीरदास
- जात भी ओछी , करम भी ओछा , ओछा करब करम हमारा ।
- नीचे से फिर ऊंचा कीन्हा , कह रैदास खलास चमारा ॥ -- रैदास
- झिलमिल झगरा झूलते बाकी रहु न काहु ।
- गोरख अटके कालपुर कौन कहाचे साधु ॥ -- कबीरदास
- दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना , राम नाम का मरम है आना । -- कबीरदास
- शूरा सोइ ( सती ) सराहिए जो लड़े धनी के हेत ।
- पुर्जा-पुर्जा कटि पडै तौ ना छाड़े खेत ॥ -- कबीरदास
- आगा जो लागा नीर में कादो जरिया झारि ।
- उत्तर दक्षिण के पंडिता , मुए विचारि विचारि ॥ -- कबीरदास
- संतन को कहा सीकरी सो काम ?
- आवत जात पनहियाँ टूटी , बिसरि गयो हरिनाम ।
- जिनको मुख देखे दुख उपजत , तिनको करिबे परी सलाम । -- कुंभनदास
- नाहिन रहियो मन में ठौर नंद नंदन अक्षत कैसे आनिअ उर और । -- सूरदास
- हऊं तो चाकर राम के पटी लिखौ दरबार ,
- अब का तुलसी होहिंगे नर के मनसबदार । -- तुलसीदास
- आँखड़ियाँ झाँई पड़ी , पंथ निहारि-निहारि जीभड़ियाँ झाला पड़याँ , राम पुकारि पुकारि । -- कबीरदास
- तीरथ बरत न करौ अंदेशा । तुम्हारे चरन कमल मतेसा ॥
- जह तह जाओ तुम्हारी पूजा । तुमसा देव और नहीं दूजा ॥ -- जायसी
- तलफत रहति मीन चातक ज्यों , जल बिनु तृषानु छीजे अँखियां हरि दर्शन की भूखी । -- सूरदास
- हेरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोई । -- मीरा
- एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास ।
- एक राम घनश्याम हित , चातक तुलसीदास । -- तुलसीदास
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाई ।
- बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताई ॥ -- कबीरदास
- पाँड़े कौन कुमति तोहि लागे , कसरे मुल्ला बाँग नेवाजा । -- कबीरदास
- बंदऊ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
- महामोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर ॥ -- तुलसीदास
- राम नांव ततसार है ॥ -- कबीरदास
- कबीर सुमिरण सार है और सकल जंजाल । -- कबीरदास
- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई ।
- ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई ॥ -- कबीरदास
- आयो घोष बड़ो व्यापारी ।
- लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी । -- सरदास
- मूक होई वाचाल , पंगु चढई गिरिवर गहन ।
- जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कली मल दहन ॥ -- तुलसीदास
- सिया राममय सब जग जानी , करऊ प्रणाम जोरि जुग पानि । -- तुलसीदास
- जांति-पांति पूछ नहीं कोई , हरि को भजै सो हरि का होई । -- रामानंद
- साईं के सब जीव है कीरी कुंजर दोय ।
- सब घाट साईयां सूनी सेज न कोय । -- कबीरदास
- मैं राम का कुता मोतिया मेरा नाम । -- कबीरदास
- जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज कवि शेली की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का । -- आचार्य राम चन्द्र शुक्ल
- गोपियों का वियोग-वर्णन , वर्णन के लिए ही है उसमें रिस्थितियों का अनुरोध नहीं है । राधा या गोपियों के विरह वह तीव्रता और गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक जन में बैठी सीता के विरह में है । ---आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- अति मलीन वृषभानु कुमारी ।
- छूटे चिहुर वदन कुभिलाने , ज्यों नलिनी हिमकर की मारी । -- सूरदास
- सास कहे ननद खिजाये राणा रह्यो रिसाय पहरा राखियो ,
