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मनु स्मृति

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मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक स्मृतिग्रन्थ है जिसकी रचना मनु ने की थी।

उद्धरण

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धर्म

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  • धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ -- ६।९२
धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (साफ-सफाई), इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध (क्रोध न करना) – ये धर्म के दश लक्षण हैं ।
  • आचारः परमो धर्मः -- मनुस्मृति: १।१०८ ॥
आचरण ही परम धर्म है।
  • वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विराम्।
आचारश्चैव साधूनामात्मस्तुष्टिरेव च ॥
सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय, वेदज्ञाताओं मनु आदि के स्मृति ग्रन्थ तथा उनका शिष्ट व्यवहार, महापुरुषों के सत्याचरण, अपने मन की प्रसन्नता-ये सभी धर्म के प्रमाण रूप में ग्रहण करने चाहिए।
  • श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिठन् हि मानवः।
इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम॥
मनुष्य वेदों व स्मृतियों में कहे गये धर्म का सेवन करते हुए संसार में निर्मल कीर्ति प्राप्त करता है तथा मृत्यु के पश्चात् परलोक में परमानन्द को अधिगत कर लेता है।
  • योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥
जो कोई विद्वान द्विज धर्म की मूलाधार श्रुतियों एवं स्मृतियों की निन्दा या अपमान करे तो सत्पुरुषों को उस वेद निन्दक अधम व्यक्ति को समस्त श्रेष्ठ कर्मों से अलग कर देना चाहिए।
  • सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं च ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥ ४।१३८ ॥
सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, परन्तु अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिये। प्रिय लगाने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है ।

वर्ण-व्यवस्था

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  • सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः ।
मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत् ॥ -- मनुस्मृति (१- ८७ )
भावार्थ - इस सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिये उस अत्यन्त कान्तियुक्त ( सृष्टिकर्ता) ने अपने मुख, भुजा, जंघाए, तथा पैरों से उत्पन्न किये हुए (क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र ) के लिये अलग-अलग कर्मों की रचना की।
  • अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्बिषम्।
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (मनुस्मृति ८.३३७)
ब्राह्मणस्य चतु:षष्टि: पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतु:षष्टिस्तद्दोषगुणविद्धि स: ॥ (मनुस्मृति ८.३३८)
चोरी करने पर शूद्र को चोरी से आठ गुणा, वैश्य को सोलह गुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा, ब्राह्मण को चौंसठ गुणा, सौ गुणा या एक सौ अट्ठाईस गुणा दंड हो। (अर्थात् जिसका जितना ज्ञान और जितनी अधिक प्रतिष्ठा हो, उसको उतना ही अधिक दंड होना चाहिए। )
  • सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा॥ (मनुस्मृति-२.१६२)
ब्राह्मण को सम्मान से वैसे ही परहेज करना चाहिए जैसे कोई विष से परहेज करता है। इसके विपरीत अपनी अवमानना की कामना इतनी उत्सुकता से करनी चाहिए मानो कोई अमृत मिलने वाला हो।
  • शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥ (मनुस्मृति-१०.६५)
शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। गुण-कर्मानुसार ब्राह्मण या तो ब्राह्मण ही रह सकता है या फिर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के गुणों वाला हो तो वो क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र हो जाता है। वैसे ही शूद्र भी यदि उत्तम गुणयुक्त हो तो यथायोग्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। ऐसा ही क्षत्रिय और वैश्य के विषय में है।

