महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे जिन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका का अठारह वर्षों तक सम्पादन कर हिन्दी पत्रकारिता में एक महान् कीर्तिमान स्थापित किया। वे हिन्दी के पहले व्यवस्थित समालोचक थे, जिन्होंने समालोचना की कई पुस्तकें लिखी थीं। वे खड़ी बोली हिन्दी की कविता के प्रारंभिक और महत्त्वपूर्ण कवि थे। आधुनिक हिन्दी कहानी उन्हीं के प्रयत्नों से एक साहित्यिक विधा के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकी थी। वे भाषाशास्त्री थे, अनुवादक थे, वैय्याकरणिक थे, इतिहासज्ञ थे, अर्थशास्त्री थे तथा विज्ञान में भी गहरी रूचि रखने वाले थे। अन्ततः वे युगान्तर लाने वाले साहित्यकार थे या दूसरे शब्दों में कहें, युग निर्माता थे। वे अपने चिंतन और लेखन के द्वारा हिन्दी प्रदेश में नव जागरण पैदा करने वाले साहित्यकार थे।

द्विवेदी जी बहुभाषाविद् होने के साथ ही साहित्य के इतर विषयों में भी समान रूचि रखते थे। जनवरी, 1903 ई॰ से दिसम्बर, 1920 ई॰ तक इन्होंने ‘सरस्वती’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया था, इसीलिए इस काल को हिन्दी साहित्येतिहास में ‘द्विवेदी-युग’ के नाम से जाना जाता है।

उनका जन्म 6 मई, 1864 ई॰ में हुआ था । उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई की थी। तत्पश्चात् वे रेलवे में नौकरी करने लगे थे। उसी समय इन्होंने अपने लिए चार सिद्धांत निश्चित किये - वक्त की पाबंदी करना, रिश्वत न लेना, अपना काम ईमानदारी से करना और ज्ञान-वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहना। 1882 ई॰ से उन्होंने नौकरी प्रारम्भ की थी। नौकरी करते हुए वे अजमेर, बम्बई, नागपुर, होशंगाबाद, इटारसी, जबलपुर एवं झाँसी शहरों में रहे। इसी दौरान उन्होंने संस्कृत एवं ब्रजभाषा पर अधिकार प्राप्त करते हुए पिंगल अर्थात् छंदशास्त्र का अम्यास किया। उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 1885 ई॰ में ‘श्रीमहिम्नस्तोत्र’ की रचना की, जो पुष्पदंत के संस्कृत काव्य का ब्रजभाषा में काव्य रूपान्तर है।

अदम्य साहस, निष्ठा, तर्कशीलता, विवेकशीलता और जोखिम महावीर प्रसाद द्विवेदी में कूट-कूट कर भरा था। इस चेतना और चिंतन का प्रसार उन्होंने हिन्दी प्रदेशों में किया। आजादी के पूर्व के जितने हिन्दी साहित्यकार हैं, प्रायः उन सभी में द्विवेदी जी के विद्रोही रूप का प्रभाव पड़ा। उनके बाद की पीढ़ी उनकी तरह ही ऐसे विद्रोही विचारों की पैदा हुई, जिसने प्रचलित मान्यताओं एवं धारणाओं की धज्जी उड़ाते हुए अपना महान् रचना-कार्य किया। प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, मैथिली शरण गुप्त, राहुल सांस्कृत्यायन, शिवपूजन सहाय, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, उग्र, पंत, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि बड़े साहित्यक व्यक्तित्वों को यदि गहराई से देखें तो द्विवेदी जी की छाप उनपर दिखाई पड़ेगी।

महावीर प्रसाद द्विवेदी की उक्तियाँ[सम्पादन]

  • मुझे आचार्य की पदवी मिली है। क्यों मिली है, मालूम नहीं। कब, किसने दी है, यह भी मुझे मालूम नहीं। मालूम सिर्फ इतना ही है कि मैं बहुधा - इस पदवी से विभूषित किया जाता हूँ। .... शंकराचार्य, मध्वाचार्य, सांरव्याचार्य आदि के सदृश किसी आचार्य के चरणरजः कण की बराबरी मैं नहीं कर सकता। बनारस के संस्कृत काॅलेज या किसी विश्वविद्यालय में भी मैंने कभी कदम नहीं रक्खा। फिर इस पदवी का मुस्तहक मैं कैसे हो गया ? -- मई, 1933 ई॰ में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा उनकी सत्तरवीं वर्षगांठ पर बनारस में आयोजित उनके अभिनन्दन के अवसर पर द्विवेदी जी का ‘आत्म-निवेदन’