- चौकी बिठायो , तालो दियो जराय । -- मीरा
- संतन ठीग बैठि-बैठि लोक लाज खोई । -- मीरा
- या लकुटि अरु कंवरिया पर ।
- राज तिहु पुर का ताज डारा । -- रसखान
- काग के भाग को का कहिये , हरि हाथ सो ले गयो माखन रोटी । -- रसखान
- मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकुल गांव के ग्वारन । -- रसखान
- ' जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का । वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र हैं । -- आचार्य शुक्ल
- रचि महेश निज मानस राखा पाई सुसमय शिवासन भाखा । -- तुलसीदास
- मंगल भवन अमंगल हारी द्रवहु सुदशरथ अजिर बिहारी । -- तुलसीदास
- सबहिं नचावत राम गोसाईं हि नचावत तुलसी गोसाई । -- फादर कामिल बुल्के
- हे खग, हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तुने देखी सीता मृगनयनी । -- तुलसीदास
- पूजिए विप्र शील गण हीना . शूद्र न गण गन ज्ञान प्रवीना । -- तुलसीदास
- छिति,जल , पावक , गगन , समीरा । -- तुलसीदास
- कत विधि सृजी नारी जग माहीं , पराधीन सपनेहु सुख नाहीं । -- तुलसीदास
- गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग । ( कवितावली ) -- तुलसीदास
- गुपुत रहहु , कोऊ लखय न पावे , परगट भये कछ हाथ आवे ।
- गुपुत रहे तेई जाई पहुँचे , परगट नीचे गए विगुचे ॥ -- उसमान
- पहले प्रीत गुरु से कीजै , प्रेम बाट में तब पग दीजै । -- उसमान
- रवि ससि नखत दियहि ओहि जोती, रतन पदारथ माणिक मोती ।
- जहँ तहँ विहसि सुभावहि हँसी, तहँ जहँ छिटकी जोति परगसी ॥ -- जायसी
- बसहि पक्षी बोलहि बहुभाखा , करहि हुलास देखिके शाखा । -- जायसी
- तन चितउर , मन राजा कीन्हा ।
- हिय सिंघल , बुधि पदमिनी चीन्हा ॥
- गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा ।
- बिनु गुरु जगत को निरगुण पावा ॥
- नागमती यह दुनिया धंधा ।
- बांचा सोई न एहि चित्त बंधा ॥
- राघव दूत सोई सैतान ।
- माया अलाउदी सुल्तान ॥ -- जायसी
- जहाँ न राति न दिवस है , जहाँ न पौन न घरानि ।
- तेहि वन होई सुअरा बसा , को रे मिलावे आनि ॥ -- जायसी
- मानुस प्रेम भएउँ बैकुंठी नाहि त काह छार भरि मूठि -- जायसी
- : प्रेम ही मनुष्य के जीवन का चरम मूल्य है , जिसे पाकर मनुष्य बैकुंठी हो जाता है , अन्यथा वह एक मुट्ठी राख नहीं तो और क्या है ? )
- छार उठाइ लीन्हि एक मुठी . दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी । -- जायसी
- सोलह सहस्त्र पीर तनु एकै , राधा जीव सब देह । -- सूरदास
- पुख नछत्र सिर ऊपर आवा ।
- हौं बिनु नाँह मंदिर को छावा ।
- बरिसै मघा अँकोरि सँकोरि ।
- मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी । -- जायसी
- पिउ सो कहहू संदेसड़ा हे भौंरा हे काग ।
- सो धनि बिरहें जरि मुई तेहिक धुंआ हम लाग ॥ -- जायसी
- जसोदा हरि पालने झुलावे ।
- सोवत जानि मौन है रहि करि करि सैन बतावे ।
- इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि , जसुमती मधुरै गावे । -- सूरदास
- सिखवत चलत जसोदा मैया अरबराय करि पानि गहावत डगमगाय धरनी धरि पैंया । -- सूरदास
- मैया हौं न चरैहों गाय । -- सूरदास
- मैया री मोहिं माखन भावे । -- सूरदास
- मैया कबहि बढेगी चोटी। -- सूरदास
- अखिल विश्व यह मोर उपाया सब पर मोहि बराबर माया । -- तुलसीदास
- काह कहीं छवि आजुकि भले बने हो नाथ ।
- तुलसी मस्तक तव नवै धरो धनुष शर हाथ ॥ -- तुलसीदास
