रामधारी सिंह 'दिनकर'
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रामधारी सिंह 'दिनकर' (२३ सितंबर १९०८ - २४ अप्रैल १९७४) एक भारतीय लेखक, कवि एवं निबंधकार थे। हिन्दी भाषा को उनके योगदान के लिए उन्हें १९५९ में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
उद्धरण
[सम्पादन]- सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
- मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
- दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । -- [१]
- इच्छाओं का दामन छोटा मत करो, जिंदगी के फल को दोनों हाथों से दबा कर निचोड़ो।
- जिस काम से आत्मा सन्तुष्ट रहें उसी से चेतना भी संतुष्ट रहती है।
- दूसरों की निंदा करने से आप अपनी उन्नति को प्राप्त नही कर सकते। आपकी उन्नति तो तभी होगी जब आप अपने आप को सहनशील और अपने अवगुणों को दूर करेंगे।
- मित्रों का अविश्वास करना बुरा है, उनसे छला जाना कम बुरा है।
- आजादी रोटी नहीं, मगर दोनों में कोई वैर नहीं। पर कहींं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
- सम्पूर्ण इंसान जाति में भेद नही करता।
- ईष्या की बड़ी बहन का नाम है निंदा। जो इंसान ईष्यालु होता है, वही बुरा निंदक भी होता है।
- कोई प्रशंसा ऐसी नहीं जो मुझे याद रहें , कोई निंदा ऐसी नहीं जो मुझे उभार दे।बनास्ति का परिणाम नास्ति है।
- जब खुलकर लोग तुम्हारी निंदा करने लगे तब तुम समझो कि तुम्हारी लेखनी सफल हुई।
- सुयश के पीछे नहीं दौड़ना , धन के पीछे नहीं दौड़ना जो मिला सो मेरा , जो नहीं मिला वह किसी अधिकारी मानव - बंधु का है।
- जिस इंसान के ह्रदय में भावना न हो , जिसे अपने देश से प्रेम नहीं , उसका ह्रदय ह्रदय नहीं पत्थर है।
- ऐसा कोई काम नहीं करना जिसे छिपाने की आवश्यकता हो , ऐसा कोई राज नहीं जानना जिसकी जानकारी से कोई जवाब देही आती हो।
- जब गुनाह हमारा त्याग कर देता है, हम फ़क्र से कहते हैं हमने गुनाहों को छोड़ दिया।
- कवि पर फूल बरसाये जाएं , तो संभव है उनकी खुशबू उसी समय नष्ट हो जाए।
- सूर्यास्त होने तक मत रुको। चीजे तुम्हें त्यागने लगें , उससे पहले तुम्ही उन्हें त्याग दो।
- लोग हमारी चर्चा ही न करें, यह अधिक बुरा है। वे हमारी निंदा करें , यह कम बुरा है।
- उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, देश में जितने भी हिन्दू बसते हैं, उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी सामासिक संस्कृति की ही विशेषता है।
- हम तर्क से पराजित होने वाली जाती नहीं हैं। हाँ, कोई चाहे तो नम्रता, त्याग और चरित्र से हमें जीत सकता है।
- पंडित और संत में वही भेद होता है, जो हृदय और बुद्धि में है। बुद्धि जिसे लाख कोशिश करने पर भी नहीं समझ पाती, हृदय उसे अचानक देख लेता है।
- विद्द्या समुद्र की सतह पर उठती हुई तरंगों का नाम है। किन्तु, अनुभूति समुद्र की अंतरात्मा में बसती है।
- हमारा धर्म पंडितों की नहीं, संतों और द्रष्टाओं की रचना है। हिंदुत्व का मूलाधार विद्या और ज्ञान नहीं है, सीधी अनुभूति है।
- धर्म अनुभूति की वस्तु है और धर्मात्मा भारतवासी उसी को मानते आये हैं, जिसने धर्म के महा सत्यों को केवल जाना ही नहीं उनका अनुभव और साक्षात्कार भी किया है।
- संत सूनी-समझी बातों का आख्यान नहीं करते, वे तो आँखों देखी बातें करते हैं। अपनी अनुभूतियों का निचोड़ दूसरों के हृदय में उतारते हैं।
- परिपक्व मनुष्य जाति भेद को नहीं मानता।
- अवसर कोई ऐसी चीज नहीं है जो रोटी-दाल की तरह सबके सामने परोसा जा सके। उसे पाने के लिए अपने गुणों का विकास करना होता है। तत्परता, मुस्तैदी और धीरता भी रखनी होती है और साथ ही उम्र तथा अनुभवों का ध्यान रखना पड़ता है।
- कामना का दामन छोटा मत करो, जिन्दगी के फल को दोनों हाथों से दबा कर निचोड़ो, रस की निर्झरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है।
- जीवन अन्वेषणों के बीच है। उसका जन्म अज्ञात इच्छाओं के भीतर से होता है। अपने हृदय में कामनाओं को जलाए रखो, अन्यथा तुम जिस मिट्टी से निर्मित हुए हो कब्र बन जाएगी।
- कोई भी मनुष्य दूसरों की निंदा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा अपने गुणों का विकास करे।
- जो मनुष्य अनुभव के दौर से होकर गुजरने से इंकार करता है, मेहनत से भाग कर आराम की जगह पर पहुँचने के लिए बेचैन है, उसकी यह बेचैनी ही इस बात का सबूत है कि वह अपने संगठन का अच्छा नेता नहीं बन सकता।
- जिस मनुष्य में भावना का संचार न हो, जिसे अपने राष्ट्र से प्रेम नहीं, उसका ह्रदय ह्रदय नहीं पत्थर है।
- हम जिस समाज में रह रहे हैं उसके प्रोप्रायटर राजनीतिज्ञ हैं, मैनेजर अफसर हैं, बुद्धिजीवी मजदूर हैं।
- मैं तीन चिंताओं का शिकार रहा हूं। अधूरी किताब की चिंता, अधूरे मकान की चिंता, अधूरे बेटे की चिंता।
- विद्वानों ओर लेखकों के सामने सरलता सबसे बड़ी समस्या है।
- ऋषि बात नहीं करते, तेजस्वी लोग बात करते हैं और मूर्ख बहस करते हैं।