संस्कार

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  • वैदिकेः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिद्विजन्मनाम्।
कार्यः शरीरसंस्कार : पावनः प्रेत्य चेह च ॥
भृगु ऋषि निर्देश देते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्गों के पवित्र वैदिक मन्त्रों द्वारा इस लोक में तथा मृत्यु पश्चात् सम्पूर्ण शारीरिक गर्भाधानादि संस्कार अवश्य करने चाहिए।
  • प्राड्नाभिवर्धनात्पुंसो जातकर्म विधीयते।
मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरभ्यमधुसर्पिषाम ॥
इस श्लोक में नवजात बालकों का जातकर्म संस्कार का विधान बताया जाता है। यथा नाल काटने से पूर्व नवजात शिशु का जातकर्म संस्कार सम्पन्न होता है। इस समय स्वर्ण को सलाई से घृत, मधुमिश्रित प्राशन किया जाता है। अर्थात् बालक का पिता मन्त्र-उच्चारण पूर्वक बच्चे को मधु और घी चटाता है और बच्चे की जीभ पर ' ओउम् ' लिखता है।
  • माडुल्य ब्राह्मणस्य त्र्याक्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥
ब्राह्मण शिशु का नाम मांगलिक, क्षत्रिय शिशु का नाम बल युक्त, वैश्य के बालक का नाम समृद्धि सूचक तथा शुद्ध के बच्चे का नाम निन्दनीय होना चाहिये।
  • चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोर्निष्कमणं गृहात्।
षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मलं कुले ॥
चतुर्थ मास में बालकों को घर से बाहर निकालना चाहिये। छठेमास में दाल-भात आदि सुपाच्य आहार देना चाहिये। अथवा कुल के अनुसार मांगलिक सभी आचार सम्पादित करने चाहिये।
  • गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वोत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तुं द्वादशे विशः ॥
ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य के शिशु का गर्भ से बारहवें वर्ष में सम्पन्न कराना चाहिये।
  • अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।
सावित्रीपतिताः व्रत्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः ॥
पूर्वोक्त समय के बाद ये तीनों ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य वर्ण समुचित समय में जिनका उपनयन संस्कार सम्पादित नहीं हुआ है गायत्री मन्त्र के अधिकार से वंचित अतः पतित एवं शिष्टों द्वारा निन्दनीय शूद्रत्व के प्राप्त कर लेते हैं।
  • कार्ष्णंरौरववास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः।
वसीरन्नानुपूर्वेण शाणक्षौमाविकानि च ॥
यहाँ भृगुऋषि तीनों वर्गों के ब्रह्मचारियों के लिए धारणा करने योग्य वस्त्रों का विधान बतलाते हैं। ब्राह्मण आदि वर्गों के ब्रह्मचारी क्रमशः कृष्णमृग, रूरूमृग तथा बकरे के चमड़े की धोती एवं कौपीन के स्थान पर धारण करें, और सन, रेशम और भेड़ के बाल अर्थात् ऊन से बने हुए वस्त्रों को धारण करें।
  • केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमाणत।
ललाटसम्मितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः ॥
अब ऋषि ब्रहाचारियों के धारण योग्य दण्ड का मान बताते हैं। धर्मशास्त्र के प्रमाणानुसार ब्राहाण अपने सिर के केशों तक, क्षत्रिय मस्तक पर्यन्त और वैश्य नाक पर्यन्त परिमाण अनुवाद ( लम्बाई ) वाले दण्ड को धारण करे।
  • प्रतिगृह्येप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम्।
