मन्त्री

विकिसूक्ति से
  • वैद्यो गुरुश्च मन्त्री च यस्य राज्ञः प्रियंवदाः ।
शरीर-धर्म-कोशेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते॥ -- हितोपदेश
जिस राजा के वैद्य, गुरु और मन्त्री प्रिय बोल्ने वाले होते हैं, उस राजा का शरीर, धर्म और राजकोश शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
  • सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ -- गोस्वामी तुलसीदास
मन्त्री, वैद्य और गुरु ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से (हित की बात न कहकर) प्रिय बोलते हैं तो (राजा के) राज्य, शरीर एवं धर्म - इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
  • एकोऽप्यमात्यो मेधावी शूरो दक्षो विचक्षणः ।
राजानं राजमात्रं वा प्रापयेन्महती श्रियं ॥ -- महासुभषितसंग्रह
यदि किसी राज्य में केवल एक भी मन्त्री बुद्धिमान, शूरवीर, कार्यकुशल तथा विद्वान हो तो वह राजा या राज्य के प्रशासन से बहुत अधिक सम्मान ओर श्रेय प्राप्त करता है।
  • वाक्पटुर्धैर्यवान् मन्त्री समायामप्यकातरः।
स केनापि प्रकारेण परैर्न परिभूयते ॥ --
जो मन्त्री बोलने में चतुर, धैर्यवान् और (भरी) सभा में भी न हिचकिचाने वाला होता है, उसे अन्य लोग किसी भी प्रकार से पराजित नहीं कर सकते।
  • एवमल्पश्रुतो मन्त्री कल्याणाभिजनोऽप्युत ।
धर्मार्थकामसंयुक्तं नालं मन्त्रं परीक्षितुं ॥ -- महासुभषित सङ्ग्रह
कोई कम शिक्षित मन्त्री चाहे वह सज्जन हो तथा उच्च कुल में उत्पन्न हुआ भी क्यों न हो, उसके द्वारा दिये गये धर्म, अर्थ (धन संपत्ति) काम ( विभिन्न इच्छायें) से सम्बन्धित परामर्श को भली भांति जांच लेना चाहिये क्योंकि उसमें योग्यता की कमी हो सकती है।
  • अबला यत्र प्रबला बालो राजा ( शिशुरवनीतो ) निरक्षरो मन्त्री ।
नहि नहि तत्र धनाशा जीवित आशापि दुर्लभा भवति ॥
जहाँ स्त्री वृत्ति का वर्चस्व होता है, राजा बालबुद्धि होता है, और मंत्री अशिक्षित होते हैं, वहाँ धन की आशा तो दूर, जीवन की आशा रखना भी दुर्लभ है !
  • यथा नेच्छति नीरोगः कदाचित् सुचिकित्सकम् ।
तथाऽऽपद्रहितो राजा सचिवं नाभिवाञ्छति ॥ -- पञ्चतन्त्र
जैसे, नीरोग मनुष्य अच्छा होने पर भी किसी समय चिकित्सक के पास (पाश) में जाना नहीं चाहता, वैसे (अन्तर्बाह्य) आपत्तियों से मुक्त राजा मन्त्री के पास (पाश) में जाना नहीं चाहता।

इन्हें भी देखें[सम्पादन]