- सब मम प्रिय सब मम उपजायेगा सबते अधिक मनुज मोहिं भावे । -- तुलसीदास
- मेरी न जात पाँत , न चहौ काहू की जात-पाँत । ---तुलसीदास
- सुन रे मानुष भाई ,
- सबार ऊपर मानुष सत्य ताहार ऊपर किछ नाई । -- चण्डी दास
- बड़ा भाग मानुष तन पावा ,
- सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा । -- तुलसीदास ।
- हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है । यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं । ---रामचन्द्र शुक्ल
- जनकसुता , जगजननि जानकी । अतिसय प्रिय करुणानिधान की । -- तुलसीदास
- तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही । -- तुलसीदास
- अंसुवन जल सींचि-सींचि , प्रेम बेल बोई । -- मीरा
- सावन माँ उमग्यो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री । -- मीरा
- घायलं की गति घायल जानै और न जानै कोई । -- मीरा
- मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं ,
- गुंज की माल गरे पहिरौंगी ।
- ओढ़ि पिताबंर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी ।
- भावतो सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी ।
- या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी । -- रसखान
- जब जब होइ धरम की हानी ।
- बढहिं असुर महा अभिमानी ॥
- तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा ।
- हरहिं सकल सज्जन भवपीरा ॥ -- तुलसीदास
- समूचे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अकेला साहित्य है । इसी का नाम भक्ति साहित्य है । यह एक नई दुनिया है । -- हजारी प्रसाद द्विवेदी
- जब मैं था तब हरि नहीं ,
- अब हरि हैं मैं नाहिं ।
- प्रेम गली अती सांकरी ,
- ता में दो न समाहि ॥ -- कबीरदास
- मो सम कौन कुटिल खल कामी । -- सूरदास
- भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो । -- सूरदास
- धुनि ग्रमे उत्पन्नो , दादू योगेंद्रा महामुनि । ---रज्जब
- सब ते भले विमूढ़ जन , जिन्हें न व्यापै जगत गति । -- तुलसीदास
- संत हृदय नवनीत समाना । -- तुलसीदास
- रामझरोखे बैठ के जग का मुजरा देख । -- कबीरदास
- निर्गुण रूप सुलभ अति , सगुन जान नहिं कोई ।
- सुगम अगम नाना चरित , सुनि मुनि-मन भ्रम होई ॥ ---तुलसीदास
- स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥ -- तुलसीदास
- दीरघ दोहा अरथ के , आखर थोरे मांहि ।
- ज्यों रहीम नटकुंडली , सिमिट कूदि चलि जांहि ॥ -- रहीम
- प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहिं पइए । -- सूरदास
- तब लग ही जीबो भला देबौ होय न धीम ।
- जन में रहिबो कुंचित गति उचित न होय रहीम ॥ -- रहीम
- सेस महेस गनेस दिनेस ,
- सुरेसहुँ जाहि निरंतर गावैं ।
- जाहिं अनादि अनन्त अखंड ,
- अछेद अभेद सुबेद बतावैं ॥ -- रसखान
- बहु बीती थोरी रही , सोऊ बीती जाय ।
- हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि बृंदावन आय ॥ -- ध्रुवदास
- वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत ।
- भावार्थ
- जिस तरह दिन में उल्लू संपत्ति की ओर नहीं ताकते उसी तरह राम अन्य स्त्रियों की तरफ नहीं देखते । -- केशवदास
- आगे के कवि रीझिहें , तो कविताई ,
- न तौ राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है ।
- भावार्थ आगे के कवि रीझें तो कविता है अन्यथा राधा-कृष्ण क स्मरण का बहाना ही सही । -- भिखारी दास