प्रदक्षिणं परीत्याग्नि चरेद् भैक्षं यथाविधि ॥
ब्राह्मणादि वर्गों के ब्रह्मचारियों को शास्त्र के नियमानुसार अपने इष्ट दण्ड को ग्रहण कर सूर्य का उपस्थान कर, अग्नि को प्रदक्षिणा कर भिक्षाचरण करना चाहिए।
  • मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनी निजाम्।
भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत् ॥
ब्रह्मचारी को सबसे पहले अपनी माता, अपनी बहिन, तथा मौसी से भिक्षा की याचना करनी चाहिए और उन्हें भी किसी प्रकार ब्रह्मचारी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
  • उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहितः।
भुक्त्वा चोपस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत ॥
ब्रह्मचारी तथा गृहस्थद्विज भी एकाग्रचित हो आचमन कर जल से आचमन करे तथा इन्द्रियों, आँख, नाक तथा कानों के छिन्द्रो को भी जल स्पर्श करे।
  • ब्राह्मण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत्।
कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन॥
विप्र को सदा ब्राह्म नामक तीर्थ से अथवा प्राजापत्य और दैवतीर्थों से आचमन करना चाहिए, पितृतीर्थ द्वारा तो कभी भी आजमन नहीं करना चाहिए।
  • अष्ठमूलस्य तले बाह्य तीर्थ प्रचक्षते।
कायम लिमूलेऽगे दैवं पियं तयोरधः ॥
हाथ के अंगूठे के पास ब्राह्म तीर्थ, कनिष्ठिका अंगुली के मूल के पास 'प्रजापति' तीर्थ, अंगुलियों के आगे 'दैवतीर्थ' और अंगूठे तथा प्रदेशिनी ( तर्जनी ) अंगुली के मध्य पितृतीर्थ होता है।
  • मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्।
अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवत् ॥
ब्रह्मचारी के यदि मेखला, मृग चर्म, पालाशादि से बना हुआ दण्ड, यज्ञोपवीत, कमण्डलु-ये नष्ट हो गये हों तो इन्हें जल में फेंककर अन्य नवीन मन्त्रपाठपूर्वक ग्रहण कर लेने चाहिए।
  • अध्येष्यमाणस्त्वाचान्तो यथाशास्त्रमुदङ्मुखः।
ब्रह्माञ्जलिकृतोऽध्याप्यो लधुवासा जितेन्द्रियः ॥
विद्याध्यन के लिये उद्यत, आचमन किया हुआ, ब्रह्मान्जलि से युक्त, अल्प और हलके वस्त्र धारण करने वाला, इन्द्रियजयी शिष्य ही शास्त्रानुसार अध्यापन के योग्य है।
  • ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा।
स्रवत्यनोड्कृतं पूर्वं पुरस्ताच्चविशीर्यति ॥
वेद-विधा के अध्ययन की विधि बतलाई जाती है। ब्रह्मचारी को सदा अपने गुरूचरणों में वेदाध्ययन के पूर्व और अवसान में ' ओमकार ' का उच्चारण करना चाहिए क्योंकि ' ओऽम ' इस मंत्र के उच्चारण से विहीन वेदाध्ययन शनैः शनैः नष्ट हो जाता है विस्मृत हो जाता है।
  • एतयर्चा विसंयुक्तः काले न क्रियया स्वया।
ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां जाति साधुषु ॥
इस गायत्री महामन्त्र के जप से और अपने सदाचारादि कर्तव्यों से विरहित हुआ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सज्जनों में निन्दा को प्राप्त करता है।
  • योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत खमूर्तिमान् ॥
जो द्विज आलस्य छोड़कर प्रतिदिन प्रणय और व्यहतियों के साथ गायत्री-महामन्त्र का तीन वर्षपर्यन्त जप करता है, वह इस मन्त्र के प्रभाव से अपना गायत्री मन्त्रमय परमात्मा के अनुग्रह से आकाशरूप होकर सच्चिदानन्दस्वरूप पर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।