  • बचपन से ही मेरा अनुराग तुलसीदास की रामायण और ब्रजवासीदास के ‘ब्रजविलास’ पर हो गया था। फुटकर कविता भी मैंने सैकड़ों कण्ठ कर लिये थे। हुशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कविवचन सुधा और गोस्वामी राधाचरण के एक मासिक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्धि कर दी। वहीं मैंने बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ नाम के एक सज्जन से, जो वहीं कचहरी में मुलाजिम थे, पिंगल का पाठ पढ़ा। फिर क्या था, मैं अपने को कवि ही नहीं, महाकवि समझने लगा। मेरा यह रोग बहुत दिनों तक ज्यों का त्यों बना रहा।-- द्विवेदी जी, अपने ‘आत्म-निवेदन’ में
  • ज्ञान-राशि के संचित कोष का ही नाम साहित्य है।
  • इस तरह की बातें किसी इतिहसकार के ग्रंथ में यदि पाई जायँ तो उसके इतिहास का महत्त्व कम हुए बिना नहीं रह सकता। इतिहास-लेखक की भाषा तुली हुई होनी चाहिए। उसे बेतुकी बातें न हाँकनी चाहिए। अतिशयोक्तियाँ लिखना इतिहासकार का काम नहीं। उसे चाहिए कि वह प्रत्येक शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ को अच्छी तरह समझकर उसका प्रयोग करे। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, ‘हिन्दी-नवरत्न’ की समीक्षा में
  • वेद के विषय में हम हिन्दुओं की श्रद्धा कुछ इतनी बढ़ गई है कि वेदों को भगवान् की वाणी कहते-कहते हमने उन्हें खुद भगवान् ही बना डाला है। हम बहुधा अखबारों में पढ़ते हैं - अमुक शहर में ‘वेद भगवान्’ की सवारी निकली। अमुख तारीख को ‘वेदभगवान्’ का षोडशोपचारपूजन हुआ। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, वेदों के प्रति हिन्दुओं में अन्धश्रद्धा की वृद्धि के बारे में
  • यदि यह बात है तो इन सूक्तों में इन ऋषियों की निज की दशा का वर्णन कैसे आया ? ये मंत्र उनकी दशा के ज्ञापक कैसे हुए ? ऋग्वेद का कोई ऋषि कुवें में गिर जाने पर उसी के भीतर पड़े-पड़े स्वर्ग और पृथिवी आदि की स्तुति कर रहा है। कोई इन्द्र से कह रहा है, आप हमारे शत्रुओं का संहार कीजिए। कोई सविता से प्रार्थना कर रहा है कि हमारी बुद्धि को बढ़ाइए। कोई बहुत-सी गायें माँग रहा है, कोई बहुत-से पुत्र। कोई पेड़, सर्प, अरण्यानी, हल और दुन्दुभी पर मंत्र रचना कर रहा है। कोई नदियों को भला-बुरा कह रहा है कि ये हमें आगे बढ़ने में बाधा डालती हैं। कहीं माँस का उल्लेख है, कहीं सुरा का। कहीं द्यूत का। ऋग्वेद के सातवें मंडल में तो एक जगह एक ऋषि ने बड़ी दिल्लगी की है। सोमपान करने के अनन्तर वेद-पाठरत ब्राह्मणों की वेद-ध्वनि की उपमा आपने बरसाती मेंढ़कों से दी है। ये सब तों वेद के ईश्वर प्रणीत न होने की सूचक हैं। ईश्वर के लिए गाय, भैंस, पुत्र, कलत्र, दूध, दही माँगने की कोई जरूरत नहीं। यह ऋग्वेद की बात हुई। यजुर्वेद का भी प्रायः यही हाल है। सामवेद के मंत्र तो कुछ को छोड़ कर शेष सब ऋग्वेद ही से चुने गये हैं। रहा अथर्ववेद, सो यह तो मारण, मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि मंत्रों से परिपूर्ण है। स्त्रियों को वश करने और जुवे में जीतने तक के मंत्र ऋग्वेद में हैं। ..... न ईश्वर जुवा खेलता है, न वह स्त्रैण ही है और न वह ऐसी बातें करने के लिए औरों को प्रेरित ही करता है। ये सब मनुष्यों ही के काम हैं, उन्होंने वेदों की रचना की है। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी का वेदमन्त्रों के रचनाकारों के बारे में
