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वृक्ष

विकिसूक्ति से
(वन से अनुप्रेषित)
  • पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः
परोपकाराय सतां विभूतयः॥ (सुभाषितरनभाण्डागरम्)
अर्थ : नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीती हैं। पेड़ फल खुद नहीं खाते हैं। बादल भी फसल नहीं खाते हैं। उसी प्रकार सज्जनों की सम्पत्ति परोपकार के लिए होती है।
  • तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कह रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान॥ (रहीम)
अर्थ: रहीम कहते हैं कि वृक्ष कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते। उसी तरह सज्जन लोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
  • नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्क काष्ठश्च मूर्खश्च, न नमन्ति कदाचन्॥
अर्थ : फलदार वृक्ष झुक जाते हैं और गुणी जन झुकते हैं। परन्तु सूखी लकड़ी और मूर्ख लोग कभी नहीं झुकते।
  • अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दश पुष्पजातीः।
द्वे द्वे तथा दाडिममातुलिङ्गे पञ्चाम्ररोपी नरकं न याति॥ -- वाराहपुराण / विष्णुधर्मोत्तरपुराण
जो व्यक्ति जो एक पीपल, एक नीम, एक बरगद, दस फूलवाले पौधो अथवा लताएं, दो अनार, दो नारंगी और पांच आम के वृक्ष लगाता है, वह नरक में नहीं जाता है।
  • अश्वत्थमेकं पिचुमर्दमेकं न्यग्रोधमेकं दश चिञ्चिणीकाः ।
कपित्थबिल्वामलकत्रयञ्च पञ्चाम्ररोपी नरकं न पश्येत् ॥ -- स्कन्दपुराण, नागरखण्ड / भविष्यपुराण, उत्तरपर्व / शार्ङ्गधर, उपवनविनोदः
जो मनुष्य एक पीपल, एक नीम, एक वट, दस इमली, कैथ_बिल्व_आँवला तीनों या पाँच आम के वृक्ष लगाता है उसे कभी नरक के दर्शन नहीं होते ।
  • छायां ददाति शशिचन्दनशीतलां यः सौगन्धवन्ति सुमनांसि मनोहराणि ।
स्वादूनि सुन्दरफलानि च पादपं तं छिन्दन्ति जाङ्गलजना अकृतज्ञता हा ॥
जो वृक्ष चन्द्रमा और चन्दन के समान शीतल छाया प्रदान करता है, सुन्दर एवं मन को मोहित करने वाले पुष्पों से वातावरण सुगन्धमय बना देता है, आकर्षक तथा स्वादिष्ट फलों को मानवजाति पर न्यौछावर करता है, उस वृक्ष को जंगली असभ्य लोग काट डालते हैं । अहो मनुष्य की यह कैसी कृतघ्नता है!
  • सेचनादपि वृक्षस्य रोपितस्य परेण तु।
महत्फलमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा॥ -- विष्णुधर्मोत्तरपुराण (3.296.17)
दूसरे व्यक्ति द्वारा रोपित वृक्ष का सिंचन करने से भी महान् फलों की प्राप्ति होती है, इसमें विचार करने की आवश्यकता नही है।
  • दशकूपसमावापी दशवापी समो ह्रदः।
दशह्रदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः॥ -- मत्स्यपुराण (154.511-512)
दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष।
  • वायूनां शोधकाः वृक्षाः रोगाणामपहारकाः ।
तस्माद् रोपणमेतेषां रक्षणं च हितावहम् ॥
वृक्ष वायु को शुद्ध करते हैं और रोगों को दूर भगाने में सहयोगी होते हैं । इसलिए वृक्षों का रोपण और रक्षण प्राणीमात्र के लिए हितकारी है ।
  • त्वक्शाखापत्रमूलैश्च पुष्पफलरसादिभिः।
प्रत्यङ्गरुपकुर्वन्ति वृक्षाः सद्भिः समं सदा ॥
सन्तों के समान ही वृक्ष अपनी त्वचा शाखा पत्ते मूल , पुष्प फल रस आदि सभी अंगों से प्राणियों का उपकार करते है ।
  • पश्यैतान् महाभागान् पराबैंकान्तजीवितान्।