राजा एवं राज्य

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  • अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात् ।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत् प्रभुः ॥ मनु० ७।३ ॥
अर्थात् बिना राजा के इस लोक में सब ओर अराजकता फैल जायेगी, जिसके कारण सब लोग सब ओर से भय को प्राप्त होंगे (इस स्थिति का आज हम पर्याप्त मात्रा में अनुभव कर रहे हैं !) । इन सबकी रक्षा के लिए परमात्मा ने राजा को बनाया । अर्थात् राजा का प्रमुख धर्म प्रजा की रक्षा करना है ।
  • इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च ।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः ॥ मनु० ७।४ ॥
ईश्वर ने जो राजा की सृष्टि की (उपर्युक्त श्लोक में), उसमें इन्द्र, अनिल = वायु, यम, अर्क (= सूर्य), अग्नि, वरुण, चन्द्र और वित्तेश (= कुबेर) के शाश्वत् अंश, अर्थात् उनके मुख्य, सार-रूप अंश होने चाहिए । अर्थात् राजा में इन दैवी शक्तियों के मुख्य गुण पाए जाने चाहिए ।
  • वार्षिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति ।
तथाभिवर्षेत् स्वं राष्ट्रं कामैरिन्द्रव्रतं चरन् ॥ मनु० ९।३०४ ॥
जिस प्रकार इन्द्र, या प्रकृति की वृष्टि-शक्ति, वर्ष में चार माह वर्षा करके सबको तृप्त कर देता है, वैसे ही राजा को अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि-शान्ति-उन्नति की इच्छाओं को पूर्ण करना चाहिए । उसको अपनी प्रजा को ऐश्वर्य-युक्त करना चाहिए । यह उसका इन्द्रव्रत कहलाता है ।
  • अष्टौ मासान् यथादित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः ।
तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ मनु० ९।३०५ ॥
जिस प्रकार शेष आठ मास सूर्य, अपनी किरणों के द्वारा, सब वस्तुओं में से जल हरता रहता है, उसी प्रकार राजा भी, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, नित्य कर की वसूली करे । यह उसका अर्कव्रत होता है ।
  • प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः ।
तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम् ॥ मनु० ९।३०६ ॥
जिस प्रकार वायु सब वस्तुओं में प्रविष्ट होती है, उसी प्रकार राजा को गुप्तचरों द्वारा अपनी राष्ट्र के हर भाग में प्रवेश करके, वहां की सूचना रखनी चाहिए । यह उसका मारुतव्रत कहलाता है । जो राजा अपनी प्रजा के अनकहे दुःख-दर्द नहीं जानेगा, और उनका समाधान नहीं करेगा, वह आगे जाकर स्वयं अपने पद से च्युत होगा ।
  • यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति ।
*तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतं ॥ मनु० ९।३०७ ॥
जिस प्रकार यम, अर्थात् परमात्मा का नियन्त्रक स्वरूप, समय आने पर कर्मानुसार सब को प्रिय या अप्रिय कर्मफल देकर नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार राजा को प्रजा को दण्ड और लाभ देकर नियन्त्रण में रखना चाहिए । यह उसका यमव्रत होता है ।
  • वरुणेन यथा पाशैर्बद्धः एवाभिदृश्यते ।
तथा पापान् निगृह्णीयाद्व्रतमेतद्धि वारुणम् ॥ मनु० ९।३०८ ॥
जिस प्रकार मनुष्य पानी के भँवर में वरुण द्वारा जाल में बांधा हुआ सा दीखता है, उसी प्रकार राजा को पापियों को कारागार के बन्धन में डालना चाहिए, जिससे अन्य प्रजा भय-रहित होकर रह सके । यह उसका वारुणव्रत होता है ।
  • परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः ।
तथा प्रकृतयो यस्मिन् स चान्द्रव्रतिको नृपः ॥ मनु० ९।३०९ ॥
जिस प्रकार पूरे चाँद को देखकर मानव हर्ष करते हैं, वैसी ही प्रकृति राजा की होनी चाहिए । अर्थात् राजा की आर्थिक व नैयायिक व्यवस्था से सन्तुष्ट जन उसको देखकर आह्लादित होने चाहिए । वही राजा चान्द्रव्रतिक कहलाता है ।
  • प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु ।
दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतं ॥ मनु० ९।३१० ॥
जिस प्रकार अग्नि शाक, धातु, आदि के दोषों को जला देती है, उसी प्रकार राजा को चाहिए कि वह पापकर्मों में प्रतापी और तेजस्वी हो, अर्थात् स्वयं भयभीत न हो, अपितु पापी को भय दिलाए, और दुष्ट मन्त्री, अधिकारी तक को भी कठोर दण्ड दे । राजा के प्रतिनिधि ही यदि अत्याचार करेंगे, तो प्रजा में न्यायव्यवस्था स्थापित ही नहीं हो सकती । यह राजा का आग्नेयव्रत होता है ।
  • यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् ।
तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतं ॥ मनु० ९।३११ ॥
जिस प्रकार पृथ्वी सब प्राणियों को, बिना भेद-भाव के, समान भाव से धारण करती है, उसी प्रकार राजा को सारी प्रजा का पक्षपात-रहित होकर पालन-पोषण करना चाहिए । यह उसका पार्थिव व्रत कहलाता है ।
  • एतैरुपायैरन्यैश्च युक्तो नित्यमतन्द्रितः ।
स्तेनान् राजा निगृह्णीयात् स्वराष्ट्रे पर एव च ॥ मनु० ९।३१२ ॥
ऊपर दिए सारे व्रतों के द्वारा और अन्य उपायों के द्वारा भी, आलस-रहित होकर, राजा सर्वदा अपने राष्ट्र और दूसरे देशों से आए हुए घुसपैठी चोरों को अपने वश में रखे । किसी भी प्रकार की हानि से, हर सम्भव उपाय के द्वारा, प्रजा और राष्ट्र को राजा बचाए ।