  • वैदिक समय में भारतवासियों की सामाजिक अवस्था कैसी थी, वे किस तरह अपना जीवन निर्वाह करते थे, कहाँ रहते थे, क्या किया करते थे - इन सब बातों का पता यदि कहीं मिल सकता है तो वेदों ही में मिल सकता है। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी
  • इस बदले हुए जमाने में भी अभी तक पांडेय रामावतार शर्मा के सदृश कुछ ही स्वतंत्र स्वभाव के पंडित देख पड़ते हैं। स्वतंत्र स्वभाव से हमारा मतलब ऐसे स्वभाव वाले सज्जनों से है जो मन की बात, समाज की समझ के प्रतिकूल होने पर भी, निःशंक कह डालने का साहस कर सकें। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, पांडेय रामावतार शर्मा के बारे में
  • इस महाकवि की इस कलियुग-वर्णना से एक बात और भी बड़े मार्के की मालूम हो सकती है। वेदों में बहुत पुराने जमाने की कुछ रूढ़ियों का उल्लेख है। वे रूढ़ियाँ उस समय रायज थीं। जन-समुदाय उन्हें सुदृष्टि से देखता था। आजकल वे कुदृष्टि से देखी जाती हैं। इसी से आजकल के कुछ वेदज्ञ उनका अर्थ उस समय के समाज के अनुसार करके अपनी विद्वता और वेदज्ञता प्रकट करते हैं। पांडित्य और वेद-ज्ञान में वे शायद अपने को श्रीहर्ष से भी सौगुना समझते होंगे। .... श्रीहर्ष के वर्णन से हम यदि इतना ही जान सकें कि वे वेद के कुछ संशयास्पद स्थलों का क्या अर्थ समझते थे, तो पुराने वेद-व्याख्याताओं की संख्या में एक की और वृद्धि हो जाय। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, ‘श्रीहर्ष का कलियुग’ शीर्षक ललित निबन्ध में
  • आपके वेदों में लिखा है कि यज्ञ करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। ज़रा बताइए तो सही, किसने-किसने यज्ञ करके स्वर्ग पाया है। वेदों में अगर लिखा हो कि पत्थर फेंकने से पानी पर तैरने लगते हैं तो क्या आप वेदों की इस उक्ति को सच मान लेंगे ? नहीं, तो आपने स्वर्ग-प्राप्ति की बात कैसे सच मान ली ? ..... आपके एक आचार्य वृहस्पति हो गये हैं। .... वे कहते हैं कि अग्निहोत्र, वेद-पाठ, तंत्रोक्त-क्रियाओं का साधन, त्रिपुण्ड धारण करना और ललाट पर त्रिपुण्ड लगाना उन लोगों के पेट पालने का साधन-मात्र है, जिनमें न अक्ल है, न पौरुष है और न खर्च करने के लिए जिनके पास एक छदाम ही है ! फिर क्यों तुम लोग इन शुष्क आडम्बरों के पीछे पड़कर लोगों को ठग रहे हो ? -- वैदिक मान्यताओं का खण्डन करने एवं उनकी कुरीतियाँ दर्शाने के लिए महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा कलियुग-प्रसंग की पुनर्रचना में
  • अति नीरस, अति कर्कश, अति कटु, वेद-वाक्य-विस्तार
क्षण भर तू समेटकर सुन निज अविचारों का सार।
नित्य असत्य बोलने में जो तनिक नहीं सकुचाते हैं,
सींग क्यों नहीं उनके सिर पर बड़े-बड़े उग आते हैं ?
घोर घमंडी पुरुषों की क्यों टेढ़ी हुई न लंक ?
चिह्न देख जिसमें सब उनको पहचानते निःशंक।
दुराचारियों को तू प्रायः धर्माचार्य बनाता है,
कुत्सित-कर्म-कुशल कुटिलों को अक्षरज्ञ उपजाता है।
मूर्ख धनी, विद्वतजन निर्धन, उलटा सभी प्रकार !
तेरी चतुराई को ब्रह्मा ! बार बार धिक्कार !!
शुद्धाशुद्ध शब्द तक का है जिनका नहीं विचार,
लिखवाता है उनके कर से नए-नए अखबार !
-- महावीर प्रसाद द्विवेदी, ‘विधि-विडम्बना’ नामक कविता में (१९०१)
(इस कविता में पहले वेद जो नीरस, कर्कश, कटु हैं, उन्हें समेटकर ब्रह्मा को अपने अविचारों का सार सुनाने का आग्रह किया गया है और ब्रह्मा या विधाता की बनाई सृष्टि का मजाक उड़ाया गया है। जो धर्माचारी हैं, प्रायः वे दुराचारी हैं। अक्षरज्ञ यानी शिक्षित जन कुटिल होते हैं और गंदे कामों में लिप्त रहते हैं। अखबार निकालने वालों को सही भाषा-ज्ञान तक नहीं होता। धनी लोग मुर्ख और विद्वान् लोग निर्धन होते हैं। ऐसी बातें लिखने वाले का विरोध तो होगा ही। और उसपर ब्रह्मा तक को धिक्कार !)