- जान्यौ चहै जु थोरे ही , रस कविता को बंस ।
- तिन्ह रसिकन के हेतु यह , कान्हों रस सारंस ॥ -- भिखारी दास
- काव्य की रीति सिखी सुकवीन सों ।
- ( मैने काव्य की रीति कवियों से ही सीखी है । ) -- भिखारीदास
- तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार । -- भिखारीदास
- रीति सुभाषा कवित की बरनत बुधि अनुसार । -- चिन्तामणि
- अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि-रीति । -- देव
- पुष्टिमार्ग का जहाज जात है सो जाको कछु लेना लेउ । -- विट्ठलदास
- हरि है राजनीति पढि आए । -- सूरदास
- अजगर करे न चाकरी , पंछी करे न काम ।
- दास मलूका कह गए , सबके दाता राम ॥ -- मलूकदास
- हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी , केस जरै ज्यों घास ।
- सब जग जलता देख , भया कबीर उदास ॥ -- कबीरदास
- विक्रम धंसा प्रेम का बारा , सपनावती कहँ गयऊ पतारा । -- मंझन
- कब घर में बैठे रहे , नाहिंन हाट बाजार ,
- मधुमालती , मृगावती पोथी दोउ उचार । -- बनारसी दास
- मुझको क्या तू ढूँढे बंदे , मैं तो तेरे पास रे । -- कबीरदास
- रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई, कुलवंती सत सो सति भई । -- कुतबन
- बलंदीप देखा अँगरेजा , तहाँजाई जेहि कठिन करेजा । -- उसमान
- यह सिर नवे न राम कू , नाहीं गिरियो टूट ।
- आन देव नहिं परसिये , यह तन जायो छूट ॥ -- चरनदास
- सुरतिय , नरतिय , नागतिय , सब चाहत अस होय ।
- गोद लिए हुलसी फिरै , तुलसी सो सुत होय ॥ -- रहीम
- मो मन गिरिधर छवि पै अटक्यो ।
- ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै , चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो। -- कृष्णदास
- कहा करौ बैकुंठहि जाय जहाँ नहिं नंद , जहाँ न जसोदा , नहिं जहँ गोपी , ग्वाल न गाय । -- परमानंद दास
- बसो मेरे नैनन में नंदलाल,
- मोहनि मूरत , साँवरि सूरत , नैना बने रसाल । -- मीरा
- लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल । -- होलराय
- साखी सबद दोहरा , कहि कहिनी उपखान ।
- भगति निरूपहिं निंदहि बेद पुरान ॥ -- तुलसीदास
- माता पिता जग जाइ तज्यो ।
- विधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाई । -- तुलसीदास
- निर्गुण ब्रह्म को कियो समाधु तब ही चले कबीरा साधु । -- दादू
- अपना मस्तक काटिकै बीर हुआ कबीर । -- दादू
- सो जागी जाके मन में मुद्रा / रात-दिवस ना करई निद्रा । -- कबीरदास
- काहे री नलिनी तू कुम्हलानी / तेरे ही नालि सरोवर पानी । -- कबीरदास
- कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो । -- नाभादास
- युक्ति सराही मुक्ति हेतु , मुक्ति भुक्ति को धाम ।
- युक्ति, मक्ति और भुक्ति को मूल सो कहिये काम ॥ -- देव
- दृग अरूझत ,टूटत कुटुम्ब ,जुरत चतुर चित प्रीति ।
- पडति गांठ दुर्जन हिये दई नई यह रीति ॥ -- बिहारी लाल
- फागु के भीर अभीरन में गहि,
- गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
- भाई करी मन की पद्माकर ,
- ऊपर नाहिं अबीर की झोरी ।
- छीनी पितंबर कम्मर ते सु,
- विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी,
- नैन नचाय कही मुसकाय ,
- लला फिर आइयो खेलन होरी ' । -- पद्माकर
- आँखिन मूंदिबै के मिस ,
- आनि अचानक पीठि उरोज लगावै । -- चिंतामणि
- मानस की जात सभै एकै पहिचानबो । -- गुरु गोविंद सिंह
- अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणा लीन अधम व्यंजना रस विरस , उलटी कहत प्रवीन । -- देव