- स्वार्थ हर तरह की भाषा बोलता है, हर तरह की भूमिका अदा करता है, यहां तक कि निःस्वार्थता की भाषा भी नहीं छोड़ता।
- सौन्दर्य के तूफान में बुद्धि को राह नहीं मिलती। वह खो जाती है, भटक जाती है। यह पुरुष की चिरन्तर वेदना है।
- जैसे सभी नदियाँ समुद्र में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही सभी गुण अंततः स्वार्थ में विलीन हो जाते हैं।
- अभिनन्दन लेने से इनकार करना, उसे दोबारा मांगने की तैयारी है।
- सतत चिन्ताशील व्यक्ति का कोई मित्र नहीं बनता।
- रोटी के बाद मनुष्य की सबसे बड़ी कीमती चीज उसकी संस्कृति होती है।
- हम तर्क से पराजित होने वाले नहीं हैं। हाँ, यदि कोई चाहे तो प्यार, त्याग और चरित्र से हमें जीत सकता है।
- सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
- स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
- बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
- नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं । -- 'परिचय' में
- याचना नहीं, अब रण होगा,
- जीवन-जय या कि मरण होगा।
- माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी!
- लाशों पर चढ़ कर आगे फ़ौज बढ़ेगी!
- कोई प्रशंसा ऐसी नहीं जो मुझे याद रहे,
- कोई निंदा ऐसी नहीं जो मुझे उभार दे।
- नास्ति का परिणाम नास्ति है।
- वैभव विलास की चाह नहीं,
- अपनी कोई परवाह नहीं।
- सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,
- शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,
- विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
- तुम्हारी निन्दा वही करेगा जिसकी तुमने भलाई की।
- प्रकृति नहीं डरकर झुकती है
- कभी भाग्य के बल से
- सदा हारती वह मनुष्य के
- उद्यम से श्रमजल से।
- पुरुष चूमते तब
- जब वे सुख में होते हैं,
- नारी चूमती उन्हें
- जब वे दुख में होते हैं।
- और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
- सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है।
- कविता वह सुरंग है जिसमें से गुजर कर
- मानव एक संसार को छोड़कर दूसरे संसार में चला जाता है।
- पूछो मेरी जाति,शक्ति हो तो,मेरे भुजबल से,
- रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,
- पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प्रकाश,
- मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।
- सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन
- यदि दुःख में साथ न दें अपना,
- फिर सुख में उन सम्बन्धों का
- रह जाता कोई अर्थ नहीं।
- वाणी का वर्चस्व रजत है,
- किंतु, मौन कंचन है।
- तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
- जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे
- जब नारी किसी नर से कहे,
- प्रिय! तुम्हें मैं प्यार करती हूँ,
- तो उचित है, नर इसे सुन ले ठहर कर,
- प्रेम करने को भले ही वह न ठहरे।
- कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
- तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान
- सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
- मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
- दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
- नारी जिस प्रेम को सदा जगाए रखना चाहती है,
- नरों में वह प्रेम केवल कलाकारों में अधिक से अधिक काल तक जीवित रहता है।
- ज्ञान का साहित्य मनुष्य किसी भी भाषा में लिख सकता है,
- जिससे उसने भलीभाँति सीख लिया हो।
- किन्तु रस का साहित्य वह केवल अपनी भाषा में रच सकता है।
- महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा,
- किस से लिपट जुडाता ? सबको ज्वाला में जलते देखा।
- नित जीवन के संघर्षों से जब टूट चुका हो अन्तर्मन ,
- तब सुख के मिले समन्दर का रह जाता कोई अर्थ नहीं ।
- सुंदरता को जगी देखकर जी करता मैं भी कुछ गाऊं,
- मैं भी आज प्रकृति पूजन में निज कविता के दीप जलाऊं।
- ठोकर मार भाग्य को फोड़े, जड़ जीवन तजकर उड़ जाऊं,
- उतरी कभी न भू पर जो छवि, जग को उसका रूप दिखाऊं।
- शत्रु से मैं खुद निबटना जानता हूँ,
- मित्र से पर देव! तुम रक्षा करो।
- लोग हमारी चर्चा ही न करें, यह अधिक बुरा है।
- वे हमारी निंदा करें, यह कम बुरा है।
- जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,
- परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा ।
- कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,
- नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे।
- थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर
- स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
- हम उन वीरों की सन्तान,
- जियो जियो अय हिन्दुस्तान॥
- जिसके मस्तक के शासन को
- लिया हृदय ने मान,
- वह कदर्य भी कर सकता है
- क्या कोई बलिदान ?
- कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
- अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे॥
- जब खुलकर लोग तुम्हारी निंदा करने लगे
- तब तुम समझो कि तुम्हारी लेखनी सफल हुई॥
- वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
- अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
- जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया।
- सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पिएगा
- पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा॥
- आदमी अत्यधिक सुखों के लोभ से ग्रस्त है
- यही लोभ उसे मारेगा
- मनुष्य और किसी से नहीं,
- अपने आविष्कार से हारेगा॥
- जब नाश मनुज पर छाता है,
- पहले विवेक मर जाता है। -- रश्मिरथी
- बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा!
- जीवन का रस छन जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे।
- तू स्वयं तेज भयकारी है, क्या कर सकती चिनगारी है?
- आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
- पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
- स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
- रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
- रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
- स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे!
- सुयश के पीछे नहीं दौड़ना, धन के पीछे नहीं दौड़ना।
- जो मिला सो मेरा, जो नहीं मिला वह किसी अधिकारी मानव-बंधु का है।
- समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
- जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध॥
- हवा में कब तक ठहरी हुई
- रहेगी जलती हुई मशाल?
- थकी तेरी मुट्ठी यदि वीर,
- सकेगा इसको कौन सँभाल?
- पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
- उगल रही सौ लपट दिशाएं,
- जिनके सिंहनाद से सहमी
- धरती रही अभी तक डोल
- कलम, आज उनकी जय बोल।
- सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
- स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
- कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
- प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं॥
- हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
- साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
- जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
- वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
- हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे
- मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे
- देंगे जान , नहीं ईमान,
- जियो जियो अय हिन्दुस्तान॥
- जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
- अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं॥
- मृतकों से पटी हुई भू है,
- पहचान, इसमें कहाँ तू है।
- सूर्यास्त होने तक मत रुको।
- चीजे तुम्हें त्यागने लगें, उससे पहले तुम्हीं उन्हें त्याग दो।
- आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
- मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
- देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
- देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में ।
- उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
- सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है।
- विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिन्तन है
- जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है॥
- एक भेद है और वहां निर्भय होते नर-नारी,
- कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी॥
- अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान!
- प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!
- नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
- स्वार्थ हर तरह की भाषा बोलता है
- हर तरह की भूमिका अदा करता है,
- यहाँ तक की वह निःस्वार्थ की भाषा भी नहीं छोड़ता॥
- मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
- चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
- पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
- समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं॥
- छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए
- मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए
- दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
- मरता है जो एक ही बार मरता है॥
- तन मन धन तुम पर कुर्बान,
- जियो जियो अय हिन्दुस्तान॥
- आदमी भी क्या अनोखा जीव है !
- उलझनें अपनी बनाकर
- आप ही फँसता, और फिर
- बेचैन हो जगता, न सोता है।
- कलमें लगाना जानते हो
- तो ज़रूर लगाओ,
- मगर ऐसी, कि फलों में
- अपनी मिट्टी का स्वाद रहे॥
- दूसरों की निंदा करने से आप
- अपनी उन्नति को प्राप्त नहीं कर सकते।
- आपकी उन्नति तो तभी होगी जब आप अपने आप को
- सहनशील और अपने अवगुणों को दूर करेंगे।
- तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
- पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
- हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
- वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
- मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का, वीरों का,
- धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का ?
- पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
- जाति जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।
- ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
- दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
- सौभाग्य न सब दिन सोता है,
- देखें, आगे क्या होता है॥
- प्रासादों के कनकाभ शिखर,
- होते कबूतरों के ही घर,
- महलों में गरुड़ न होता है,
- कंचन पर कभी न सोता है।
- रहता वह कहीं पहाड़ों में,
- शैलों की फटी दरारों में॥
- होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
- मानव होता निज तप क्षीण,
- सत्ता किरीट मणिमय आसन,
- करते मनुष्य का तेज हरण।
- नर वैभव हेतु ललचाता है,
- पर वही मनुज को खाता है॥
- चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
- नर भले बने सुमधुर कोमल,
- पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
- आताप अंधड़ में जिए बिना।
- वह पुरुष नहीं कहला सकता,
- विघ्नों को नही हिला सकता॥
- उड़ते जो झंझावातों में,
- पीते जो वारि प्रपातों में,
- सारा आकाश अयन जिनका,
- विषधर भुजंग भोजन जिनका।
- वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,
- धरती का हृदय जुड़ाते हैं॥ -- रश्मिरथी में