  • शब्द-शास्त्र है किसका नाम ?
इस झगड़े से जिसे न काम,
नहीं विराम-चिह्न तक रखना जिन लोगों को आता है।
इधर-उधर से जोड़-बटोर,
लिखते हैं जो तोड़-मरोड़,
इस प्रदेश में वे ही पूरे ग्रंथकार कहलाते हैं।
अपनी पुस्तक की सानन्द
स्वयं समीक्षा लिख स्वच्छन्द,
अन्य नाम से अखबारों में जो शतबार छपाते हैं
निज मुख से जो गुण विस्तार
करते सदा पुकार-पुकार,
ग्रंथकार-पद-योग्य सर्वथा वे ही समझे जाते हैं।
किसी समालोचक के द्वार
सिर घिस-घिसकर बारम्बार
निज पुस्तक की समालोचना जो सविनय लिखवाते हैं।
-- महावीर प्रसाद द्विवेदी, अगस्त, 1901 ई॰ की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित ‘ग्रंथकार-लक्षण’ कविता में
(द्विवेदी जी के अनुसार सही भाषा लिखनी तक नहीं आती और इधर-उधर से जोड़-बटोर कर यानी सामग्री जुटा कर लोग लेखक बन जाते हैं। उनकी पुस्तक को कोई पूछने वाला जब नहीं होता तो वे अपनी पुस्तक की स्वयं समीक्षा लिखकर छद्म नामों से अखबारों में छपा लेते हैं। वे अपनी प्रशंसा स्वयं ही किया करते हैं। वे ऐसे लेखक हैं जो किसी आलोचक की दहलीज पर सिर रगड़कर अपनी पुस्तक की आलोचना लिखवाते हैं।)
  • आप रसिकों के शहनशाह हैं। महामारी का अस्पताल आपकी राजधानी है। पुलिस और पल्टन के गोरे आपके पताकाधारी नक़ीब हैं। डाक्टर आपके पार्षद हैं। सेग्रिगेशन कैम्प आपका क्रीड़ाकानन है। वहीं आप और आपके आश्रित लोग नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ किया करते हैं। -- प्लेगस्तवन में
  • कविता लिखते समय कवि के सामने एक ऊँचा उद्देश्य अवश्य रहना चाहिए। केवल कविता के लिए कविता करना एक तमाशा है।
  • अंतःकरण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है। नाना प्रकार के विकारों के योग से उत्पन्न हुए मनोभाव जब मन में नहीं समाते तब वे आप ही आप मुख के मार्ग से बाहर निकलने लगते हैं, अर्थात् मनोभाव शब्दों का स्वरूप धारण करते हैं। वही कविता है। चाहे वह पद्यात्मक हो, चाहे गद्यात्मक। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, दिसम्बर, 1903 की ‘सरस्वती’ में ‘कविता’ शीर्षक वाले निबन्ध में
  • किसी प्रभावोत्पादक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है। जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं है। तुकबन्दी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं। कवि का सबसे बड़ा गुण नयी-नयी बातों का सूझना है। उसके लिए कल्पना की बड़ी जरूरत है। जो बात एक असाधारण और निराले ढंग से शब्दों के द्वारा इस तरह प्रकट की जाय कि सुनने वाले पर उसका कुछ न कुछ असर जरूर पड़े, उसी का नाम कविता है। आगे वे बताते हैं कि कवियों को प्रकृति-विकास को खूब ध्यान से देखना चाहिए। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, ‘कवि और कविता’ निबन्ध में
  • कवि का काम न तो शिक्षा देना है, न दार्शनिक तत्त्वों की व्याख्या करना है। उसके हृदय से वह ज्ञान उद्गत होना चाहिए, जिससे समस्त मानव-जाति की हृतंत्री में विश्व-वेदना का स्वर बज उठे।
  • प्राचीन काल में सभी कवि प्रकृति की देदीप्यमान शक्तियों का गान करते हैं। इसके बाद कवि वीरों का यशोगान करते हैं। इसके बाद नाटकों की सृष्टि होती है, फिर शृंगार-रस पर काव्य-रचना होती है, भाषा का माधुर्य बढ़ता है, अलंकारों की ध्वनि सुन पड़ती है और पद-नैपुण्य प्रदर्शित किया जाता है। इसके बाद सांसारिक विषयों से घृणा होती है। भक्ति के उन्मेष में कोई प्रकृति का आश्रय लेता है, कोई प्राचीन आदर्शों का।