- अमिय , हलाहल , मदभरे , सेत , स्याम , रतनार ।
- जियत , मरत , झुकि-झुकि परत , जेहि चितवत एक बार ॥ -- रसलीन
- भले बुरे सम , जौ लौ बोलत नाहिं जानि परत है काक पिक , ऋत बसंत के माहि । -- वृन्द
- कनक छुरी सी कामिनी काहे को कटि छीन । -- आलम
- नेहीं महा ब्रजभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै । -- ब्रजनाथ
- एक सुभान कै आनन पै करबान जहाँ लगि रूप जहाँ को । -- बोधा
- आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के,
- गाज ते दराज कौन नजर तिहारी है । -- चन्द्रशेखर
- देखे मुख भावै अनदेखे कमल चंद ति मुख मुरझे कमला न चंद । -- केशवदास
- रोवहु सब मिलि , आवहु ' भारत भाई ।
- पानी हा ! हा ! भारत-दुर्दशा न देखी जाई ॥ -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जल बल नासी ।
- जिन भय सिर न हिलाय सकत कहुँ भारतवासी ॥ -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- यह जीय धरकत यह न होई कहूं कोउ सुनि लेई ।
- कछु दोष दै मारहिं और रोवन न दइहिं ॥ -- प्रताप नारायण मिश्र
- अमिय की कटोरिया सी चिरजीवी रहो विक्टोरिया रानी । -- अंबिका दत्त व्यास
- अँगरेज-राज सुख साज सजे सब भारी ।
- पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी ॥ -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- भीतर-भीतर सब रस चसै, हँसि-हँसि के तन-मन-धन मूसै ।
- जाहिर बातन में अति तेज, : क्यों सखि सज्जन ! नही अंगरेज । -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- सब गुरुजन को बुरा बतावै ,
- अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
- भीतर तत्व न , झूठी तेजी ,
- क्यों सखि साजन नहिं अंगरेजी । -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- सर्वसु लिए जात अँगरेज ,
- हम केवल लेक्चर के तेज । -- प्रताप नारायण मिश्र
- अभी देखिये क्या दशा देश की हो ,
- बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे । -- प्रताप नारायण मिश्र
- हाँ , वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है ,
- ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है ?
- भारत-भारती ' -- मैथिली शरण गुप्त
- देशभक्त वीरों , मरने से नेक नहीं डरना होगा ।
- पर प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा । -- नाथूराम शर्मा शंकर
- धरती हिलाकर नींद भगा दे ।
- वज्रनाद से व्योम जगा दे ।
- दैव , और कुछ लाग लगा दे । -- मैथिली शरण गुप्त ( स्वदेश-संगीत )
- जिसको नहीं गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
- वह नर नहीं नरपशु निरा है , और मृतक समान है ॥ -- मैथिलीशरण गुप्त
- वन्दनीय वह देश जहाँ के देशी निज अभिमानी हों ।
- बांधवता में बँधे परस्पर परता के अज्ञानी हों ॥ -- श्रीधर पाठक
- पराधीन रहकर अपना सुख शोक न कह सकता है
- यह अपमान जगत में केवल पशु ही सह सकता है ॥ -- राम नरेश त्रिपाठी
- सखि , वे मुझसे कहकर जाते । ( ' यशोधरा ' ) -- मैथिली शरण गुप्त
- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
- आँचल में है दूध और आँखों में पानी । ( ' यशोधरा ' ) -- मैथिली शरण गुप्त
- नारी पर नर का कितना अत्याचार है ।
- लगता है विद्रोह मात्र ही अब उसका प्रतिकार है ॥ -- मैथिली शरण गुप्त
- राम तुम मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?