नारी

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  • यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥"
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती, (उनका सम्मान नही होता) वहाँ किये गये समस्त कर्म निष्फल हो जाते हैं।
  • शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ॥ -- मनुस्मृति ३/५७
जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं ,वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है वह कुल सदैव फलता फूलता और समृद्ध रहता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)
  • स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वत: ॥ (मनुस्मृति-२.२४०)
स्त्रियाँ नाना प्रकार के रत्न, विद्या, धर्म, पवित्रता, श्रेष्ठ भाषण और विविध शिल्पविद्या सबसे (सब देशों तथा सब मनुष्यों से) ग्रहण करें।
  • वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृत।
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥
नारियों का पाणि-ग्रहण संस्कार ही गृहम सूत्रों में कहा गया संस्कार है। निष्ठापूर्वक पतिसेवा ही गुरूकूल में निवास है। गृहकार्य को कुशलता से करना ही यज्ञ का अनुष्ठान है।

गृहस्थ

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  • यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम् ।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ॥ -- मनुस्मृतिः ३।७८ ॥
क्योंकि बाकी तीनों ही आश्रमी गृहस्थ से प्रतिदिन अन्न, वस्त्रादि, दान प्राप्त करते हैं, इसलिए वस्तुतः गृहस्थी ही उनको धारण करता है । इस कारण से, गृहस्थाश्रम ही सबमें बड़ा है ।
  • दैवकर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम् ॥ -- मनु० ३।७५ ॥
गृहस्थ देवयज्ञ के द्वारा सारे चराचर जगत् का भरण करता है ।

भारत या आर्यावर्त

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  • आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्त विदुर्बुधाः ॥
पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र तक हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य में जो प्रदेश ( भू-भाग ) विराजमान है, उसे विद्वान् पुरुष ' आर्यावर्त ' नाम से जानते हैं।
  • एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्त्रं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥
ऋषि संसार के मनुष्यों को सम्बोधित करते हैं कि भूतल के सम्पूर्ण मनुष्यों की ब्रह्मावर्त देश में उत्पन्न ज्ञान साधनारत ब्राह्मण के चरित्र से अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।

विविध

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  • वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं यथाकालमतन्द्रितः ।
तं ह्यस्याहुः परं धर्ममुपधर्मोऽन्य उच्यते ॥ मनु० ४।१४७ ॥
जितना समय मिले, उतना समय, बिना आलस्य किए, नित्य वेदाभ्यास करना चाहिए क्योंकि वही परम धर्म है; अन्य सभी धर्म उपधर्म ही हैं ।
  • सर्वान् परित्यजेतर्थान् स्वाध्यायस्य विरोधिनः ।
यथातथाध्यापयंस्तु सा ह्यस्य कृतकृत्यता ॥ मनु० ४।१७ ॥
जो भी कार्य स्वाध्याय के विरोधी हैं, उन सभी को छोड़ता जाए, और किस भी तरह थोड़ा पढ़ाए, क्योंकि स्वाध्याय की कृतकृत्यता इसी में है ।
  • दानधर्म निषेवेत नित्यमैष्टिकपौर्तिकम् ।
परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्तितः ॥ -- मनु० ४।२२७ ॥
अर्थात् सुखी होकर (वस्तु से मोह पूर्णतया हटाते हुए), गृहस्थ को नित्य यथाशक्ति ऐष्टिक और पौर्तिक कार्यों के लिये पात्र को ढूढ़ कर उसको दान देना चाहिए । ( ऐष्टिक = यज्ञों का आयोजन, और पौर्तिक = रुग्णालय, पाठशाला, आदि बनवाना)। (पात्र का योग्य होना बहुत ही आवश्यक है । गलत पात्र को देने से पुण्य तो क्या, केवल पाप का ही अर्जन होता है।)
  • त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम् ।
दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च ॥ -- मनु० ४।१९३ ॥
तीन प्रकार के गलत पात्रों को देने से, धर्मानुसार अर्जित धन भी, दाता के लिए इसी जन्म में अनर्थ का कारण बन जाता है, और दान लेने वाले के लिए परजन्म में दुःख पहुंचाता है ।
  • सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
एतद्विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ -- मनु० ४।१६० ॥
  • सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत् ।
सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः ॥ -- मनु० ४।१२ ॥
परम सन्तोष में स्थित हो, सुख चाहने वाला इच्छाओं को वश में रखे, क्योंकि सन्तोष ही सुख का मूल है, और असन्तोष दुःख का जनक है ।
  • नात्मानमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः ।
आमृत्योः श्रियमन्विच्छेन्नैनां मन्येत दुर्लभाम् ॥ -- मनु० ४।१३७ ॥
यदि अनेक प्रयासों के बाद भी हम दीन बने रहें, तब भी हमें अपनी अवस्था के लिए अपने को दोष नहीं देना चाहिए, और श्री की प्राप्ति को कभी भी दुर्लभ न समझते हुए, मृत्यु-पर्यन्त प्रयत्न करते ही रहना चाहिए।
  • नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम् ।
द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत ॥ मनु० ४।१६३ ॥
हमें नास्तिक, वेदों की निन्दा करने वाला, विद्वानों की निन्दा करने वाला, द्वेष, कुटिल, अभिमान, क्रोध या कटाक्ष करने वाला - नहीं होना चाहिए ।
  • दृढकारो मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन् ।
अहिंस्रो दमदानभ्यां जयेत् स्वर्गं तथाव्रतः ॥ -- मनु० ४।२४६ ॥
हमें क्या-क्या होना चाहिए, इस विषय में कहते हैं – सदा धर्म के मार्ग पर दृढ़ रहना चाहिए, सबों से कोमल व्यवहार करना चाहिए, क्रूरों से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए, स्वयं अहिंसक होना चाहिए, जितेन्द्रिय और दानशील होना चाहिए ।


  • अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कहिंचित्।
यद्यद्धि कुरुते किञ्चितत्तत्तत्कामस्य चेष्टितम्॥
इस जगत् में कभी भी बिना इच्छा के कोई भी क्रिया या कर्म सम्पन्न होता दिखाई नहीं देता है, क्योंकि मनुष्य जो जो कर्म करता है, वह कर्म उसकी इच्छा की ही चेष्टा का परिणाम है-ऐसा मानना चाहिये।
  • यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः।
स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः॥
मनु ने जिन सम्पूर्ण चारों वर्गों के गुणस्वभावादि धर्मों का उल्लेख किया है। वे सब वेदों में कहे गये है, क्योंकि भगवान मनु समस्त वेदों के अर्थ ज्ञाता है।
  • नोच्छिप्टं कस्यचिद्दद्यान्नद्याच्चैव तथाऽन्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिप्टः क्वचित् व्रजेत् ॥
किसी को जूठा भोजन नहीं देना चाहिए। प्रातः और सायंकाल के भोजन के अतिरिक्त बीच में भोजन नहीं करना चाहिए अत्यधिक भोजन नहीं लेना चाहिए। कहीं भी जूठे मुँह नहीं जाना चाहिए।
  • एकादशं मनोज्ञयं स्वगुणेनोभयात्मकम्।
यस्मिजिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ॥
मन अपने गुणों के प्रभाव से ग्यारहवीं उभयात्मक ( दोनों ही ) अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भी है। इसीलिए मन के जीत लेने पर ये दोनों ज्ञान व कर्मेन्द्रियाँ स्वमेव विजित हो जाती है।
  • वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कहिंचित्॥
दूषित हृदय वाले व्यक्ति का वेदाध्ययन, त्याग, यज्ञादि का अनुष्ठान, यम-नियमों का पालन, अभ्यास ये कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करते हैं।
  • आचार्यपुत्रः शुश्रूषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः।
आप्तः शक्तोऽर्थदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मत ॥
कौन-कौन शिक्षा देने योग्य हैं? इस सम्बन्ध में कहते हैं कि आचार्य का पुत्र, सेवापरायण, अन्य विषय की शिक्षा या गुरू को व्यवहार के सम्बन्ध में परामर्श देने वाला, धर्मतत्पर, पवित्र मन वाला, श्रेष्ठ, सत्यवादी, पाठ को धारण करने में समर्थ, धन देने वाला, सज्जन और स्वजातीय में दश ही गुरु के द्वारा धर्मानुसार अध्यापन योग्य हैं।
  • नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः।
जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्॥
बुद्धिमान मनुष्य को यह उचित है कि वह श्रद्धापूवक प्रश्न न करने वाले को अथवा अन्याय के साथ पूछने वाले को उत्तर न दे। वह जानकार होते हुए भी जड़ या मूर्ख की भाँति आचरण करें।
  • फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति॥ (६.६७)
रीठा यद्यपि जल को शुद्ध करता है, फिर भी उसका नाम लेने मात्र से जल शुद्ध नहीं हो जाता। उसे पीस कर जल में डालने से ही उसकी शुद्धि होती है। वैसे ही व्यक्ति के नाम या उपाधियों के बाहरी दिखावे से ही श्रेष्ठ फल नहीं मिलता, अपितु तदनुकूल आचरण से मिलता है।
  • बलाद्दत्तं बलाद् भुक्त बलाद्यच्चापि लेखितम् ।
सर्वान्बल कृतानर्थानकृतान्मनुरब्रवीत् ॥
बलात्कार से जो नहीं देने योग्य वस्तु दी गई है, जो भूमि, भूषणादि भोगा गया हो, ऋण लेने या ब्याज सम्बन्धी लेख लिखवाया गया हो, बलात् किये गये ये सभी कार्य अमान्य हैं (ऐसा मनु कहते हैं )।
  • चुगली, साहस कर्म, द्रोह, ईर्ष्या , असूया, अर्थदूषण, कठोर वचन और क्रूरता - ये आठ क्रोधजन्य व्यसन हैं। (7.48)
  • विद्वानों ने दोनों प्रकार के व्यसनों का मूल लोभ कहा है। उस लोभ को प्रयत्न से जीतें। (7.49)
  • काम जन्य व्यसनों में मद्यपान, जुआ, स्त्री सहवास व शिकार यथाक्रम अत्यन्त दुखदायी है। (7.50)
  • मृत्यु और व्यसन में व्यसन ही विशेष कष्टप्रद है क्योकि व्यसनी पुरुष निरन्तर नीचे गिरता जाता है तथा अव्यसनी स्वर्ग प्राप्त करता है। (7.53)
  • सुसाध्य कर्म भी कोई केवल अकेले नहीं कर सकता है फिर महान फल वाले राजकाज को सहायकों से रहित राजा अकेला कैसे चला सकता है। (7.55)