  • बाह्य प्रकृति के बाद मनुष्य अपने अन्तर्जगत की ओर दृष्टिपात करता है। तब साहित्य में कविता का रूप परिवर्तित हो जाता है। कविता का लक्ष्य ‘मनुष्य’ हो जाता है। संसार से दृष्टि हटा कर कवि व्यक्ति पर ध्यान देता है। तब उसे आत्मा का रहस्य ज्ञात होता है। वह सान्त (स + अन्त) में अनन्त का दर्शन करता है और भौतिक पिण्ड में असीम ज्योति का आभास पाता है।
  • अभी तक वह मिट्टी में सने हुए किसानों और कारखाने से निकले हुए मैले मजदूर को अपने काव्य का नायक बनाना नहीं चाहता था। वह राजस्तुति, वीरगाथा अथवा प्रकृति-वर्णन में लीन रहता था। परन्तु अब वह क्षुद्रों की भी महत्ता देखेगा और तभी जगत् का रहस्य सबको विदित होगा। जगत् का रहस्य क्या है, इस पर एक ने कहा है कि असाधारण में यह रहस्य नहीं है। जो साधारण है वही रहस्यमय है, वही अनन्त सौंदर्य से युक्त है। इसी सौंदर्य को स्पष्ट कर देना भविष्य-कवियों का काम होगा।
  • क्षीण शक्ति और राजनीतिक स्वत्व से हीन हिन्दू भगवान का आश्रय खोजे और भक्तिरस के काव्यों में तल्लीन हो जाय तो आश्यर्च नहीं। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, ‘कविता का भविष्य’ निबन्ध में भक्तिकाव्य के अम्युदय के सन्दर्भ में (सन १९२० में)
  • राज्याश्रय मिलने की देरी, राजाओं को सब प्रकार की नायिकाओं के रसास्वादन का आनन्द चखाने के लिए कविजी की देरी नहीं। दस वर्ष की अज्ञात यौवना से लेकर पचास वर्ष की प्रौढ़ा तक सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद बतलाकर और उनके हाव-भाव, विलास आदि की सारी दिनचर्या वर्णन करके कविजन संतोष नहीं करते थे। दुराचार में सुकरता के लिए दूती कैसी होनी चाहिए, मालिन, नाइन, धोबिन में से इस काम के लिए कौन सबसे प्रवीण होती है, इन बातों का भी वे निर्णय करते थे। नायक के सहायक बिट और चेटक आदि का वर्णन करने में भी वे नहीं चूकते थे। इस प्रकार की पुस्तकों अथवा कविताओं का बनना अभी बन्द नहीं, वे बराबर बनती जाती हैं। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, ‘नायिका भेद’ नामक निबन्ध में, जो ‘सरस्वती’ के जून, 1901 ई॰ के अंक में छपा था
  • प्रकृत कवि क्या नहीं कर सकता ? वह रोते हुओं को हँसा सकता है, सोते हुओं को जगा सकता है, देशद्रोहियों को देशभक्त बना सकता है और मार्ग-भ्रष्टों को सुमार्ग में ला सकता है। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी, जनवरी, 1926 ई॰ में 'कविकिंकर' नाम से ‘सरस्वती’ में ‘कवि-सम्मेलन’ शीर्षक के एक लेख में
  • अब उर्दू कवियों और मुशायरों की देखा-देखी हिन्दी के भी कवियों के खूब सम्मेलन हो रहे हैं और समस्या-पूर्तियों का तूफान-सा आ रहा है।
  • ब्रजभाषा की कविता के पक्षपातियों को जानना चाहिए कि अब उसका समय गया। उसका तिरोभाव अवश्यंभावी है। अब वह पुरानी प्राकृत भाषाओं के काव्य और साहित्य की तरह केवल पुस्तकों में ही पायी जायेगी। समय को उसकी चाह नहीं। यह बात हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं।
  • कवियों की दलबन्दी को विवेकशील जन निंद्य समझें, समझा करें। कुछ भी क्यों न हो जाये, पर कवियों की शान में फ़रक न पड़े। --महावीर प्रसाद द्विवेदी, कवियों में दलबन्दी पर व्यंग्य करते हुए
  • दलबन्दी भारत के भाग्य ही में लिख-सी गयी है। देखिए न, लिबरल, इंडिपेंडेंट, स्वराजिस्ट - सभी आपस में दलबन्दी कर रहे हैं। दल के भीतर दल पैदा हो रहे हैं। फिर कवि यदि अपने फ़िरके अलग-अलग बनावें तो क्या आश्यर्च ? -- भारत की राजनीतिक पार्टियों पर व्यंग्य करते हुए

महावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में उक्तियाँ[सम्पादन]

  • उनके सुदृढ़ विशाल और भव्य कलेवर को देखकर दर्शक पर सहसा आतंक छा जाता था और यह प्रतीत होने लगता था कि मैं एक महान् ज्ञानराशि के नीचे आ गया हूँ। -- आचार्य किशोरी दास वाजपेयी
  • द्विवेदीजी ने अपने साहित्यिक जीवन के आरम्भ में पहला काम यह किया कि उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। उन्होंने जो पुस्तक बड़ी मेहनत से लिखी और जो आकार में उनकी और पुस्तकों से बड़ी है, वह ‘सम्पत्तिशास्त्र’ है। ..... अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के कारण द्विवेदी जी बहुत-से विषयों पर ऐसी टिप्पणियाँ लिख सके जो विशुद्ध साहित्य की सीमाएँ लाँघ जाती हैं। इसके साथ उन्होंने राजनीतिक विषयों का अध्ययन किया और संसार में जो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ हो रही थीं, उन पर उन्होंने लेख लिखे। राजनीति और अर्थशास्त्र के साथ उन्होंने आधुनिक विज्ञान से परिचय प्राप्त किया और इतिहास तथा समाजशास्त्र का अध्ययन गहराई से किया। इसके साथ भारत के प्राचीन दर्शन और विज्ञान की ओर इन्होंने ध्यान दिया और यह जानने का प्रयत्न किया कि हम अपने चिंतन में कहाँ आगे बढ़े हुए हैं और कहाँ पिछड़े हैं। इस तरह की तैयारी उनसे पहले किसी सम्पादक या साहित्यकार ने न की थी। परिणाम यह हुआ कि हिन्दी प्रदेश में नवीन सामाजिक चेतना के प्रसार के लिए वह सबसे उपयुक्त व्यक्ति सिद्ध हुए। -- डाॅ॰ रामविलास शर्मा
  • द्विवेदीजी ने सन् 1903 ई॰ में ‘सरस्वती’ के सम्पादन का भार लिया। तब से अपना सारा समय लिखने में ही लगाया। लिखने की सफलता वे इस बात में मानते थे कि पाठक भी उसे बहुत-कुछ समझ जायँ। कई उपयोगी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने फुटकल लेख भी बहुत लिखे। पर इन लेखों में अधिकतर लेख ‘बातों के संग्रह’ के रूप में ही है। भाषा के नूतन शक्ति चमत्कार के साथ नए-नए विचारों की उद्भावना वाले निबन्ध बहुत ही कम मिलते हैं। स्थायी निबन्धों की श्रेणी में दो चार ही लेख, जैसे ‘कवि और कविता’, ‘प्रतिभा’ आदि आ सकते हैं। पर ये लेखनकला या सूक्ष्म विचार की दृष्टि से लिखे नहीं जान पड़ते। ‘कवि और कविता’ कैसा गम्भीर विषय है, कहने की आवश्यकता नहीं। पर इस विषय की बहुत मोटी-मोटी बातें बहुत मोटे तौर पर कही गई है। -- रामचन्द्र शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास में)
  • कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेदी जी के लेख या निबन्ध विचारात्मक श्रेणी में आएँगे। पर विचार की वह गूढ़ गुंफित परम्परा उनमें नहीं मिलती जिससे पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नई विचारपद्धति पर दौड़ पड़े। शुद्ध विचारात्मक निबन्धों का चरम उत्कर्ष वही कहा जा सकता है जहाँ एक पैराग्राफ में विचार दबा दबाकर कसे गए हों और एक एक वाक्य किसी संबद्ध विचारखण्ड को लिए हों। द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
  • यद्यपि द्विवेदीजी ने हिन्दी के बड़े बड़े कवियों को लेकर गम्भीर साहित्य समीक्षा का स्थायी साहित्य नहीं प्रस्तुत किया, पर नई निकली पुस्तकों की भाषा की खरी आलोचना करके हिन्दी साहित्य का बड़ा भारी उपकार किया। यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसा अव्यवस्थित, व्याकरणविरुद्ध और ऊटपटाँग भाषा चारों और दिखाई पड़ती थी, उसकी परम्परा जल्दी न रुकती। उसके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया। -- रामचन्द्र शुक्ल
  • पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्पष्टवादिता से भरे हुए और नयी प्रेरणा देने वाले निबन्ध यद्यपि बहुत गंभीर नहीं कहे जा सकते, परन्तु उन्होंने गम्भीर साहित्य के निर्माण में बहुत सहायता पहुँचाई। -- हजारीप्रसाद द्विवेदी ( ‘हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास’ ; 1952 ई॰ )
  • आर्य, आपके मनःस्वप्न को ले पलकों पर
भावी चिर साकार कर सके रूप-रंग भर,
दिशि-दिशि की अनुभूति, ज्ञान-विज्ञान निरंतर
उसे उठावें युग-युग के सुख-दुख अनश्वर
-- सुमित्रानंदन पंत (1931-32)
  • आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं (महावीर प्रसाद द्विवेदी) के बनाए हुए हैं। यदि पं॰ महावीर प्रसाद द्विवेदी न होते तो बेचारी हिन्दी कोसों पीछे होती - समुन्नति की इस सीमा तक आने का उसे अवसर ही नहीं मिलता। उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ-प्रदर्शक का काम भी किया। -- प्रेमचंद, ‘हंस’ के द्विवेदी जी पर विशेषांक में, 1933 ई॰
  • द्विवेदीजी का व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली है। मुखमण्डल पर दृष्टि डालते ही यह बात स्पष्ट मालूम हो जाती है कि उनमें रचनात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई है, वे सच्चे युग-प्रवर्तक हैं, उनमें क्रांति ले आने की विलक्षण क्षमता है। उन्नत ललाट, घनी भौंहें, रोबदार मूँछें, रसभरी गंभीर आँखें और जलद-गंभीर वाणी - उनकी विशिष्टता ज्ञापित करती है और देखने से ऐसा मालूम पड़ता है मानो किसी ऐसे व्यक्ति के पास हैं जो हमारे लिए हमारे बीच भेजा गया है - जो सब तरह से हमारा ही है। ....... हमारे लिए उन्होंने वह तपस्या की है, जो हिन्दी साहित्य की दुनिया में बेजोड़ ही कही जाएगी। किसी ने हमारे लिए इतना नहीं किया, जितना उन्होंने। वे हिन्दी के सरल सुन्दर रूप के विधायक बने, हिन्दी साहित्य में विश्व-साहित्य के उत्तमोत्तम उपकरणों का उन्होंने समावेश किया, दर्जनों कवि, लेखक और संपादक बनाये। जिसमें कुछ प्रतिभा देखी उसी को अपना लिया और उसके द्वारा मातृभाषा की सच्ची सेवा कराई। हिन्दी के लिए उन्होंने अपना तन, मन, धन सब कुछ अर्पित कर दिया। हमारी उपस्थित उपलब्धि उन्हीं के त्याग का परिणाम है। -- प्रेमचंद
  • द्विवेदी जी का जीवन साहित्य, साधना और तप का जीवन है। .... साहित्य की लगन का कितना ऊँचा आदर्श है। कहाँ से क्या लें और उसे किस तरह अच्छे-से-अच्छे रूप में संसार को दें, यही धुन है। जनहित का कोई अंग उनसे नहीं छूटा। जहाँ कोई उपयोगी चीज देखी, चाहे वह पुरातत्त्व से संबंध रखती हो, या दर्शन से, या भाषा-विज्ञान से, या प्राकृतिक दृश्यों से, उसे पाठकों के लिए संकलन करना उनका कत्र्तव्य था। वह जिस चीज को पढ़कर स्वयं आनंदित होते थे, उसका रस पाठकों को चखाना एक लाजिमी बात थी। ‘सरस्वती’ की फाइल उठाकर द्विवेदी जी की संपादकीय टिप्पणियाँ देखिए, विविध ज्ञान का भंडार है। ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर द्विवेदीजी ने न लिखा हो, गहरे से गहरे तात्त्विक विवेचन और साधारण-से-साधारण दंतकथाएँ तक आपको उनमें मिलेंगी, और आप उस व्यक्ति के ज्ञान-विस्तार पर चकित हो जाएँगे। और यह काम किसी विद्या और ज्ञान के केन्द्र में बैठकर नहीं, एक गाँव की एकांत कुटिया में होता था। साहित्य की वह छटा उसी कुटिया से निकलकर, हिन्दी-संसार को आलोकित कर देती थी। -- प्रेमचन्द, मई, 1933 के ‘हंस’ के सम्पादकीय में