- विश्व में रमे हुए सब कहीं नहीं हो क्या ? -- मैथिलीशरण गुप्त
- साहित्य समाज का दर्पण है । -- महावीर प्रसाद द्विवेदी
- केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए । उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए । -- मैथिली शरण गुप्त
- अधिकार खोकर बैठना यह महा दुष्कर्म है ।
- न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है । -- मैथिली शरण गुप्त
- अन्न नहीं है वस्त्र नहीं है रहने का न ठिकाना ,
- कोई नहीं किसी का साथी अपना और बिगाना । -- रामनरेश त्रिपाठी
- हिन्दू मुस्लिम जैन पारसी इसाई सब जात ।
- सुखी होय भरे प्रेमधन सकल ' भारती भ्रात ' । -- बदरी नारायण चौधरी ' प्रेमघन '
- कौन करेजो नहिं कसकत ,
- विपत्ति बाल विधवन की । -- प्रताप नारायण मिश्र
- बहुत फैलाये धर्म , बढाया छुआछूत का कर्म । -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- सभी धर्म में वही सत्य , सिद्धांत न और विचारो । -- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
- परदेसी की बुद्धि और वस्तुन की कर आस ।
- परवस कै कबलौ कहौं रहिहों तुम वै दास ॥ -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- तबहि लख्यौ जहँ रहयो एक दिन कंचन बरसत ।
- तहँ चौथाई जन रुखी रोटिहुँ को तरसत ॥ -- प्रताप नारायण मिश्र
- सखा पियारे कृष्ण के गुलाम राधा रानी के । -- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
- साँझ सवेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है ।
- हम सब इक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार बसेरा है । -- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
- समस्या -- आँखियाँ दुखिया नहीं मानति हैं ।
- समस्या पूर्ति -- यह संग में लागिये डोले सदा बिन देखे न धीरज आनति प्रिय प्यारे तिहारे बिना आँखियाँ दुखिया नहीं मानति हैं । -- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
- निज भाषा उन्नति अहै . सब उन्नति को मूल ।
- बिनु निज भाषा ज्ञान के , मिटत न हिय को शूल ॥ -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- पढेि कमाय कीन्हों कहा , हरे देश कलेस ।
- जैसे कन्ता घर रहै , तैसे रहे विदेस ॥ -- प्रताप नारायण मिश्र
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी साहित्य को एक नये मार्ग पर खड़ा किया ।के नये युग के प्रवर्तक हुए । -- रामचन्द्र शुक्ल
- इन मुसलमान जनन पर कोटिन हिंदू बारहि । -- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
- अहा , ग्राम्य जीवन भी क्या है , क्यों न इसे सबका मन चाहे । -- मैथिली शरण गुप्त
- खरीफ के खेतों में जब सुनसान है ,
- रब्बी के ऊपर किसान का ध्यान है । -- श्रीधर पाठक
- विजन वन-प्रांत था , प्रकृति मुख शांत था ,
- अटन का समय था , रजनि का उदय था । -- श्रीधर पाठक
- लख अपार-प्रसार गिरीन्द में ।
- ब्रज धराधिप के प्रिय-पुत्र का ।
- सकल लोग लगे कहने ,
- उसे रख लिया है उँगली पर श्याम ने । -- ' हरिऔध ' ( ' प्रियप्रवास ' )
- संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया ,
- इस धरती को ही स्वर्ग बनाने आया ।
- इसके ( ' साकेत ' ) -- मैथिली शरण गुप्त
- मैं आया उनके हेतु कि जो शापित हैं ,
- जो विवश , बलहीन दीन शापित है। -- मैथिलीशरण गुप्त ( ' साकेत ' में राम की उक्ति )
- हम राज्य लिये मरते हैं । -- मैथिलीशरण गुप्त
- मैंने मैं शैली अपनाई देखा एक दुःखी निज भाई । -- निराला
- व्यर्थ हो गया जीवन मैं रण में गया हार । -- निराला
- धन्ये , मैं पिता निरर्थक था ,
- कुछ भी तेरे हित न कर सका ।
- जाना तो अर्थागमोपाय ,
- पर रहा सदा संकुचित काय,
- लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर,
- हारता रहा मैं स्वार्थ समर । -- निराला
- छोटे से घर की लघु सीमा में,
- बंधे है क्षुद्र भाव ,
- यह सच है प्रिय,
- प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है ,
- सदा ही निःसीम भू पर । -- निराला
- ताल-ताल से रे सदियों के जकड़े हृदय कपाट खोल दे कर-कर कठिन प्रहार आए अभ्यन्तर संयत चरणों से नव्य विराट करे दर्शन पाये आभार । -- निराला
- हाँ सखि ! आओ बाँह खोलकर हम,
- लगकर गले जुड़ा ले प्राण फिर तुम तम में , मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्धान । -- सुमित्रानंदन पंत
- बीती विभावरी जाग री !