वातवर्षातपहिमान सहन्तरे वारयन्ति नः॥
वृक्ष इतने महान होते हैं कि परोपकार के लिये ही जीते हैं। ये आँधी, वर्षा और शीत को स्वयं सहन करते हैं।
  • अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्।
सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः॥
इनका जन्म बहुत अच्छा है क्योंकि इन्हीं के कारण सभी प्राणी जीवित हैं। जिस प्रकार किसी सज्जन के सामने से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाते उसी प्रकार इन वृक्षों के पास से भी कोई खाली हाथ नहीं जाता।
  • "पुत्रपुष्यफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः।
गन्धनिर्यासभस्मास्थितौस्मैः कामान वितन्वते॥
ये हमें पत्र, पुष्प, फल, छाया, मूल, बल्कल, इमारती और जलाऊ लकड़ी, सुगंध, राख, गुठली और अंकुर प्रदान करके हमारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।
  • "एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु।
प्राणैरर्थधिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सहा॥
हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से अन्यों के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे।
  • पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान् ।
वृक्षदं पुत्रवत् वृक्षास्तारयन्ति परत्र च ॥
फलों और फूलों वाले वृक्ष मनुष्यों को तृप्त करते हैं । वृक्ष देने वाले अर्थात् समाजहित में वृक्षरोपण करने वाले व्यक्ति का परलोक में तारण भी वृक्ष करते हैं ।
  • अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
धन्या महीरूहा येभ्यो निराशां यान्ति नार्थिनः ॥
सब प्राणियों पर उपकार करने वाले वृक्षों का जन्म श्रेष्ठ है। ये वृक्ष धन्य हैं कि जिनके पास से याचक कभी निराश नहीं लौटते।
  • पुष्प-पत्र-फलच्छाया. मूलवल्कलदारुभिः।
धन्या महीरुहा येषां. विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥
वे वृक्ष धन्य हैं जिनके पास से याचक फूल, पत्ते, फल, छाया, जड़, छाल और लकड़ी से लाभान्वित होते हुए कभी भी निराश नहीं लौटते।
  • तस्मात् तडागे सवृक्षा रोप्याः श्रेयोऽर्थिना सदा।
पुत्रवत् परिपाल्याश्च पुत्रास्ते धर्मतः स्मृताः ॥
इसलिए श्रेयस् यानी कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह तालाब के पास अच्छे-अच्छे पेड़ लगाए और उनका पुत्र की भांति पालन करे। वास्तव में धर्मानुसार वृक्षों को पुत्र ही माना गया है।
  • छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे।
फलान्यपि परार्थाय वृक्षाः सत्पुषा ईव ॥
दूसरे को छाँव देता है, खुद धूप में खड़ा रहता है, फल भी दूसरों के लिए होते हैं; सचमुच वृक्ष सत्पुरुष जैसे होते हैं।
  • तडागकृत् वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः ।
एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः ॥
तालाब बनवाने, वृक्षरोपण करने, और यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले द्विज को स्वर्ग में महत्ता दी जाती है; इसके अतिरिक्त सत्य बोलने वालों को भी महत्व मिलता है।
  • नाप्सु मूत्रं पुरीष वाष्ठीवनं वा समुत्सृजेत्।
अमेध्यमलिप्तमन्यद्वा लोहतं वा विषाणि वा।