  • उस दिन उनका प्रयाग में, कैसा अभूतपूर्व स्वागत हुआ था ! देश के कोने-कोने से राष्ट्रभाषा के पुजारी, अपने इष्टदेव के चरणों में श्रद्धा के स्नेहमय फूल चढ़ाने के लिए - उनकी एक झलक से अपने जीवन को सफल बनाने के लिए - उमड़ पड़े थे। वह उस दिन कैसा भव्य लगते थे ! कभी उनके मुखमण्डल पर वृहस्पति का पाण्डित्य प्रतिबिम्बित हो उठता था, तो कभी सरस्वती की प्रतिभा ! सहस्रों साहित्यसेवियों के बीच में वह भोले-भाले, दम्भहीन, विनयशील महापुरुष हीरे की तरह चमक रहे थे। वह हिन्दी भाषा के प्रकाण्ड पंडित हैं। हिन्दी-भाषा के सर्वश्रेष्ठ संपादक, समालोचक और लेखक हैं। हिन्दी भाषा कैसे लिखी जाती है, यह उन्होंने लिखकर दिखा दिया, पत्र का सम्पादन कैसे किया जाता है, यह उन्होंने स्वयं सम्पादन करके बता दिया, समालोचना क्या वस्तु है, यह उन्होंने अपनी समालोचनाओं द्वारा व्यक्त कर दिया। वह आधुनिक हिन्दी के निर्माता हैं। विधाता हैं। सर्वस्व हैं। वह राष्ट्रभाषा हिन्दी के मूर्तिमान स्वरूप हैं। उन्हें लोग आचार्य कहते हैं - वह सचमुच आचार्य हैं। आधुनिक हिन्दी की उन्नत्ति और विकास का अधिकांश श्रेय उन्हीं आचार्य को है। वह तो अपने को राष्ट्रभाषा के विनम्र सेवक बतलाते हैं, राष्ट्रभाषा उन्हें अपना निर्माता कहकर पुकारती है। दोनों एक-दूसरे के अनन्य भक्त हैं, प्रगाढ़ प्रेमी हैं। हम दोनों ही के उपासक हैं। राष्ट्रभाषा हमें प्राणों से प्यारी है, आचार्य भी हमें उतने ही प्रिय हैं। वह इतने बड़े होकर भी हमसे कितने प्यार से बोलते हैं। वह इतने ऊँचे होकर भी हम तुच्छ साहित्य-सेवियों से किस स्नेह से मिलते हैं ! यह उनकी उदारता है, बड़प्पन है। वह हमें पथभ्रष्ट होते देख चुमकारकर, बड़े मधुर शब्दों में, चेतावनी देते हैं - कभी रौद्र-रूप धारण कर झिड़की नहीं देते। वह हमें गलती करते देख कटु शब्द नहीं कहते, वरन् बड़े प्यार से हमें सावधान करते तथा हमारी भूल संशोधन करते हैं। हिन्दी-संसार ने ऐसे असाधारण, असामान्य तथा अलौकिक व्यक्ति की जयन्ती मनाकर वास्तव में अपना आदर किया है। आचार्य सचमुच आदर तथा उपासना के पात्र हैं। वह चिरायु हों, अमर हों, हमारी परमेश्वर से यही प्रार्थना है। -- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ने ‘सुधा’ के जुलाई, 1933 के अंक में, मई, 1933 ई॰ में ही हिन्दी साहित्य सम्मेलन और इंडियन प्रेस के सहयोग से प्रयाग के ‘द्विवेदी-मेला’ की भव्यता के बारे में
  • साहित्य-क्षेत्र में प्रचलित धारणा यह है कि द्ववेदी-युग की स्थूल इतिवृतात्मक कविता के विरूद्ध प्रतिक्रिया के रूप में ‘छायावाद’ नामक सूक्ष्म लाक्षणिक काव्य-प्रवृत्ति का उदय हुआ। इस धारणा में आंशिक सच्चाई हो सकती है, पर महत्त्वपूर्ण वास्तविकता यह है कि छायावाद एक नहीं है, उसके अनेक रूप हैं। एक छायावाद नये प्रकार के यथार्थवाद का समर्थक है, जिसे द्विवेदी युगीन देसी स्वच्छन्दतावाद और सांस्कृतिक नवजागरण से सम्बद्ध करके देखा जा सकता है। .... अंग्रेजी राज, जमींदारी प्रथा, किसान आन्दोलन जैसे विषयों पर लिखते हुए निराला उसी नवजागरण के पोषक जान पड़ते हैं, जिसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने लेखन के द्वारा प्रतिपादित किया था। -- डा॰ परमानन्द श्रीवास्तव