  • राजा को चाहिए की मंत्रियों में जो शूर, दक्ष, श्रेस्ठ कुल वाले सदाचारी हों उन्हें खान एवम अन्न भंडार आदि पर नियुक्त करे तथा भीरु स्वभाव का पुरुषों को अन्तःपुर के सामान्य कार्यों पर लगाए। (7.62)
  • चेष्ठा से मनोभाव समझने वाले पवित्र, चतुर तथा कुलीन पुरुष को दूत नियुक्त करे। (7.64)
  • यह निश्चय जानिए कि जैसे अग्नि में ईंधन और घी डालने से अग्नि की ज्वाला और अधिक बढ़ जाती है, वैसे ही कामों के उपभोग से कभी भी काम शांत नहीं होता है बल्कि निरंतर बढ़ता ही जाता है।
  • शुद्धाचरण से, चरित्रवान बनने से, स्त्री. पुरुष निश्चित रूप से दीर्घायु प्राप्त करते हैं।
  • सब दानों में ब्रह्म (विद्या) का दान सबसे श्रेष्ठ है।
  • बिना हिंसा के मांस नहीं मिलता, हिंसा पाप है। अत: मांस खाना भी पाप है।
  • चोरी करने वाले के हाथ काट दो। दुष्ट कर्म करने वाले की आँख निकाल दो। व्यभिचारी पुरुष को गर्म-गर्म विशाल तवे पर डाल कर मार दो।
  • व्यभिचारिणी स्त्री को कुत्ते से नुचवा कर मरवा दो। यह दण्ड दुष्टों को सार्वजनिक स्थान पर दिया जाए जिससे कि अधिकाधिक लोग देख कर शिक्षा ग्रहण करें और भय के कारण स्वप्न में भी कभी पाप करने का विचार न करें।
  • न्याययुत दंड का नाम ‘राजा’ और ‘धर्म’ है। यदि दण्ड नहीं तो राजा का कोई औचित्य नहीं। यदि दण्ड नहीं तो धर्म का भी कोई आधार नहीं।
  • शरीर जल से साफ होता है, मन सत्य से, बुद्धि ज्ञान से तथा आत्मा धर्म से साफ होती है।
  • क्रूर स्वभाव का परित्याग सबसे बड़ा धर्म है।
  • उचित रीति से स्त्री की रक्षा करने से अपने कुल, संतान, आत्मा व धर्म की रक्षा होती है।
  • पति-पत्नी को इस विधि से जीवन व्यतीत करना चाहिए कि जिसमें परस्पर मरणपर्यन्त वियोग न हो।
  • स्त्रियाँ सन्तान को जन्म देती हैं। वे घर का सौभाग्य हैं, वे पूजा के योग्य हैं, वे घर की चिराग (गृह दीप्ति) हैं।
  • कन्या विवाह योग्य होने पर भी मरणपर्यन्त घर में बैठी रहे परंतु उस कन्या का कभी गुणहीन पुरुष को दान न करें।
  • जिस कुल या परिवार में स्त्रियाँ कष्ट प्राप्त करती हैं, उन्हें पीड़ित किया जाता है, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है। जहाँ वे कष्ट या दुख को प्राप्त नहीं होती, वह कुल, परिवार सदा वृद्धि को प्राप्त करता है।
  • गृहस्थाश्रम के आश्रम ही अन्य तीन आश्रमों के पालन-पोषण आदि की व्यवस्था की जाती है। इसलिए गृहस्थाश्रम सबसे बड़ा आश्रम है।
  • सन्तानों को जन्म देना, जन्मे हुओं का पालन-पोषण – ये महत्तम कार्य नारी के ही हैं। दैनिक लोकव्यवहार रूपी कार्यों का प्रत्यक्ष मुख्य आधार नारी ही है।
  • अध्ययन नहीं करने से, आचार का पालन नहीं करने से, आलस्य और अन्य दोषों के कारण असमय मृत्यु होती है।
  • जहाँ सब एक हैं, वहाँ सब कुछ अपने आप खिंच कर चला आता है। एकता सर्वदात्री है।
  • दान लेने का पात्र होने पर भी बार-बार दान न लें क्योंकि उससे ब्रह्म तेज नष्ट हो जाता है।
  • अध्ययन, तप, ज्ञान पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह और ‘आत्म-चिंतन ‘- ये सब सात्त्विक गुण के लक्षण हैं।
  • ब्रह्मचारी को चाहिए कि अखण्डित ब्रह्मचर्य तथा अपनी कुल परम्परा का पालन करते हुए तीनों वेदों अथवा दो वेदों या एक वेद का पूर्ण अध्ययन समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।
  • प्रात:काल उठ कर राजा तीनों वेदों में कुशल वृद्ध विद्वान ब्राह्मणों की सेवा में उपस्थित हो और उनके निर्देशों के अनुसार राज्य का कार्य संचालन करें।
  • मनुष्यों को ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद के अतिरिक्त अन्य विविध मंत्रों को जानना चाहिए। ये जीवों के लिए कल्याणपरक होते हैं। जो इन तीन वेदों को भली-भांति जानता है, वही वेदवेत्ता कहलाता है।
  • देश, धर्म, शील व संस्कृति की हिंसा करने वाले को मारने में कोई पाप नहीं है।

