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विद्यापति

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विद्यापति मैथिली के महान क्वि थे। उन्हें हिन्दी साहित्य के आदिकल का कवि माना जाता है। उनकी भाषा के माधुर्य को देखते हुए उन्हें 'कविकोकिल' कहा जाता है।

उक्तियाँ

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  • संसार में सबसे दयनीय कौन है? सिर्फ वही जो धनवान होकर भी कंजूस है।
  • आध बदन ससि विहँसि देखावलि आध पिहिलि निज बाहू।
कछु एक भाग बलाहक झाँपल किछुक गरासल राहू॥ -- पदावली
नायिका ने अपना चेहरा हाथ से छिपा रखा है। कवि कहता है कि उसका चंद्रमुख आधा छिपा है और आधा दिख रहा है। ऐसा लगता है मानो चंद्रमा के एक भाग को बादल ने ढँक रखा है और आधा दिख रहा है।
  • बालचंद्र विज्जवि भाषा। दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा॥
जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते।
  • सैसव जौवन दुहु मिलि गेल। स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल॥
वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिये चाँद कएल परगास॥
मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखि पूछइ कइसे सुरत-बिहार॥
निरजन उरज हेरइ कत बेरि। बिहँसइ अपन पयोधर हेरि॥
पहिलें बदरि-सम पुन नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग॥
माधव पेखल अपरुब बाला। सैसव जौवन दुहु एक भेला॥
विद्यापति कह तोहें अगेआनि। दुहु एक जोग इह के कह सयानि॥
शैशव और युवावस्‍था—दोनों का मि‍लन हुआ है। आँखों के दोनों बाहरी कोर कुछ तीक्ष्‍ण और कानों की ओर अग्रसर लग रहे हैं। (अर्थात् कटाक्ष की भंगि‍मा दि‍खने लगी है।) बात करने की शैली में एक चातुर्य आ गया है, वह रह-रहकर मन्‍द-मन्‍द मुस्‍काने लगी है। रूप ऐसा नि‍खर उठा है कि‍ धरती पर चन्‍द्रमा के प्रकाश उतर आने जैसा लगने लगा है। हाथ में आइना लेकर वरवक्‍त शृंगार में लि‍प्‍त रहने लगी है। सयानी सखि‍यों से काम-क्रीड़ा (सुरत-बि‍हार) के बारे में पूछने लगी है। एकान्‍त और नि‍र्जन पाकर बार-बार अपने उभरते उरोजों को नि‍हारने लगी है। अपने ही वक्षों को, जो पहले बेर के आकार के छोटे-छोटे थे, फि‍र बढ़कर नारंगी के आकार के हुए, उन्‍हें देख-देख खुद ही बि‍हुँसने लगी है। तरुणाई से इस तरह सम्‍पन्‍न हुई नायि‍का के पूरे व्‍यक्‍ति‍त्‍व पर कामदेव (अनंग) ने बसेरा कर रखा है। शैशव-यौवन के मि‍लन से नि‍खरे रूप वाली नायि‍का का यह स्‍वरूप नायक कृष्‍ण को अपूर्व लगता है। कवि‍ वि‍द्यापति‍ नायि‍का से कहते हैं—हे सुन्‍दरी! तुम अज्ञानी हो, इस तरह दो अवस्‍थाओं के मि‍लन से ही नायि‍का सयानी होती है।<ref>महाकवि विद्यापति-१

विद्यापति के बारे में सुविचार

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सन्दर्भ

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