रावण

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रावण राक्षस कुल का अत्यन्त ही बलशाली, महापराक्रमी राजा था। लेकिन इसके साथ ही वो शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकाण्ड विद्वान, पण्डित एवं महाज्ञानी था। जब धरती पर उसका पाप बढ़ गया तब भगवान विष्णु ने राम के रूप में धरती पर जन्म लेकर रवण का वध किया था। तब रावण ने मरने से पहले भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण को कुछ उपदेश दिए थे, जो आज के समय में भी लोगों के लिए सफलता की कुंजी है।

रावण के उपदेश[सम्पादन]

  • अच्छे कार्य में कभी विलम्ब नहीं करना चाहिए (शुभस्य शीघ्रम्)। अशुभ कार्य को मोह वश करना ही पड़े तो उसे जितना हो सके उतना टालने का प्रयास करना चाहिए
  • शक्ति और पराक्रम के मद में इतना अंधा नहीं हो जाना चाहिए की हर शत्रु तुच्छ और निम्न लगने लगे। मुझे ब्रह्मा जी से वर मिला था की वानर और मानव के अलावा कोई मुझे मार नहीं सकता। फिर भी मैं उन्हें तुच्छ और निम्न समझ कर अहम में लिप्त रहा, जिस कारण मेरा समूल विनाश हुआ।
  • अपने जीवन के गूढ रहस्य स्वजन को भी नहीं बताने चाहिए। चूंकि रिश्ते और नाते बदलते रहते हैं। जैसे की विभीषण जब लंका में था तब मेरा शुभेच्छु था। पर श्री राम की शरण में आने के बाद मेरे विनाश का माध्यम बना।
  • हे लक्ष्मण! अपने सारथी, अपने द्वारपाल, अपने रसोईया और अपने भाई के दुश्मन मत बनो। वे कभी भी तुम्हें क्षति पहुंचा सकते है, जैसे मैंने अपने भाई विभीषण को अपना शत्रु बनाने की भूल की थी और वह तुम्हारे पक्ष में शामिल हो गया था। वह उन सभी रहस्यों को जानता था जिससे तुमने इस लड़ाई को जीत लिया। यदि वह मेरे पक्ष में होता तो तुम लोग कभी भी लंका के अंदर प्रवेश नहीं कर पाते और ना ही इस युद्ध को जीत पाते।
  • लक्ष्मण यह मत सोचो कि तुम हमेशा विजयी बनोगे, भले ही तुम अपने जीवनकाल में अजेय रहे हो। मगर कोई नहीं जानता है कि भाग्य कब तुम्हें ऐसे परिस्थिति में ला दे जहां तुम्हे हार के अतिरिक्त कुछ प्राप्त नहीं होगा। हमें एक ना एक दिन मृत्यु के आगे हार मानना ही पड़ेगा, इसीलिए जीवन के युद्ध में हार का सामना करने की मंशा से आगे बढ़ो। मैंने पाताल एवं स्वर्ग को जीत लिया था और पृथ्वी के अधिकांश हिस्से को भी प्राप्त किया था। कहीं महारथियों को युद्ध में धूल चटाया, देवता, दानव, गंधर्व सभी मुझसे भयभीत थे। इससे मेरा गर्व औए अहंकार और भी दृढ़ (मजबूत) हो गया जिससे मुझे लगा कि मैं अजेय हूँ और यही सोच मेरे पतन का कारण सिद्ध हुआ।
  • हे सौमित्र! कोई भी व्यक्ति जो यश प्राप्ति के लिए उत्सुक हो उसे लोभ नामक राक्षस से दूर रहना चाहिए। जब भी यह अपना फन उठाने का प्रयत्न करें उसके फन को उसी समय कुचल देना चाहिए। जब हमारी जरूरते बहुत अधिक असंतोषजनक हो जाती हैं तो यह लोभ एक भयानक राक्षस का रूप लेता है। यह पता भी नहीं चलता है, कब यह राक्षस धीरे-धीरे हमें अपने नियंत्रण में ले लेता है, मेरे साथ भी वही हुआ। मैं एक बहुभक्षक या लोभी बन गया था, सत्ता के लिए, साम्राज्य के लिए, भूमि के लिए, शक्ति के लिए, धन के लिए और सुंदर महिलाओं के लिए यह लोभ बढ़ते-बढ़ते कब मुझे निगल गया यह मुझे ज्ञात नहीं है। मेरा सारा ज्ञान, मेरी शक्तियां, मेरी भक्ति, मेरे वरदान बुद्धि के इस लोभ जनित राक्षस के कारण नष्ट हो गया। अधिक लोभ तुम्हें अहंकारी, कुकर्मी और घोर पापी बना देता है। इसलिए हम जो चाहते हैं और जो हमें मिलता है हम उसी से संतुष्ट रहें हैं, सुनिश्चित करें कि हमारी जरूरतें कभी भी लोभ ना बन जाए।
