रहीम
अब्दुल रहीम खान-ए-खाना (1556-1627) जो कि रहीम के नाम से भी जाने जाते थे, अकबर के विश्वासपात्र बैरम खान के पुत्र थे और भारतवर्ष के महानतम कवियों में से एक थे। रहीम के दोहों में नीति की बातें बहुत ही सरल ढ़ंग से अभिव्यक्त हुई हैं।
दोहे
[सम्पादन]सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक।
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक।।
(सूर्य शीत को भगा देता है, अंधकार का नाश कर देता है और सारे संसार को प्रकाश से भर देता है। पर सूर्य का क्या दोष यदि उल्लू को दिन में दिखाई ही नहीं देता।)
समय-लाभ सम लाभ नहिं, समय-चूक सम चूक।
चतुरन-चित रहिमन लगी, समय-चूक ही हूक।।
रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छाड़त साथ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ।।
रहिमन तीन प्रकार तें, हित अनहित पहिचान।
पर-बस परे, परोस बस, परे मामला जान।।
रन बन ब्याधि बिपत्ति में, रहिमन मरै न रोय।
जो रक्षक जननी-जठर, सो हरि गये कि सोय।।
यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय।
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय।।
पावस देखि रहीम मन, कोकिल साधै मौन।
अब दादुर बक्ता भये, हमको पूछत कौन।।
रहिमन तहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत।।
रहिमन कठिन चितान तैं, चिन्ता को चित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिन्ता जीव समेत।।
रहिमन प्रीति सराहिये, मिलै होत रंग दून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून।।
जाकी जैसी बुद्धि है, वैसी कहै विचारि।
ताको बुरा न मानिये, लेन कहां सू जाय।।
अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।।
सांचे ते तो जग नहीं, झूठे मिलै न राम।।
रहिमन तब लगि ठहरिये, दान मान सनमान।
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान।।
कमला थिर न रहीम जग, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की बहू, क्यों न चंचला होय।।
छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥
खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाय।
रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाय॥
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥
माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥
एकहि साधै सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहि सींचबो, फूलहि फलहि अघाय॥
रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥
रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥
- बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
- पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
दोनों रहिमन एक से, जब लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु वसंत कै माहि॥
रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।
कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ई कौन है, जगत पिआसो जाय।।
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस।
महिमा घटि सागर की, रावण बस्यो पड़ोस।।
रुठे सुजन मनाइए, जो रुठै सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार।।
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।
सदा रहे नहिं एकसो, का रहिम पछिताय।।
रहिमन ओछो जौ बढ़े, सो अति ही इतराय।
प्यादा से फर्जी बनै, तिरछो-तिरछो जाय।।
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह। धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।।