जल में मल मूत्र, कूड़ा, रक्त तथा विष आदि नहीं बहाना चाहिये। इससे पानी विषाक्त हो जाता है और पर्यावरण पर इसका बुरा प्रभाव दिखाई देता है। इससे मनुष्य तथा अन्य जीवों को स्वास्थ्य भी खराब होता है।
  • चेष्टा वायुः खमाकाशमूष्माग्निः सलिलं द्रवः।
पृथिवी चात्र सङ्कातः शरीरं पाञ्चभौतिकम्॥
महर्षि भृगु कहते हैं कि इन वृक्षों के शरीर में चेष्टा अर्थात् गतिशीलता वायु का रूप है,खोखलापन आकाश का रूप है,गर्मी अग्नि का रूप है, तरल पदार्थ सलिल का रूप है, ठोसपन पृथ्वी का रूप है। इस प्रकार (इन वृक्षों का यह) शरीर पाँच महाभूतों (वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्त्वों) से बना है।
  • छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे।
फलान्यापि परार्थाय वृक्षाः सत्पुरुषा इव॥
वृक्ष दूसरों को छाँव देते हैं। खुद धूप में खडे रहते हैं। इनके फल भी दूसरों के लिए होते हैं। सचमुच वृक्ष सत्पुरुष जैसे होते हैं।
  • अगर एक पेड़ मर जाता है, तो उसके स्थान पर एक और पौधा लगाओ। -- कैरोलस लिनियस
  • अपने पिछले इतिहास, उत्पत्ति व संस्कृति के ज्ञान के बिना व्यक्ति वैसे ही है जैसे जड़ों के बिना पेड़। -- मारकु गर्वे
  • आज कोई छाया में बैठा है क्योंकि किसी ने बहुत पहले एक पेड़ लगाया था। -- वारेन बफे
  • आप जड़ों के बिना फल नहीं खा सकते हैं। -- स्टीफन कोवे
  • इस पृथ्वी पर कुछ भी स्थिर नहीं है। यह या तो बढ़ रहा है या यह मर रहा है। फिर चाहे वो पेड़ हो या इंसान। -- लू होल्त्ज़
  • एक एकड़ में एक हजार जंगलों का निर्माण होता है। -- राल्फ वाल्डो इमर्सन
  • एक पेड़ – एक जीवन।
  • एक मुरझाए हुए पेड़ जो पूरे जंगल को जलने का कारण बनता है, उसी तरह एक दुष्ट बेटा एक पूरे परिवार को नष्ट कर देता है। -- चाणक्य
  • एक वृक्ष दस पुत्र समान ।
  • कठोर पेड़ सबसे आसानी से टूट जाता है, जबकि बांस हवा के साथ झुकने से जीवित रहता है। -- ब्रूस ली
  • जिस तरह से एक मुरझाया पेड़ पूरे जंगल के जलने का कारण बनता है, उसी तरह एक दुष्ट बेटा एक पूरे परिवार को नष्ट कर देता है। -- चाणक्य
  • जीवन का सही अर्थ पेड़ लगाना है, जिसकी छाँव में आप बैठने की उम्मीद नहीं करते हैं। -- नेल्सन हेंडरसन
  • जो पेड़ लगाता है, वह आशा रखता है। -- लुसी लारकॉम
  • देशभक्त का रक्त आजादी के पेड़ का बीज है। -- थॉमस कैंपबेल
  • पेड़ लगाने का सबसे अच्छा समय 20 साल पहले था। दूसरा सबसे अच्छा समय अब है। -- चीनी कहावत
  • प्यार के बिना जीवन उस पेड़ की तरह होता है, जिसमे न फूल होते है और फल। -- खलील जिब्रान
  • प्रेम फूल की तरह होता है, जबकि मैत्री एक आश्रय के पेड़ की तरह। -- सैमुअल टेलर कोलरिज
  • मिट्टी के बंधन से मुक्ति पेड़ के लिए कोई आजादी नहीं है। -- रविन्द्रनाथ टैगोर
  • मिट्टी के बंधन से मुक्ति पेड़ के लिए कोई स्वतंत्रता नहीं है। -- रविंद्रनाथ टैगोर
  • मैं एक पेड़ की तरह हूं। मेरे पत्ते रंग बदल सकते हैं, लेकिन मेरी जड़ें समान हैं। -- रोज नमाजें
  • जो पेड़ लगाता है, अपने अलावा दूसरों से भी प्यार करता है। -- थॉमस फुलर
  • सभी धर्म, कला और विज्ञान एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। -- अल्बर्ट आइंस्टीन
  • हर दो चीड़ के पेड़ों के बीच एक दरवाजा है जो जीवन के एक नए रास्ते की ओर जाता है। -- जॉन मुइर

इन्हें भी देखें

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