शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय (15 सितम्बर 1876 – 16 जनवरी 1938) बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार तथा कथाकार थे।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- प्रेम सब कुछ जानता है।
- रुपया-पैसा कमाना और उन्नति करना दोनों एक नहीं हैं। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- पाप छिपाने से और बढ़ता है। ( बिराज बहू )
- नशेबाज सब कुछ सहन कर सकता है, लेकिन अपनी बुद्धि भ्रष्ट हो जाने की बात सहन नहीं कर सकता। ( बिराज बहू )
- उसकी आंखों के आगे ऐसा अन्धकार छा गया जैसे तेज बिजली के चमक जाने से आंखें चौंधिया गई हों। ( बिराज बहू )
- केंचुल से तो खेला जा सकता है, लेकिन जमींदार के लड़के के लिए भी जीवित विषधर खेलने की चीज नहीं। ( बिराज बहू )
- अपना कर्तव्य करने से पहले दूसरों के कर्तव्यों की आलोचना करना पाप है। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- बर्छे से बेधकर मारा जाने वाला नाग बार-बार बर्छे को ही डसता है और थक कर उसी की ओर देखता रह जाता है। ( बिराज बहू )
- पाठशाला का एक भी छात्र सचमुच आदमी बन जाए तो वह अकेला ही इन तीस करोड़ आदमियों का उद्धार कर सकता है। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- पोंछकर आई थी, लेकिन उनका रुंधा गला छिपा न रह सका। ( पथ के दावेदार )
- दुनिया में प्रायः ही देखा जाता है—किसी सामान्य कारण से ही गुरुतर अनिष्ट की उत्पत्ति होती है। शूर्पणखा का किंचित् चित्तचांचल्य ही सोने की लंका ध्वंस होने का हेतु बना। छोटी सी रूप-लालसा के लिए ट्रॉय नगर ध्वस्त हो गया। महानुभाव, राजा हरिश्चंद्र सामान्य कारण से ही ऐसे विपत्ति ग्रस्त हुए कि संसार में वैसा दृष्टांत दूसरा नहीं ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- गिरींद्र बाबू की भाँति सत्य पुरुष होना कठिन है। जब मैंने उनसे अपनी बातें बताईं तो उन्होंने मेरे कहने पर विश्वास कर लिया। उन्होंने समझ लिया कि मैं ‘परिणीता’ हूँ। मेरे पतिदेव इस संसार में मौजूद अवश्य हैं, पर मुझे अपनाएँ या न अपनाएँ, यह उनकी अपनी इच्छा है। ( परिणीता )
- ललिता ज्योंही पास आकर बैठी त्योंही गुरुचरण उसके सिर पर हाथ रखकर कह उठे-अपने गरीब दुखिया मामा के घर आकर तुझे दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है, क्यों न वेटी? ललिता ने सिर हिलाकर कहा- दिन-रात मेहनत क्यों करनी पडती है मामा? सभी काम करते हैं, मैं भी करती हूँ।- अबकी गुरुचरण हँसे। उन्होंने चाय पीते-पीते कहा-हां ललिता, तो फिर आज रसोई वगैरह का क्या इंतजाम होगा? ललिता ने मामा की ओर देखकर कहा- क्यों मामा, मैं रसोई बनाऊँगी। गुरुचरण ने विस्मय प्रकट करते हुए कहा- तू क्या करेगी बेटी, तू क्या रसोई बनाना जानती है? ( परिणीता )
- सूर्यलोक की तरह परिष्कृत और स्फटिक की तरह स्वच्छ वस्तु लोकग्राह्य नहीं हुई—क्यों यह सहज-प्रांजल भाषा संसार के लोग नहीं समझ पाते? ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- पति की जीवित हालत में उन्होंने बिना किसी भय के पच्चीस वर्ष तक अकेले घर-गृहस्थी की है, उसकी मृत्यु तो किसी तरह सही जा सकती है, पर उसका मृत शरीर इस अंधकारपूर्ण रात्रि में पाँच मिनट के लिए भी उनसे बरदाश्त नहीं होगा। छाती अगर किसी बात से फटती है तो वह अपने मृत पति के पास अकेले बैठे रहने से! ( शरतचंद्र की लोकप्रिय कहानियाँ )
- मनुष्य जिसे पा नहीं सकता, वही वस्तु उसकी अत्यंत प्रिय सामग्री होकर खड़ी रहती है। मनुष्य का चरित्र ऐसा ही है। तुम अशांति में हो, शांति ढूँढ़ने को घूम रहे हो—मैं शांति भोग रहा हूँ तो भी कहीं से जैसे अशांति को खींच लाया करता हूँ। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- फल को ग्रहण करना जैसे मनुष्य का स्वभाव सिद्ध भाव है। जो मछली भाग जाती है, क्या वही बड़ी होती है? ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- वह मछली जो भाग गई। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- क्रोध, अभिमान, लज्जा और अवश्यंभावी अपमान की आशंका से उसकी आँखों में आँसू भर आए। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- मैं कोई जानवर हूँ कि अकल की अपेक्षा गुस्सा कहीं अधिक है। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- स्त्री जाति लज्जा और संकोच की मूर्ति है, इस प्रकार की बातों को वह कभी दूसरों पर नहीं प्रकट करती। नारी की छाती फटकर टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो जाए, पर उसकी जुबान नहीं हिलती। ( परिणीता )
- औरतों के हृदय की कमजोरी, लज्जा तथा शील के लिए उस विधाता को बारंबार धन्यवाद। ( परिणीता )
- हृदय में घृणा भर जाने पर मनुष्य मनचाहा काम करने का अधिकारी होता है। ( परिणीता )
- दुःख चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे बरदाश्त करने में ही मनुष्यत्व है। ईश्वर यह कभी नहीं चाहता कि मनुष्य अक्षय होकर संसार छोड़ दे। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )
- क्या तुम सचमुच ही अपने उज्ज्वल भविष्य को तिलांजलि देकर अपना सारा जीवन इस पाठशाला में ही गुजार दोगे?’ ‘आखिर, ब्राह्मण-कार्य तो विद्यादान ही है, कहीं बैठकर करे। ( चन्द्रनाथ - बैरागो )