- अम्बर-पनघट में डूबो रही,
- तारा-घट-ऊषा-नागरी । -- जयशंकर प्रसाद
- दिवसावसान का समय ,
- मेघमय आसमान से उतर रही है ।
- वह संध्या सुंदरी परी-सी धीरे-धीरे- धीरे । -- निराला
- छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
- तोड़ प्रकृति से भी माया ,
- बाले तेरे बाल-जाल में। -- सुमित्रानंदन पंत
- विजन-वन-वल्लरी पर ,
- सोती थी सुहाग भरी,
- स्नेह-स्वप्न-मग्न-अमल-कोमल तन तरूणी, -- निराला
- खुल गये छंद के बंध प्रास के रजत पाश । -- सुमित्रानंदन पंत
- मुक्त छंद महज प्रकाशन वह मन का सिर निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र । -- निराला
- तमूल कोलाहल में मिला _ _ _ मैं हृदय की बात रे मन । -- जयशंकर प्रसाद
- प्रथम रश्मि का आना रंगिणि ! तूने कैसे पहचाना ? -- सुमित्रानंदन पंत
- जो घनीभूत पीड़ा थी की हर किया मस्तक में स्मृति-सी छाई , दुर्दिन में आँसू बनकर तालाब के मन वह आज बरसने आई । -- जयशंकर प्रसाद
- बाँधो न नाव इस ठाँव , बधु पूछेगा सारा गाँव , बंधु ! -- निराला
- हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन ।
- जब विषण्ण निर्जीव पडा हो जग का जीवन । -- सुमित्रानंदन पंत
- प्रसाद पढाने योग्य है निराला पढे जाने योग्य है और पतजी से काव्यभाषा सीखने योग्य है । ---अज्ञेय
- छायावादी कविता का गौरव अक्षय है उसकी समृद्धि की । कवल भक्ति काव्य ही कर सकता है ' । ---डॉ० नगेन्द्र
- निराला से बढकर स्वच्छंदतावादी कवि हिन्दी में नहीं है । -- हजारी प्रसाद द्विवेदी
- मै मजदूर हूँ , मजदरी किए बिना मुझे भोजन करने का अधिकार नहीं। -- प्रेमचंद
- नील परिधान बीच सुकुमारास खुल रहा मृदुल अधखुला अंग भक खिला हो ज्यों बिजली का फूल माला मेघ बीच गुलाबी रंग । -- जयशंकर प्रसाद
- तोड़ दो यह झितिज , मैं भी देख लूं उस ओर क्या है ?
- जा रहे जिस पंथ से युग कल्प , उसका छोर क्या है ? -- महादेवी वर्मा
- स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
- चकित रहता शिश सा नादान ,
- विश्व के पलकों पर सुकुमार,
- विचरते हैं स्वप्न अजान !
- न जाने , नक्षत्रों से कौन ?
- निमंत्रण देता मुझको मौन ! ! -- सुमित्रानंदन पंत ( ' मौन निमंत्रण ' )
- हिमालय के आंगन में जिसे प्रथम किरणों का दे उपहार । -- जयशंकर प्रसाद
- राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सम्मुख एक वृहत सांस्कृतिक समस्या जग के निकट उपस्थित। -- सुमित्रानंदन पंत
- छोड़ो मत ये सुख का कण है । -- जयशंकर प्रसाद
- आह ! वेदना मिली विदाई । -- जयशंकर प्रसाद
- अरुण यह मधुमय देश हमारा ।
- जहाँ पहुँच अनजान झितिज को मिलता एक सहारा । -- जयशंकर प्रसाद
- हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
- स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती,
- अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो ,
- प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो , बढ़े चलो । -- सुमित्रानंदन पंत
- भारत माता ग्रामवासिनी । ---सुमित्रानंदन पंत
- मार हथौड़ा कर-कर चोट ,
- लाल हुए काले लोहे को ,
- जैसा चाहे वैसा मोड़ । -- केदार नाथ अग्रवाल
- घुन खाए शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बाँचे,
- फटी भीत है , छत चूती है , आले पर विसतुइया नाचे ,
- बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पाँच तमाचे,
- दुखरन मास्टर गढ़ते रहते किसी तरह आदम के साँचे । -- नागार्जुन
- बापू के भी ताऊ निकले,
- तीनों बंदर बापू के,
- सरल सूत्र उलझाऊ निकले
- तीनों बंदर बापू के । -- नागाजुन
- काटो-काटो-काटो करवीर,
- साइत और कुसाइत क्या है ?
- मारो- मारो-मारो-हंसिया,
- हिंसा और अहिंसा क्या है ?