  • हे लक्ष्मण! एक महान राजा को अपनी प्रजा की देखभाल अपने पुत्र की भाँति करना चाहिए। जो कुछ भी अपने राज्य को खुशहाल बनाता हो वे वास्तव में एक राजा के लिए सुख होता है। वह किसी भी अन्य संबंध से पहले अपने प्रजा का राजा होता है यहां तक कि अगर उसे अपने स्त्री, पुत्र, परिजनों या अपनी इच्छा के विरुद्ध भी कोई निर्णय लेना पड़े, तो उसे निसंकोच वे निर्णय लेना चाहिए। यही एक महान राजा का कर्तव्य है और राजधर्म भी। अपने प्रबल, लोभ और अहंकार के कारण मैं यह करने में असमर्थ हुआ। अपने राज्यकाल में मैंने हमेशा अपने अहंकार और लोभ को ही प्रमुखता दिया। मैंने अपने प्रजा और राज्य का हित कभी नहीं देखा और ना ही सोचा। प्रजा को प्रमुखता दिए बिना मैंने प्रभु श्रीराम के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया था, यह केवल मेरे विनाश का कारण नहीं बना, बल्कि संपूर्ण लंका के विनाश का कारण बना।
  • हे सौमित्र! ध्यान से सुनो मेरी बात। हमेशा ऐसे मंत्री पर भरोसा करना जो राजा की आलोचना करता है। जो बिना किसी भय के तुम्हारी सामने निंदा करेगा, वह बिना किसी भय के ऐसा करता है चुकिं वे तुम्हें प्रसन्न करने हेतु तुमसे झूठ नहीं कहता है बल्कि वह हमेशा चाहता है कि तुम एक आदर्श राजा या व्यक्ति बनो। लेकिन उन मंत्रियों और व्यक्तियों से अवश्य भय करना जो हमेशा तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, भले ही तुम कितने गलत क्यों ना हो। इन लोगों के कारण तुम्हारे पूरे साम्राज्य का विनाश हो सकता है।
  • लक्ष्मण कभी यह ना सोचना कि तुम अपने भाग्य, ग्रहों और नक्षत्रों को मार्ग दे सकते हो। वे तुम्हारे लिए वही लाएंगे जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा। कोई भी मणि या रत्न धारण अथवा यज्ञ, हवन इत्यादि तुम्हारा भाग्य नहीं बदल सकता है। तुम्हारा अतीत एवं वर्तमान कर्म के फल प्राप्त करने से तुम्हें कोई नही रोक सकता है। तुम्हारे कर्म और तुम्हारे ग्रह तुम्हारे अंतिम भाग्य को तय करेंगे, इसलिए अपने जीवनकाल में सर्वदा छः कर्म करना और पूर्ण निष्टा से अपने इष्ट की भक्ति करते रहना, यही तुम्हारे जीवन में शुभ फल देगा और मोक्ष भी।
  • हे रामानुज! ईश्वर से या तो प्रेम करो या घृणा, परन्तु तुम जो भी करो वह अपार एवं दृढ होना चाहिए। यदि तुम एक भक्त होना चाहते हो, तो जब भी तुम्हारा पूज्य तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर देने के लिए अधिक समय लेता है तो निराश ना होना। पूर्ण भक्ति, आस्था एवं विश्वास सहित उनकी भक्ति करना, यही ईश्वर को तुम्हारे पास ले आएगा और तुम्हें मोक्ष प्रदान करेगा। और अगर शत्रु बनो तो ऐसा बनो कि स्वयं ईश्वर के हाथों तुम्हारी मृत्यु हो। जो प्राणी इनके बीच फंसे हुए रहते हैं अर्थात कभी ईश्वर की भक्ति करते हैं और कभी उन्हें कोसते रहते हैं वह प्राणी अजीवन नर्क भोग करते हैं उन्हें कभी सुख प्राप्त नहीं होता है। उनका मन निरंतर चंचल एवं अशांत रहता है। मैंने हमेशा प्रभु से घृणा की, उनका परम शत्रु बना और इसीलिए उनके ही हाथों मुझे मोक्ष मिला।