मनु और मनुस्मृति के बारे में उद्धरण

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  • मनुस्मृति ही वह आधारशिला है जिसके ऊपर मिस्र, परसिया, ग्रेसियन और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ। आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है। -- लुई जैकोलिऑट (Louis Jacolliot), बाइबल इन इण्डिया' नामक ग्रन्थ में []
  • बाइबल को बन्द करो और मनुस्मृति को खोलो। इसमें जीवन की सकारात्मक छबि है। -- जर्मनी के महान दार्शनिक फ्रेदरिक नीत्से (Friedrich Nietzsche)
  • यद्यपि जातिगत भेदभाव आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास के लिये हानिकारक है, जातिवाद का हिन्दू धर्म और मनुस्मृति से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह ग्रन्थ व्यवसायों की भिन्नता और विविधता के महत्व को प्रतिपादित करता है। यह किसी के अधिकार की परिभाषा नहीं करता बल्कि उनके कर्तव्यों की परिभाषा करता है। सभी कार्य, चाहे वे शिक्षण के हों या सफाई के, समान रूप से आवश्यक हैं और उनका स्थान भी बराबरी का है। मैं चाहता हूँ कि इस ग्रन्थ को सम्पूर्णतः पढ़ना चाहिए लेकिन उन भागों को नहीं मानन चहिये जो सत्य और अहिंसा से मेल न खाते हों। -- महात्मा गांधी

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. V. Krishna Rao. Expansion of Cultural Imperalism Through Globalisation. Manak Publications. p. 82.