- जीवन से बढ़ हिंसा क्या है । -- केदार नाथ अग्रवाल
- भारत माता ग्रामवासिनी । -- सुमित्रानंदन पंत
- एक बीते के बराबर यह हरा ठिंगना चना ,
- बाँधे मुरैठा शीश पर छोटे गुलाबी फूल,
- सजकर खड़ा है । -- केदार नाथ अग्रवाल
- हवा हूँ , हवा हूँ मैं वसंती हवा हूँ । -- केदार नाथ अग्रवाल
- तेज धार का कर्मठ पानी ,
- चट्टानों के ऊपर चढ़कर ,
- मार रहा है चूंसे कसकर तोड़ रहा है तट चट्टानी । -- केदार नाथ अग्रवाल
- मझे जगत जीवन का प्रेमी लाट बना रहा है प्यार तुम्हारा । -- त्रिलोचन
- खेत हमारे , भूमि हमारी सारा देश हमारा है बाजार
- इसलिए तो हमको इसका म चप्पा-चप्पा प्यारा है । -- नागार्जुन
- झुका यूनियन जैक,
- तिरंगा फिर ऊँचा लहरायाला ,
- बांध तोड़ कर देखो कैसे जन समूह लहराया । -- राम विलास शर्मा
- कन्हाई ने प्यार किया ,
- कितनी गोपियों को कितनी बार ,
- पर उड़ेलते रहे अपना सदा एक रूप पर ,
- जिसे कभी पाया नहीं ।
- जो किसी रूप में समाया नहीं ,
- का यदि किसी प्रेयसी में उसे पा लिया होता , तो फिर दूसरे को प्यार क्यों करता । -- अज्ञेय
- किन्तु हम है द्वीप हम धारा नहीं हैं ।
- स्थिर समर्पण है हमारा ।
- द्वीप हैं हम । -- अजेय
- हम तो ' सारा-का-सारा ' लेंगे जीवन ' कम-से-कम ' वाली बात न हमसे कहिए । -- रघुवीर सहाय
- मौन भी अभिव्यंजना है . . . जितना तुम्हारा सच है ,
- उतना ही कहो मिति तम व्याप नहीं सकते महामारी तुममें जो व्यापा है उसे ही निबाहो । -- अज्ञेय
- जी हाँ , हुजूर , मैं गीत बेचता हूँ । म पनि तिल मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ मैं किसिम-किसिम के मालिक गीत बेचता हूँ । -- भवानी प्रसाद मिश्र
- हम सब बौने हैं ,
- मन से , मस्तिष्क से गिर भावना से , चेतना से भी बुद्धि से
- विवेक से भी क्योकि हम जन हाफोर-साधारण हैं हम नहीं विशिष्ट । -- गिरजा कुमार माथुर
- मैं प्रस्तुत हूँ .-एक यह क्षण भी कहीं न खो जाय । अभिमान नाम का , पद का भी तो होता है । -- कीर्ति चौधरी
- कुछ होगा , कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा ज ल न टूटे , न टूटे तिलिस्म सत्ता काम मेरे अंदर एक कायर टूटेगा , टूट् । -- रघुवीर सहाय
- जो कुछ है , उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए जो मैं हो नहीं सकता । -- मुक्तिबोध
- भागता मैं दम छोड़ ,
- घूम गया कयी मोड । -- मुक्तिबोध
- दुखों के दागों को तमगा सा पहना। -- मुक्तिबोध
- कहीं आग लग गयी ,
- कहीं गोली चल गयी । -- मुक्तिबोध
- जिंदगी , दो उंगलियों में दबी सस्ती सिगरेट के जलते हुए टुकड़े की तरह है । जिसे कुछ लम्हों में पीकर गली में फेंक दूंगा । -- नरेश मेहता
- मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेक मतदार इतिहासों की सामूहिक गतिमा कामही सहसा झूठी पड़ जाने पर क्या जाने सच्चाई टूटे हुए पहिये का आश्रय ले । -- धर्मवीर भारती
- इस कौम की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है। -- हरिशंकर परसाई
- न्याय को अंधा कहा गया है। मैं समझता हूँ कि न्याय अंधा नहीं काणा है, वह एक ही तरफ देख पाता है। -- हरिशंकर परसाई